भारत की दिग्गज पर्वतारोही प्रेमलता अग्रवाल को दुनिया के सातों महाद्वीपों की सबसे उंची चोटी पर चढ़ने की उपलब्धि हासिल करने वाली पहली भारतीय महिला बनने पर आज यहां सम्मानित किया गया. पचास वर्षीय प्रेमलता ने 23 मई 2013 को उत्तरी अमेरिका के अलास्का के माउंट मैकेनले को फतह करके यह उपलब्धि हासिल की. वह इस पर्वत शिखर पर चढ़ने वाली पहली भारतीय महिला हैं.
बीस मई 2011 को दुनिया के सर्वोच्च शिखर माउंट एवरेस्ट को फतह करने वाली प्रेमलता इससे पहले अफ्रीका में किलिमंजारो (तंजानिया), दक्षिण अमेरिका में एकोनकागुआ (अज्रेन्टीना), यूरोप में माउंट एल्ब्रस (रुस), आस्ट्रेलिया ओसियाना में कास्र्टेंस्ज पिरामिड (इंडोनेशिया) और अंटार्कटिका में विनसन मासिफ पर चढ़ चुकी हैं.
जमशेदपुर के सांसद डाक्टर अजय कुमार ने प्रेमलता को सम्मानित करते हुए कहा, ‘‘प्रेमलता की यह उपलब्धि उनके लिए निजी तौर पर ही नहीं बल्कि जमशेदपुर और भारत के लिए भी बड़ी उपलब्धि है. टाटा स्टील इससे पहले भी खिलाड़ियों और पर्वतारोहियों की मदद करता रहा है और इस अभियान में भी उनकी अहम भूमिका रही.’’ अपनी इस उपलब्धि से उत्साहित प्रेमलता ने कहा, ‘‘मेरी सफलता मेरी अकेले की नहीं है.
इसमें कई लोगों की भूमिका है जिसमें मेरा परिवार, बछेंद्री पाल और टाटा स्टील का समर्थन और लोगों का प्यार शामिल है.’’अपने दूसरे प्रयास में माउंट मैकेनले को फतह करने वाली प्रेमलता ने कहा कि उनके इस अभियान में नंदलाल रुंगटा की अहम भूमिका रही.
प्रेमलता ने कहा, ‘‘टाटा स्टील ने सातों महाद्वीपों के शिखर को फतह करने के अभियान में प्रायोजन का वादा किया था और उन्होंने वादा निभाया भी. पहले प्रयास में मैकेनले पर चढ़ने में नाकाम रहने के बाद मुङो दूसरे प्रयास के लिए एक अन्य प्रायोजक की जरुरत थी और ऐसे में रुंगटा ने मेरे अभियान को प्रयोजित करने का जिम्मा उठाया.’’ प्रेमलता ने 35 बरस की उम्र के बाद पहली बार पर्वतारोहण से नाता जोड़ा जब वह दिग्गज पर्वतारोही बछेंद्री पाल से मिली. उन्होंने इसके बाद दाजिर्लिंग से पर्वतारोहण का कोर्स किया और फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा. प्रेमलता से जब पूछा गया कि उन्हें अपने इस अभियान में सबसे ज्यादा परेशानी किस शिखर पर चढ़ने में हुई तो उन्होंने कास्र्टेंस्ज पिरामिड और माउंट मैकेनले का नाम किया.उन्होंने कहा, ‘‘कास्र्टेंस्ज पिरामिड का सफर काफी मुश्किल था. यहां ज्यादा बर्फ नहीं होती और वर्षा वन से होकर गुजरना होता है. दिन में सात से आठ घंटे की यात्रा के दौरान घुटनों तक दलदल से होकर गुजरना पड़ता है. कई बार को दलदल कमर तक होती है. इसके बाद चट्टानों पर चढ़ना होता है जो बिलकुल भी आसान नहीं होता. वहां से वापस आते हुए मेरे पैर पर पत्थर भी गिर गया था लेकिन मेर पास सूजन के बाद अकेले वापस लौटने के अलावा कोई चारा नहीं था. मदद करने के लिए कोई नहीं था.’’ प्रेमलता ने माउंट मैकेनले की यात्रा के बारे में कहा, ‘‘मैकेनले और कास्र्टेंस्ज पिरामिड में सामान उठाने के लिए भी कोई नहीं मिलता. सारा सामान खुद उठाना पड़ता है. मैकेनले पर चढ़ने समय मेरे कंधे पर 25 किलो जबकि स्लेज पर 30 किलो के आसपास वजन था. मौसम भी प्रतिकूल था लेकिन एक बार नाकाम रहने के बाद मैं और अधिक प्रतिबद्ध थी.’’ प्रेमलता ने कहा कि वह इस अभियान के जरिये भारतीय महिलाओं को बताना चाहती थी कि अगर हम ठान लें तो उम्र कोई बाधा नहीं है.