।। प्रमोद जोशी ।।
वरिष्ठ पत्रकार
लोकसभा चुनाव के परिणाम आने के बाद कश्मीर की राजनीति में भी फेरबदल होगा. ऐसा माना जाता है कि दिल्ली में जब भाजपा की सरकार आती है, तब कश्मीर पर बड़ी पहल होती है. लाहौर बस यात्रा से लेकर आगरा सम्मेलन तक इसके प्रमाण हैं.क्या नरेंद्र मोदी ने वास्तव में कश्मीर के अलगाववादी नेता सैयद अली शाह गिलानी के पास अपने दूत भेजे थे? भाजपा ने इस बात का खंडन किया है. संभवत: लोजपा के प्रतिनिधि गिलानी से मिले थे. लेकिन इससे ज्यादा महत्वपूर्ण सवाल है कि गिलानी ने आखिर इस बात को जाहिर क्यों किया? कश्मीर के अलगाववादी हालांकि भारतीय संविधान के दायरे में बात नहीं करना चाहते, पर वे भारतीय राजनेताओं के निरंतर संपर्क में रहते हैं. उनके साथ खुली बात नहीं होती, पर भीतर-भीतर होती है. इसमें ऐसी क्या बात थी कि कांग्रेस ने उसे तूल दी और भाजपा ने कन्नी काटी?
अगस्त, 2002 में हुर्रियत के नरमपंथी धड़ों के साथ अनौपचारिक वार्ता एक बार ऐसे स्तर तक पहुंच गयी थी कि उस साल होनेवाले विधानसभा चुनाव में हुर्रियत के हिस्सा लेने की संभावनाएं तक पैदा हो गयीं. उस पहल के बाद मीरवाइज उमर फारूक और सैयद अली शाह गिलानी के बीच मतभेद उभरे और हुर्रियत दो धड़ों में बट गयी. उस वक्त अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे और राम जेठमलानी के नेतृत्व में कश्मीर कमेटी ने इस दिशा में पहल की थी. कश्मीर कमेटी एक गैर-सरकारी समिति थी, पर माना जाता था कि उसे केंद्र सरकार का समर्थन प्राप्त था. सरकार हुर्रियत की काफी शर्ते मानने को तैयार थी, फिर भी समझौता नहीं हो पाया. तब जाहिर हुआ कि अलगाववादी खेमे में भी मतभेद हैं. गिलानी के बयान को इस रोशनी में भी देखा जाना चाहिए, क्योंकि गिलानी के इस वक्तव्य की मीरवाइज वाले धड़े ने निंदा की है.
अब जब दिल्ली में मोदी सरकार की संभावनाएं बन रही हैं, तो कश्मीरी राजनीति में भी हलचल है. अप्रैल के पहले हफ्ते में मीरवाइज ने ‘कश्मीर मसले पर भारत की जनता के नाम एक खुला खत’ जारी किया. कहीं-न-कहीं कश्मीर के सवाल पर सुगबुगाहट है. कोई आश्चर्य नहीं कि भाजपा की ओर से कुछ लोग कश्मीरी अलगाववादियों से संपर्क कर रहे हों. पर यह संपर्क अनौपचारिक और गोपनीय होगा. नरेंद्र मोदी ने कई बार कहा है कि हम कश्मीर मसले को सुलझाने की कोशिश करेंगे और अनुच्छेद 370 पर विचार-विमर्श के लिए भी हम तैयार हैं. ये बातें सकारात्मक हैं और इसमें दो राय नहीं कि ये गोपनीय होती हैं. भारत-पाक के बीच भी सहमति बनाने के लिए ‘ट्रैक टू’ का संवाद होता है.
जब यह सहज बात है, तब गिलानी ने इसे सार्वजनिक क्यों किया? या तो नरेंद्र मोदी के प्रति हिकारत का भाव है या यह हुर्रियत की धड़ेबाजी का परिणाम है? कहीं ऐसा तो नहीं कि गिलानी साहब भविष्य की संभावित वार्ताओं में अपनी भूमिका को कम होते देख किसी किस्म की पेशबंदी कर रहे हों. या वे भारतीय राजनीति में कांग्रेस और भाजपा के टकराव में किसी एक पक्ष के साथ हों? और चुनाव के मौके पर हस्तक्षेप कर रहे हों. हो तो कुछ भी सकता है, पर यह जरूर है कि चुनाव परिणाम आने के पहले ही कश्मीर-मसला अचानक हवा में उछल गया है.
