नयी दिल्लीः देश और दुनिया में हर आंकड़े को लगातार अपडेट किया जाता है. परीक्षा में यदि पुराने आंकड़े लिख दिये, तो उसके नंबर कट जाते हैं. लेकिन, देश के सर्वोच्च पद के चुनाव में आज भी पुराने आंकड़ों को ही आधार बनाया जाता है. वह भी 46 साल पुराने आंकड़े को.
देश का 14वां राष्ट्रपति चुनाव भी चार दशक से अधिक पुरानी जनगणना के आंकड़ों के आधार पर ही होगा. संविधान के जानकार बताते हैं कि 1971 की आबादी के आधार पर होनेवाले राष्ट्रपति चुनाव में कई राज्यों को उतना प्रतिनिधित्व नहीं मिलेगा, जितना कि इस बार के चुनाव में उन्हें मिलना चाहिए था.
भारत के जनगणना आयुक्त एवं महापंजीयक कार्यालय की जनगणना के अनुसार, वर्ष 1971 में देश की कुल आबादी 54.81 करोड़ थी, जबकि 2011 के अंतिम आंकड़ों के अनुसार देश की कुल जनसंख्या 121.01 करोड़ हो गयी. एक अनुमान के अनुसार, वर्ष 2017 में देश की कुल आबादी 128 करोड़ से ज्यादा हो सकती है. हालांकि, एक अमेरिकी विशेषज्ञ ने भारत की आबादी 132 करोड़ होने की बात कही है.
1971 और 2017 की आबादी में ढाई गुना का अंतर आ गया है. लेकिन, राष्ट्रपति चुनाव में मतदान करनेवाले प्रतिनिधियों के मतों का निर्धारण 1971 की जनगणना के आंकड़ों के आधार पर ही किया जा रहा है.
संविधान विशेषज्ञ डॉ सुभाष कश्यप कहते हैं कि यदि राष्ट्रपति चुनाव का आधार 1971 से बदल कर 2011 कर दिया जाये, तो कई राज्यों के विधायकों के मतों का मूल्य और कुल मतों में उनकी हिस्सेदारी काफी बढ़ जायेगी. काश्यप के मुताबिक, 1971 की आबादी के आधार पर होनेवाले राष्ट्रपति चुनाव में ऐसे राज्यों को उचित प्रतिनिधित्व नहीं मिल पायेगा, जिनकी आबादी इन चार दशकों में तेजी से बढ़ी है.
DIVIDED POLITICS : राष्ट्रपति चुनाव की बिसात बिछनी शुरू, लेकिन बाजी किसके हाथ ?
कुछ कानूनविद कहते हैं कि संविधान के अनुसार, राष्ट्रपति चुनाव के लिए जनप्रतिनिधियों के मतों के निर्धारण को लेकर यह स्पष्ट प्रावधान था कि राष्ट्रपति चुनाव सबसे नयी जनगणना के आधार पर होंगे. 1952 के राष्ट्रपति चुनाव का बेस 1951 की जनसंख्या थी, जबकि 1961 की जनगणना के आंकड़े समय पर नहीं मिल पाने के कारण 1962 का चुनाव भी 1951 की जनसंख्या के बेस पर कराये गये. इसके बाद 70 के दशक में हुए राष्ट्रपति चुनाव का आधार 1971 की जनगणना बनी.
1971 की जनगणना को आधार मान कर ही लोकसभा और विधानसभा के निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन किया गया. 2004 तक के सभी आम एवं विधानसभा चुनाव उसी परिसीमन के आधार पर कराये गये. इस दौरान राष्ट्रपति चुनाव भी 1971 की जनगणना के अनुसार ही होते रहे.
परिसीमन का आधार पुराना, इसलिए पुराने आंकड़ों पर चुनाव
संविधान में जनसंख्या के सबसे नये आंकड़ों के हिसाब से राष्ट्रपति चुनाव कराने का प्रावधान था, लेकिन परिसीमन का बेस पुराना होने के कारण राष्ट्रपति चुनाव भी पुरानी जनसंख्या के आंकड़ों के हिसाब से होते रहे.
2026 तक इसी आंकड़े के आधार पर होंगे चुनाव
वर्ष 2002 में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्ववाली एनडीए सरकार ने संविधान में संशोधन करके तय कर दिया कि 2026 तक के सभी राष्ट्रपति चुनाव 1971 की जनगणना के अनुसार ही होंगे. इसमें कहा गया कि दक्षिण के राज्यों ने जनसंख्या नियंत्रण कार्यक्रमों को बेहतर तरीके से लागू किया, उन्हें इसका पुरस्कार मिलना चाहिए. और सरकार ने तय किया कि 2026 तक के राष्ट्रपति चुनाव में ऐसे राज्यों का आनुपातिक प्रतिनिधित्व कम नहीं होना चाहिए.
2008 में 2001 की जनगणना के आधार पर हुआ परिसीमन
वर्ष 2008 से विधानसभाओं के चुनाव वर्ष 2001 की जनगणना के आंकड़ों पर किये गये परिसीमन के अाधार पर कराये गये. इसके बाद वर्ष 2009 का लोकसभा चुनाव भी नये परिसीमन के अनुरूप ही हुआ.कानूनविद विराग गुप्ता कहते हैं कि इस बार के राष्ट्रपति चुनाव भी 2001 की जनगणना के आंकड़ों पर कराये जाने चाहिए थे. उन्होंने कहा कि राष्ट्रपति चुनाव में मतदान करनेवाले ज्यादातर जनप्रतिनिधि 2001 की जनगणना के अनुरूप हुए परिसीमन के तहत चुने गये हैं. उन्होंने कहा कि हालांकि राष्ट्रपति चुनाव भी चुनाव आयोग को कराने हैं, लेकिन राष्ट्रपति चुनाव में बेस ईयर बदलने के लिए संसद में संविधान संशोधन करना पड़ेगा.
ऐसे तय होता है इलेक्टोरल काॅलेज के मत का मूल्य
भारत के राष्ट्रपति का चुनाव परोक्ष निर्वाचन प्रणाली के तहत निर्वाचक मंडल द्वारा किया जाता है. इसमें मतदान करनेवाले विधायकों और सांसदों के मतों का मूल्य भी राज्य की कुल आबादी के हिसाब से तय होता है. इसे ‘आनुपातिक प्रतिनिधित्व व्यवस्था’ कहते हैं. इस व्यवस्था के तहत राज्य की कुल आबादी में विधानसभा क्षेत्रों की संख्या का भाग दिया जाता है. फिर इससे प्राप्त आंकड़े को एक हजार से भाग देते हैं. इससे जो संख्या मिलती है, उसे ही राष्ट्रपति चुनाव में उस राज्य के विधायक के मत का मूल्य कहा जाता है.