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नीलगाय के आतंक से परेशान हैं गढ़वा के किसान, लाखों हेक्टेयर भूमि में प्रभावित हो गयी है खेती

गढ़वा जिले की 80 प्रतिशत आबादी कृषि पर निर्भर है. नीलगायों के द्वारा हर मौसम में खेती बर्बाद कर दिये जाने से किसान हताश और निराश हैं. मजबूरी में कई किसान खेती छोड़ने के लिए मजबूर हो गये हैं.

गढ़वा, पीयूष तिवारी : गढ़वा जिले में नीलगायों के आतंक और उत्पात से खेती करना मुश्किल हो गया है. यह समस्या लाइलाज बीमारी बन चुकी है. सैकड़ों की संख्या में नीलगाय जिले के हर क्षेत्र में विचरण करती रहती हैं. ये किसानों की गाढ़ी कमाई और मेहनत से लगायी गयी फसल को चंद मिनटों में रौंद डालती हैं या अपना ग्रास बना लेती हैं. जिले में पहले नीलगायों का आतंक सिर्फ सोन और कोयल नदी किनारे तक सीमित था. लेकिन अब नीलगायों का झुंड जिले के सभी क्षेत्रों में फैल चुका है. इससे लाखों हेक्टेयर भूमि में नीलगायों से खेती प्रभावित हो रही है. बताते चलें कि गढ़वा जिले की 80 प्रतिशत आबादी कृषि पर निर्भर है. नीलगायों के द्वारा हर मौसम में खेती बर्बाद कर दिये जाने से किसान हताश और निराश हैं. नीलगायों के आतंक व उत्पात से बचाव का कोई रास्ता नहीं दिखने के कारण कई किसान खेती छोड़ने के लिए मजबूर हो रहे हैं.

गढ़वा उत्तरी क्षेत्र में खेती बंद होने के कगार पर

नीलगायों के कारण गढ़वा जिले के उत्तरी क्षेत्र में रबी फसल की खेती पूरी तरह बंद होने के कगार पर पहुंच गयी है, जबकि खरीफ में धान के अलावा दूसरी फसल लगाना किसानों के लिए जुआ खेलने के समान हो गया है. गढ़वा जिला मुख्यालय से सटे बंडा और लहसुनिया जैसी पहाड़ी व इससे सटे गांवों व शहर के कुछ हिस्सों में सैकड़ों की संख्या में नीलगाय हैं. ये रात के अलावा दिन में भी फसलों को बर्बाद कर रही हैं. गढ़वा जिले के उत्तरी क्षेत्र के एक दर्जन प्रखंडों में नीलगायों का आतंक है. नीलगायों का झुंड न सिर्फ फसलों को चर जाता है, बल्कि उसे रौंदकर भी बर्बाद कर देता है. किसानों द्वारा फसलों को बचाने के लिए लगायी जानेवाली बाड़ भी नीलगायों को नहीं रोक पाती.

किसानों को नीलगायों के आतंक और उत्पात से बचाने में वन विभाग भी कुछ किसानों को मुआवजा देने के अलावा अन्य उपायों को लेकर निष्क्रिय है. गढ़वा जिले के उत्तरी क्षेत्र स्थित कांडी, बरडीहा, मझिआंव, विशुनपुरा, भवनाथपुर, केतार, खरौंधी, मेराल व गढ़वा प्रखंड में नीलगाय सबसे ज्यादा फसलों को नुकसान पहुंचा रहे हैं. इसके अलावा उत्तरी क्षेत्र के धुरकी, सगमा, डंडा व डंडई तथा दक्षिणी क्षेत्र चिनियां, रंका, रमकंडा, भंडरिया व बड़गड़ में नीलगायों का प्रभाव उपरोक्त प्रखंडों की तुलना में थोड़ा कम है. गौरतलब है कि जिले के दक्षिणी क्षेत्र में खेती युक्त जमीन की तुलना में वन क्षेत्र ज्यादा है. इसलिए वनों में भोजन मिल जाने से नीलगाय उत्तरी की तुलना में यहां के गांवों में कम आते हैं. नीलगायों की वजह से न सिर्फ फसलें बरबाद हो रही हैं, बल्कि इससे कृषि विभाग, वन विभाग एवं मनरेगा से चलनेवाला बागवानी एवं पौधारोपण कार्यक्रम भी प्रभावित हो रहे हैं.

