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Chanakya Niti: दुनिया में इससे बढ़कर कोई सुख नहीं- आचार्य चाणक्य से जानें क्या है वो चीज

Chanakya Niti: चाणक्य कहते हैं, संतोष सबसे बड़ा सुख है और तृष्णा सबसे बड़ा रोग उनकी ये बातें आज भी उतनी ही सटीक और प्रेरणादायक हैं.

Chanakya Niti: आचार्य चाणक्य ने कहा था- “शांति से बढ़कर कोई तप नहीं, संतोष से बढ़कर कोई सुख नहीं, तृष्णा और चाहत से बढ़कर कोई रोग नहीं और दयालुता से बढ़कर कोई धर्म नहीं.”
ये शब्द सिर्फ एक नीति नहीं बल्कि जीवन का सार हैं, जो आज के समय में पहले से कहीं अधिक प्रासंगिक हो गए हैं.

Chanakya Niti:चाणक्य के विचार

“शांति से बढ़कर कोई तप नहीं
संतोष से बढ़कर कोई सुख नहीं
तृष्णा और चाहत से बढ़कर कोई रोग नहीं
और दयालुता से बढ़कर कोई धर्म नहीं”
-आचार्य चाणक्य

Chanakya Quotes on Peace | शांति से बढ़कर कोई तप नहीं

चाणक्य के अनुसार, संसार में सबसे कठिन तप वही है जिसमें व्यक्ति आंतरिक शांति बनाए रखे. बाहरी परिस्थितियां चाहे कैसी भी हों, अगर मन शांत है तो व्यक्ति हर चुनौती का सामना धैर्य से कर सकता है. शांति किसी पहाड़ की चोटी पर जाकर नहीं बल्कि अपने भीतर संतुलन बनाकर प्राप्त की जा सकती है. जो व्यक्ति हर परिस्थिति में मानसिक रूप से स्थिर रहता है, वही असली तपस्वी होता है.

Chankya Thoughts on Satisfaction | संतोष से बढ़कर कोई सुख नहीं

आज के भौतिकवादी युग में जहां हर कोई अधिक पाने की होड़ में है, वहां चाणक्य का यह कथन एक सच्ची सीख देता है कि संतोष ही असली सुख है. जब इंसान अपने पास मौजूद चीजों में खुशी ढूंढ लेता है, तब ही वह मानसिक रूप से समृद्ध हो सकता है. संतोष से जीवन में न केवल शांति आती है, बल्कि रिश्तों में भी मिठास बनी रहती है.

Quotes by Chanakya on Desires | तृष्णा और चाहत से बढ़कर कोई रोग नहीं

चाणक्य कहते हैं कि अनियंत्रित इच्छाएं मनुष्य के लिए सबसे बड़ा रोग हैं. ये इच्छाएं कभी खत्म नहीं होतीं और इंसान को अंदर से खोखला कर देती हैं. यह रोग ऐसा है जो दिखता नहीं, लेकिन मन और आत्मा को धीरे-धीरे नष्ट कर देता है. हर समय ज्यादा पाने की चाह, दूसरों से तुलना करना, और लालच- ये सभी तृष्णा के रूप हैं जो मानसिक अशांति और तनाव को जन्म देते हैं.

Chanakya Quotes on Kindness | दयालुता से बढ़कर कोई धर्म नहीं

चाणक्य की नीति में करुणा और दयालुता को सर्वोपरि धर्म बताया गया है. धर्म का असली रूप वही है जिसमें इंसान अपने व्यवहार से दूसरों के प्रति संवेदनशील रहे. चाहे किसी की मदद करना हो, या किसी के दुख में साथ देना- दयालुता मनुष्य को ईश्वर के समीप ले जाती है. बिना दया के किया गया कोई भी धर्मकर्म सिर्फ एक औपचारिकता बन जाता है.

आचार्य चाणक्य की यह नीति हमें बताती है कि जीवन की असली पूंजी बाहरी वैभव नहीं, बल्कि आंतरिक गुण हैं. शांति, संतोष, तृष्णा पर नियंत्रण और दयालुता- यही वे चार स्तंभ हैं जिन पर एक संतुलित, सफल और सुखी जीवन की नींव रखी जाती है.

अगर हम इन चार बातों को अपने जीवन में आत्मसात कर लें, तो न केवल हमारा व्यक्तिगत जीवन सुधरेगा, बल्कि समाज भी अधिक सकारात्मक और सहनशील बन पाएगा.

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Disclaimer: यह आर्टिकल सामान्य जानकारियों और मान्यताओं पर आधारित है. प्रभात खबर इसकी पुष्टि नहीं करता है.

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