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भाजपा अब शिवसेना की मनमानी बर्दाश्त करने के मूड में नहीं!

नयी दिल्ली : भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और उसकी सबसे पुरानी सहयोगी पार्टी शिवसेना के रास्ते अलग होने वाले हैं. दोनों दलों के नेताओं की राजनीतिक बयानबाजी से इसके संकेत मिलने लगे हैं. ऐसा लगता है कि भाजपा अब शिवसेना की तल्खियों को बर्दाश्त करने के मूड में नहीं है. भाजपा अब तक शिवसेना के […]

नयी दिल्ली : भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और उसकी सबसे पुरानी सहयोगी पार्टी शिवसेना के रास्ते अलग होने वाले हैं. दोनों दलों के नेताओं की राजनीतिक बयानबाजी से इसके संकेत मिलने लगे हैं. ऐसा लगता है कि भाजपा अब शिवसेना की तल्खियों को बर्दाश्त करने के मूड में नहीं है. भाजपा अब तक शिवसेना के हर हमले को झेल रही थी. मामला सरकार के कामकाज की आलोचना का हो, राम मंदिर के मुद्दे पर अयोध्या में कार्यक्रम करने और भाजपा पर वादाखिलाफी करने का आरोप लगाने का हो, तीन राज्यों में संपन्न हुए विधानसभा चुनावों में मोदी लहर की ‘हवा निकलने’ की बात हो या प्रधानमंत्री प्रत्याशी के मुद्दे पर नरेंद्र मोदी की आलोचना की हो. किसी भी मुद्दे पर भाजपा ने कभी शिवसेना के बयान पर पलटवार नहीं किया. उसे जवाब तक नहीं दिया. लेकिन, शाह के बयान से साफ हो गया है कि भाजपा अब शिवसेना की मनमानी बर्दाश्त करने के मूड में नहीं है.

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अब तक सिर्फ शिवसेना की ओर से भाजपा पर हमले होते थे, लेकिन, भाजपा ने ऐसा बयान दे दिया, जिससे शिवसेना तिलमिला उठी. दोनों के रिश्तों में खटास वर्ष 2014 में महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों से पहले ही आ गयी थी. पालघर लोकसभा उपचुनाव में मिली शिकस्त के बाद शिवसेना की बौखलाहट पहली बार सामने आयी थी. उसने भाजपा को अपना दुश्मन नंबर वन बता दिया था. फिर भी भाजपा ने उसके खिलाफ कभी कोई तल्ख बयान नहीं दिये. अब माहौल बदल गया है. रविवार को पहली बार भाजपा के सबसे बड़े नेता अमित शाह ने साफ कर दिया है कि शिवसेना जिद पर अड़ी रही, तो उनकी पार्टी अकेले चुनाव लड़ेगी और उन्हें पराजित भी करेगी.

इससे पहले महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने पार्टी कार्यकर्ताओं को राज्य की 48 में से 40 सीटें जीतने का लक्ष्य दिया, तो पलटवार करने में शिवसेना ने कोई देरी नहीं की. कांग्रेस और अन्य विरोधी दलों की तरह भाजपा पर इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (इवीएम) से छेड़छाड़ करने की मंशा का आरोप जड़ दिया. शिवसेना यहीं नहीं रुकी. पार्टी सुप्रीमो उद्धव ठाकरे के एक सहयोगी ने तो यहां तक कह दिया कि जो शिव सेना पर हमला कर रहे हैं, पार्टी निश्चित तौर पर उन्हें हरायेगी.

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भाजपा अध्यक्ष ने पार्टी कार्यकर्ताओं से कहा है कि वे गठबंधन की संभावना के भ्रम से दूर रहें. उन्होंने 2019 के चुनावों की तुलना पानीपत की तीसरी लड़ाई से की. कहा कि पानीपत की तीसरी लड़ाई में मराठा सेना को अफगान शासक अहमद शाह अब्दाली की सेना ने हराया था. उस लड़ाई के बाद देश 200 साल तक गुलाम रहा. यदि भाजपा चुनाव जीती, तो 50 साल तक पार्टी की विचारधारा शासन करेगी. हालांकि, भाजपा बार-बार शिवसेना को साथ लेकर चलने की बात करती है, तो शिवसेना भाजपा की मिट्टी पलीद करने में कभी कोई कसर बाकी नहीं रखती. वह गठबंधन का हिस्सा होते हुए सड़क से लेकर संसद तक एनडीए सरकार के खिलाफ बोलती है.