गढ़वा जिले में कैसे आयी नीलगाय

गढ़वा जिले में नीलगायों का आगमन बहुत पुराना नहीं है. करीब दो दशक पहले जिले में नीलगाय कांडी प्रखंड के सोन व कोयल नदी से पार कर बिहार से पहुंची हैं. लेकिन इन दो दशकों में नीलगायों की संख्या हजारों में हो गयी है. बताया गया कि शुरू में यहां के किसानों ने नीलगायों की उपस्थिति को गंभीरता से नहीं लिया था. वे तब नीलगाय को कौतूहल भरी नजरों से देखते थे. बिहार-झारखंड को बांटनेवाली सोन नदी से सटे कांडी प्रखंड के लोग बताते हैं कि नीलगाय को वह पहले बिहार के औरंगाबाद जिले के नवीनगर प्रखंड में आने-जाने के क्रम में देखते थे. धीरे-धीरे इनका आगमन पलामू जिले के हुसैनाबाद, हैदरनगर व मोहम्मदगंज प्रखंडों में हुआ.

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में बना था

रात में फसलों को नुकसान पहुंचाने के बाद दिन में वह सोन व कोयल नदी के किनारे पेड़ के नीचे या झाड़ियों में छुप जाते थे. गरमी में जब सोन व कोयल नदी का जलस्तर काफी कम हो जाता, तब नीलगाय कांडी प्रखंड के गांवों में प्रवेश कर जाती थीं. लेकिन वर्तमान में कांडी प्रखंड के शत-प्रतिशत गावों में नीलगायों का स्थायी बसेरा हो गया है. प्रखंड में दिन में भी आसानी से नीलगायों को घूमते या फसल चरते हुए देखा जा सकता है. ग्रामीण बताते हैं कि वर्तमान में इनकी संख्या इतनी ज्यादा हो गयी है कि यदि इसका जल्द कोई स्थायी समाधान नहीं ढूंढ़ा गया, तो लोग खेती को पूरी तरह से छोड़ने पर विवश हो जायेंगे.

बिजली के तार की फेंसिंग का तरीका है महंगा

नीलगाय से गाय शब्द के जुड़ने के कारण आम तौर पर किसान या ग्रामीण इसे भगाने के लिए किसी जानलेवा हथियार का प्रयोग नहीं करते हैं, बल्कि पटाखे छोड़कर या शेार मचाकर ही भगाने का प्रयास करते हैं. लेकिन इसके अलावे भी कई उपाय हैं, जिससे नीलगाय को कुछ समय तक के लिए फसलों से दूर रखा जा सकता है. इसमें गोबर के पानी के साथ मिश्रण कर फसल के आसपास एक मीटर में चारों तरफ छिड़काव करने तथा फिनाइल की गोलियां या सलफास की गोलियों को कपड़ों में लपेट कर खेत की मेड़ के आसपास रखने से भी नीलगाय को रोका जा सकता है.

इसके अलावा बिजली के झटके वाला तार की फेंसिंग लगाकर भी नीलगायों को खेती चरने से रोका जा सकता है. यह तरीका थोड़ा महंगा है, लेकिन गढ़वा जिले में कृषि से जुड़ी बैठक व सेमिनार में किसानों की ओर से प्राय: इसे अनुदान पर वितरित करने की मांग की जाती रही है. लेकिन इस पर कभी ध्यान नहीं दिया गया. इस तार से करंट का हल्का झटका नीलगाय व अन्य जानवरों को लगता है और वह दूर भाग जाते हैं. उन्हें कोई नुकसान नहीं होता. स्थायी समाधान के तहत जहां नीलगाय अधिक संख्या में हैं, वहां उनको मारने की अनुमति का प्रावधान भी है. इस प्रक्रिया से बिहार में नीलगायों की संख्या कम की गयी है. पर यह प्रक्रिया इतनी जटिल है कि इसके लिए राजनीतिक स्तर से प्रयास करने की जरूरत पड़ेगी.

