भाजपा के वरिष्ठ नेता लाल कृष्ण आडवाणी ने अहमदाबाद में कहा है कि चुनाव के बाद केंद्र में उनकी सरकार बनी तो देश में अनिवार्य मतदान की व्यवस्था लागू की जायेगी. उन्होंने सुझाया है कि वोट नहीं देनेवालों को दंडस्वरूप अगले चुनाव में मतदान के अधिकार से वंचित करने की व्यवस्था बनायी जा सकती है. उल्लेखनीय है कि भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार एवं गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी भी अनिवार्य मतदान के पक्षधर हैं.
गुजरात अकेला राज्य है, जहां अनिवार्य मतदान विधेयक को विधानसभा से पारित किया गया है. इससे पहले आडवाणी देश में बहुदलीय संसदीय प्रणाली की जगह अमेरिका की तरह राष्ट्रपति शासन प्रणाली की वकालत भी कर चुके हैं. दूसरी ओर कई विश्लेषकों की राय में आडवाणी का यह विचार ‘मजबूत केंद्र और अनुशासित जनता’ के दक्षिणपंथी सोच से प्रेरित है. लोकतंत्र की मजबूती के लिए हर मतदाता की राजनीतिक जिम्मेवारी है कि वह अपने मताधिकार का प्रयोग करे, लेकिन अहम सवाल यह भी है कि क्या उसे मतदान के लिए मजबूर किया जाना उचित होगा? इतना ही नहीं, भारत जैसे विशाल राज्य में वोट नहीं देनेवालों की पहचान कर उन्हें दंडित करने की प्रक्रिया काफी जटिल और खर्चीली भी होगी. विडंबना देखिये कि उसी सभा में आडवाणी यह भी कहते हैं कि मौजूदा आम चुनाव के परिणाम तो मतदान से पहले ही लोगों द्वारा तय कर दिये गये हैं.
ऐसे में उन्हें स्पष्ट करना चाहिए कि जब परिणाम पहले ही तय हो सकते हैं, तो सबको मतदान के लिए मजबूर करने की जरूरत क्या है? इंटरनेशनल पॉलिटिकल साइंस रिव्यू द्वारा 2011 में 36 देशों में हुए एक सर्वेक्षण के मुताबिक जिन देशों में मतदान अनिवार्य है, वहां औसत मतदान 85.7 फीसदी, जबकि अन्य देशों में 77.5 फीसदी था. मौजूदा आम चुनाव के आंकड़े बताते हैं कि हमारे देश में भी मतदान प्रतिशत में वृद्धि हो रही है. और फिर मतदान में अपेक्षाकृत कम भागीदारी उन्हीं तबकों की हो रही है, जो विकास का अधिक लाभ हासिल कर रहे हैं. ऐसे में लोकतंत्र की खामियों का उपचार कठोर कानूनों से नहीं, बेहतर शासन के जरिये ही हो सकता है. इसलिए अनिवार्य मतदान जैसा कोई भी फैसला लेने से पहले इसकी खूबियों एवं खामियों पर राष्ट्रव्यापी बहस जरूरी है.