हमारा जितना अनुभव आजादी का है, लगभग उतना लंबा अनुभव कश्मीर को लेकर तल्खी का है. यह समस्या आजादी के पहले ही जन्म लेने लगी थी. भारत-पाकिस्तान के बीच किसी रोज यह समस्या दोनों की रजामंदी से सुलझ गयी, तो इस उप महाद्वीप के अंतर्विरोध अच्छी तरह खुलेंगे, क्योंकि पाकिस्तान के कट्टरपंथ को कश्मीर के नाम पर ही खाद-पानी मिलता है.
इसका समाधान हो गया, तो उसका वजूद खतरे में आ जायेगा. 2004 में यूपीए सरकार आने के बाद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कश्मीर जाकर कहा कि हम अंतरराष्ट्रीय सीमा-रेखा बदलने के पक्ष में नहीं हैं, पर कश्मीर में नियंत्रण रेखा को अप्रासंगिक बना देंगे. यानी उसके आर-पार आवाजाही और व्यापार को बढ़ावा देंगे.
13 अक्तूबर, 2010 को भारत सरकार के गृह मंत्रालय ने जम्मू और कश्मीर की समस्या का अध्ययन कर उसका समाधान खोजने के लिए एक तीन सदस्यीय दल का गठन किया. इस दल में पत्रकार दिलीप पडगांवकर के अलावा शिक्षाविद् राधा कुमार और एक पूर्व उच्च सरकारी अधिकारी एमएम अंसारी भी थे. इस टीम ने कश्मीर के अलगाववादियों से व्यापक बातचीत कर 12 अक्तूबर, 2011 को अपनी रिपोर्ट सौंपी, जिसमें सिफारिश थी कि अनुच्छेद 370 को अस्थायी के बजाय ‘विशेष’ में बदल दिया जाये. टीम ने पाक अधिकृत कश्मीर के लिए ‘पाक शासित कश्मीर’ शब्द का प्रयोग किया, जिस पर भारत में कई लोगों ने आपत्ति जतायी. वार्ताकारों ने 1952 के बाद लागू कानूनों की समीक्षा के लिए एक संविधान समिति बनाने की अनुशंसा भी की.
इस समिति के अलावा नयी दिल्ली से तत्कालीन गृहमंत्री पी चिदंबरम के नेतृत्व में सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल कश्मीर घाटी गया. इस दल में भाजपा के अरुण जेटली, सुषमा स्वराज, माकपा के सीताराम येचुरी, लोजपा के रामविलास पासवान सहित विभिन्न दलों के 38 सदस्य शामिल थे. इस टीम ने भी अलगाववादियों के साथ अनौपचारिक बातचीत की.
ये सारी कोशिशें कश्मीर में हालात सामान्य बनाने के लिए थीं. लेकिन कश्मीर में कई प्रकार की राजनीतिक ताकतों की आपसी खींचतान भी इस दौरान सामने आयी. सीताराम येचुरी खुद सैयद अली शाह गिलानी के निवास पर गये. उनके साथ सांसद टीआर बालू और रतन सिंह अजनाला भी थे. कुछ सांसदों ने अलगाववादी नेता मीरवाइज उमर फारूक और यासीन मलिक के घर पर पहुंच कर बातचीत की. ये कोशिशें इसलिए भी थीं, क्योंकि गर्मियों में घाटी के नौजवानों को भड़का कर भारत विरोधी आंदोलन चलाया जा रहा था. किशोरों की टोलियां सुरक्षा दलों पर पत्थर मार रही थीं, ताकि बदले में फायरिंग हो. उस आंदोलन के पीछे गिलानी की मुख्य भूमिका थी.
कश्मीरी अलगाववादियों के नेता अक्सर दिल्ली आते हैं. गिलानी का तो इलाज ही दिल्ली में होता है. इस साल के अंत में जम्मू-कश्मीर विधानसभा के चुनाव भी होने हैं. कश्मीर की राजनीति के समीकरण बदल रहे हैं. महबूबा मुफ्ती के नेतृत्व वाली पीडीपी के रिश्ते भाजपा के साथ बनते नजर आते हैं. लोकसभा चुनाव के परिणाम आने के बाद सूबे की राजनीति में भी फेरबदल होगा. पाकिस्तान और खासतौर से कश्मीर में इन चुनावों पर नजर रखी जा रही है.
माना जाता है कि दिल्ली में भाजपा सरकार आती है, तब कश्मीर पर बड़ी पहल होती है. लाहौर बस यात्रा से लेकर आगरा सम्मेलन तक प्रमाण हैं. पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को भी चुनाव-परिणाम का इंतजार है. बेशक कश्मीर पर कोई नाटकीय फैसला संभव नहीं है, पर मौजूदा गतिविधियां बदलते हालात की ओर इशारा कर रही हैं. जरूर कहीं कुछ हो रहा है.