क्या कहते हैं किसान : दयनीय होती जा रही है किसानों की हालत

मेराल प्रखंड के अटौला गांव के प्रगतिशील किसान ऋषि तिवारी ने कहा कि नीलगायों के उत्पात के कारण किसानों की हालत दयनीय होती जा रही है. वह मंहगे बीज व खाद खरीद कर फसल लगाते हैं, पर नीलगायों द्वारा उसे नुकसान पहुंचा दिया जाता है. नीलगायों की वजह से गांव के बाहर के खेतों बटाई पर लेने के लिए कोई तैयार नहीं हो रहा है. किसान खेती करने से कन्नी काटने लगे हैं. वह स्वयं भी धान के अलावा रबी फसल नहीं लगा रहे हैं. इस संबंध में कांडी के रामलाला दूबे ने कहा कि फसल तैयार होते ही नीलगायों का झुंड फसलों को नुकसान पहुंचाने पहुंच जाता है. उन्होंने कहा कि पहले आबादी वाले क्षेत्रों में नीलगाय नहीं आते थे. लेकिन अब घर के समीप लगी सब्जी की फसल भी नीलगाय खा जा रही हैं. वह अब इतनी हठी हो गयी हैं कि मनुष्यों को देखकर भागने के बजाय उन्हें कुछ ही दूर पर खड़ी होकर निहारती रहती हैं.

नीलगाय से फसल क्षति के मामले वन विभाग तक पहुंचे, दिया गया मुआवजा

गढ़वा जिले के उत्तरी क्षेत्र में पिछले तीन सालों के अंदर नीलगाय से फसल क्षति एवं अन्य जंगली जानवरों के हमले से संबंधित कुल 204 मामले वन विभाग तक पहुंचे हैं. वित्तीय वर्ष 2020-21 में आये 50 मामलों में 8,15,800 रुपये का मुआवजा भुगतान किया गया है. वित्तीय वर्ष 2020-21 के ये सभी मामले नीलगाय से हुई फसल की क्षतिपूर्ति से जुड़े हैं. वहीं वर्ष 2021-22 में 60 मामले वन विभाग के पास पहुंचे. इनमें 5,85,500 लाख रुपये का भुगतान किया गया है. इस साल नीलगाय से हुई फसल क्षति के अलावा जंगली सुअर के हमले में एक व्यक्ति के घायल होने तथा हाथी द्वारा अनाज खाने के पांच तथा जंगली जानवरों द्वारा आठ बकरी व एक भैंस के मारने से संबंधित मामले भी आये थे. गत वित्तीय वर्ष 2022-23 में मुआवजा भुगतान से संबंधित कुल 94 मामले वन विभाग के पास आये.

इनमें कुल 11,64,400 रुपये का भुगतान किया गया. इनमें नीलगाय से हुई फसल क्षति के अलावा हाथी के हमले में एक को घायल करने, दो मकान ध्वस्त करने तथा सात मकान को क्षति पहुंचाने के मामले शामिल हैं. इसी तरह जिले के दक्षिणी क्षेत्र जहां सघन वन क्षेत्र भी मौजूद है, वहां 20 साल के आंकड़ों के अनुसार (साल 2002-03 से लेकर साल 2022-23 तक) जंगली जानवरों के हमले में 30 लोगों की मौत हुई है. इनमें 70 लाख रुपये मुआवजे का भुगतान किया गया है. जंगली जानवरों के हमले में इस दौरान कुल 59 लोग घायल हुए हैं. इन्हें 21,83,000 रुपये मुआवजे के रूप में भुगतान किये गये हैं. इस क्षेत्र में जंगली जानवर नीलगाय एवं हाथियों से हुई फसल क्षति के 1319 मामले वन विभाग तक पहुंचे. इनमें 52,57,140 रुपये का मुआवजा भुगतान किया गया.

जंगली जानवरों के हमले में पालतू पशुओं के मरने या घायल होने की स्थिति में भी वन विभाग की ओर से मुआवजा का भुगतान किया जाता है. पिछले 20 सालों में इस तरह के 81 मामलों में 9,73,500 रु का भुगतान किया गया है. इसमें मुख्य रूप से हाथियों के हमले में मकानों को हुई अधिक व आंशिक क्षति के 322 मामले में 44,65,000 रुपये का भुगतान भी वन विभाग की ओर से किया गया है. जबकि जंगली जानवरों द्वारा भंडारित अनाज बरबाद करने या खा जाने के 238 मामले में 11,66,114 रु दिये गये हैं. ये वैसे आंकड़े हैं, जो वन विभाग तक पहुंचे तथा मुआवजा दिया गया. लेकिन प्रभावितों की वास्तविक संख्या इससे ज्यादा हो सकती है.

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