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स्त्री मुद्दों पर नहीं, स्त्रियों की फिल्म है ”निल बटे सन्नाटा”

मिहिर पांड्या एक छोटी, प्यारी सी फिल्म, जो श्रमिक स्त्री के जीवन की कठिनाइयों को दिखाती तो है, लेकिन कहन के उस मुलायम कम्बल में लपेटकर जिससे वो कठोर यथार्थ देखनेवाले की आंखों में चुभे नहीं. कुछ लोगों ने इसकी तारीफ़ में साल की सबसे उज्ज्वल ‘फीलगुड’ फिल्म कहा, कई ने यथार्थ के मीठी चाशनी […]

मिहिर पांड्या

एक छोटी, प्यारी सी फिल्म, जो श्रमिक स्त्री के जीवन की कठिनाइयों को दिखाती तो है, लेकिन कहन के उस मुलायम कम्बल में लपेटकर जिससे वो कठोर यथार्थ देखनेवाले की आंखों में चुभे नहीं. कुछ लोगों ने इसकी तारीफ़ में साल की सबसे उज्ज्वल ‘फीलगुड’ फिल्म कहा, कई ने यथार्थ के मीठी चाशनी में डूबे इसी चित्रण को फ़िल्म की बुराई के बतौर चिह्नित किया.

बहुत ने उन महत्वाकांक्षाओं को पहचाना, जो घरेलू कामकाजी बाई चंदा के मन में अपनी बेटी को लेकर जन्मीं, और कुछ श्रम की महत्ता के पक्षधरों ने सवाल उठाया कि आखिर ‘बाई’ होने में दिक्कत क्या है? लेकिन संभवत: किसी देखनेवाले ने अश्विनी अय्यर तिवारी की ‘निल बटे सन्नाटा’ को ‘महिला मुद्दों पर बनी फिल्म’ कहकर भिन्न खांचे में फिट नहीं किया.

यह तब, जबकि ’निल बटे सन्नाटा’ का सार्वजनिक संसार दरअसल तीन स्त्रियों का संसार है. दृढ़निश्चयी घरेलू श्रमिक स्त्री चंदा सहाय की भूमिका में स्वरा भास्कर, उसकी अधेड़वय सभ्रान्त मालकिन दीदी की भूमिका में रत्ना पाठक शाह, और उसकी बेपरवाह किशोरवय बेटी अपेक्षा की भूमिका में रिया शुक्ला.

तीन अलग पीढ़ियों और भिन्न सामाजिक दायरों से आनेवाली इन स्त्रियों के बीच घूमती यह कहानी है, फिर भी ‘निल बटे सन्नाटा’ इस बात को लेकर ज़रा भी सायास नहीं दिखती कि इसे ‘महिला मुद्दे’ पर कुछ सार्थक कह जाना है.

बीते दो-तीन साल में बहुत सचेत तरीके से ‘नायिकाअों की कहानियां’ सुनाने की कोशिश में रत मुख्यधारा का हिन्दी सिनेमा ‘निल बटे सन्नाटा’ के साथ शायद उस पड़ाव पर आ पहुंचा है, जहां वह स्त्री चरित्रों को गढ़ते हुए उनकी अन्य पहचानें उपेक्षित ना करे. ‘निल बटे सन्नाटा’ स्त्री मुद्दों पर बनी फिल्म नहीं, स्त्रियों की फिल्म है. और नि:संदेह, यह एक कदम आगे की और है.

अगर आपको अंतर समझना है तो देखें, इस प्रगाढ़ स्त्री उपस्थिति वाली फिल्म में एकमात्र प्रमुख पुरुष किरदार, विद्यालय प्रधानाचार्य की भूमिका में पंकज त्रिपाठी को. इस कठिन भूमिका में, जिसके थोड़ा दायें झुकने पर क्रूर आैर थोड़ा बायें झुकने पर कैरीकेचर हो जाने का खतरा था, स्री निर्देशक की नज़र और अपने नायाब अभिनय से वे कैसी अद्भुत संवेदनशीलता भर देते हैं.

पर 2016 में ‘निल बटे सन्नाटा’ का होना भर खबर नहीं है, इसकी मुख्यधारा में स्वीकृति खबर है. इसे मुनाफ़ा कमानेवाली व्यावसायिक सफ़लता मिलना खबर है. मैंने स्वरा भास्कर से अक्टूबर में एक संवाद में पूछा था कि क्या वे हमारे वर्तमान मुख्यधारा सिनेमा में कोई बदलाव देखती हैं? और उन्होंने जवाब में कहा था, “हाँ हमारा सिनेमा बदल रहा है, क्योंकि अब सलमान ख़ान की फिल्म को भी अच्छी कहानी की ज़रूरत पड़ने लगी है.” इस हंगामाखेज वक्तव्य की रौशनी में देखें तो क्या ‘निल बटे सन्नाटा’ से निकले कुछ धागे हिन्दी सिनेमा की इस मुख्यधारा के केन्द्रक तक भी पहुंचते हैं?

यह सच्चाई है कि पिछले कुछ सालों में ‘कहानी’, ’क्वीन’, ‘एनएच 10’, ‘पीकू’, ‘मर्दानी’, ‘मारग्रीटा विथ ए स्ट्रा’, ‘इंग्लिश विंग्लिश’, ‘हाइवे’, ‘तनु वेड्स मनु रिटर्न्स’ जैसी फिल्मों ने, ख़ासकर इनकी व्यावसायिक सफ़लता ने हिन्दी सिनेमा की मुख्यधारा की जड़ता को हिलाया है. चंद पुरुष नायकों की सत्ता पर खड़ा बॉलीवुड अपनी चाल बदलने को मज़बूर हो रहा है.

इस साल मुख्यधारा के ज़िन्दा प्रतीक शाहरुख ख़ान ‘डियर ज़िन्दगी’ कर रहे हैं, आमिर ‘दंगल’ लेकर आए हैं. इनमें सलमान की ‘सुल्तान’ जोड़ लें तो आपको ‘दूसरी परम्परा’ से आती स्त्री आवाजों की ध्वनि आैर धमक दोनों सुनाई देगी. ख़ान त्रयी का 2016 में यह नया अवतार यह समझाने को काफ़ी है कि बॉलीवुड की यथास्थितिवादी मुख्यधारा इस धमक के ‘दलन’ और ‘उपेक्षा’ से अब ‘समाहार’ की ओर मुड़ गई है. स्त्री की उपस्थिति दर्ज कर ली गई है. नए समय में अब लड़ाई होगी ‘अनुकूलन’ से बचने की.

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