दरअसल, भाजपा और शिवसेना के बीच लड़ाई इस बात की है कि महाराष्ट्र में बड़ा भाई कौन? 1999 से ही विधानसभा चुनावों के लिए शिवसेना और भाजपा के बीच क्रमश: 171 और 117 सीटों का फॉर्मूला तय था. 2009 में भाजपा को दो सीटें ज्यादा दी गयीं और शिवसेना की दो सीट घट गयी. वहीं, लोकसभा चुनाव में भाजपा 26 और शिवसेना 22 सीटों पर चुनाव लड़ती रही.

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वर्ष 2014 के मोदी लहर पर सवार होकर लोकसभा चुनाव में अपने बूते बहुमत हासिल करने वाली भाजपा की महत्वाकांक्षा बढ़ गयी. उसने अक्टूबर के विधानसभा चुनाव में बड़ा हिस्सा मांगा. उत्तर भारतीय पार्टी मानी जाने वाली भाजपा को संसदीय चुनाव में बड़े पैमाने पर मराठा और गुजराती वोट भी मिले. पार्टी को लगा कि उसका महाराष्ट्र में ज्यादा विस्तार हुआ है. इसलिए 50 ऐसी सीटें, जहां शिवसेना कभी नहीं जीती, भाजपा को मिलनी चाहिए. शिवसेना इसके लिए तैयार नहीं हुई.

नतीजा, भाजपा की सबसे पुरानी सहयोगी पार्टी से उसका गठबंधन टूट गया. विधानसभा चुनाव मेें दोनों पार्टियां अलग-अलग लड़ीं. भाजपा ने क्षमता से बहुत बढ़िया प्रदर्शन किया. उसे अकेले 122 सीटें मिलीं. हालांकि, वह बहुमत से कुछ दूर रह गयी. एनसीपी ने बाहर से समर्थन के संकेत दिये, लेकिन बाद में शिवसेना के समर्थन से महाराष्ट्र में पहली बार भाजपा के मुख्यमंत्री ने शपथ ली. शिवसेना का उप-मुख्यमंत्री तक नहीं बन पाया. इस तरह, सरकार का रिमोट मातोश्री के हाथों से छिन गया. केंद्र में भी शिवसेना को बहुत ज्यादा हिस्सेदारी नहीं मिली. उसकी बात तक नहीं मानी गयी. नगर निगम चुनावों में भी भाजपा का प्रदर्शन बेहतर रहा. उसे शिवसेना से महज सात सीटें कम मिलीं. यहां भाजपा ने शिवसेना को समर्थन दिया.

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यह बाला साहेब ठाकरे के नेतृत्व वाली शिवसेना नहीं रह गयी. पहली बार शिवसेना इतनी बेबस और मजबूर थी, जब न राज्य में उसकी बात सुनी गयी, न केंद्र में. इसलिए शिवसेना हर हाल में भाजपा को दबाना चाहती है. महाराष्ट्र में फिर से अपना दबदबा कायम करना चाहती है. उसे पता है कि 2019 का लोकसभा चुनाव भाजपा के लिए कितना अहम है. इसलिए वह 2014 का हिसाब 2019 में बराबर करना चाहती है.

शिवसेना की मजबूरी यह है कि उसने अपनी छवि हिंदुत्ववादी पार्टी की बना रखी है. इसलिए वह कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) के साथ खड़ी नहीं हो सकती. हालांकि, उन्हें तीसरा मोर्चा या फेडरल फ्रंट की बात करने वाली ममता बनर्जी से उन्हें कोई परहेज नहीं है. शिवसेना की मजबूरी यह है कि उसके ही कुछ नेता चाहते हैं कि भाजपा से गठबंधन न टूटे. यही वजह है कि तीन दशक पुराने गठबंधन को लेकर तस्वीर पूरी तरह से स्पष्ट नहीं हो पा रहा है.

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