Bihar Election: पटना. बिहार की चुनावी राजनीति में इन दिनों ”हेट स्पीच” और व्यक्तिपरक नारे बाजी/ बयानों में असंसदीय / अभद्र शब्दों की जुगाली बढ़ती जा रहीं हैं. आपत्तिजनक बयानबाजी की सियासी बीमारी से कमोबेश कोई दल अछृूता नहीं है. यही वजह है कि आपत्तिजनक शब्दों के शिकार हर दल के नेता हुए हैं. किसी दल ने किसी को नहीं बख्शा नहीं है. इस बार नया ये है कि अब अभद्र शब्दों की शिकार प्रधानमंत्री की दिवंगत मां हुई है. फिलहाल नकारात्मक राजनीति के इस सियासी शोर में विकास की बात अनसुनी रह जाने का खतरा बढ़ गया है.राजनीति में नारों और खास भाषणों की बात कतई नहीं हैं. बात विधानसभा चुनावों की है.
पहले चुनाव में ही नारों का दिखा असर
पहला बिहार विधानसभा चुनाव संसदीय आम चुनाव के साथ ही 1952 में हो रहा था. आजादी की नयी-नयी पौ फूटी थी. तब नारे नारे भावनात्मक और नीतियों पर आधारित थे. जिसमें नैतिक मूल्यों का छौंक-बघार लगी हुई थी. इस चुनाव में पूरे देश की भांति कांग्रेस ने बिहार में भी नारा दिया कि – ”खरो रुपयो चांदी को, राज महात्मा गांधी को.” तब इसका पलटवार वामपंथियों ने बड़े सलीके से किया. नारा दिया था कि -”देश की जनता भूखी है, यह आजादी झूठी है.” उसी दौर में इंकलाब जिंदाबाद जैसे नारे का चुनावी वर्जन भी आ चुका था. शुरुआती दौर में ”नेहरू राज की एक पहचान और नंगा-भूखा हिन्दुस्तान! ” ”मांग रहा है हिन्दुस्तान, रोटी कपड़ा और मकान!” जैसे नारे सामने आ गये थे. कमोबेश 1962 के विधानसभा चुनाव तक कुछ इसी तरह के नारे उछाले जाते रहे.
1967 के विधानसभा चुनाव से कुछ बदला ट्रेंड
वर्ष 1967 के विधानसभा चुनाव से कुछ ट्रेंड बदल गया. चुनावी जानकारों का मानना है कि इस चुनाव में पहली बार किसी नेता के लिए संभवत: पहली बार चोर शब्द का इस्तेमाल हुआ. उनके विरोधियों ने नारा दिया कि – गली गली में शोर है, मुख्यमंत्री चोर हैं. इसके बाद चाेर शब्द का उपयोग करीब-करीब आम सा हो गया. इस शब्द की चुनावी यात्रा ” चारा चोर”, ”चौकीदार चोर” होते हुए अब ”वोट चोर” तक पहुंच चुकी है.
कुछ सकारात्मक नारे भी दिखे
21 वीं सदी की राजनीति में कुछ सकारात्मक नारे भी आये. पिछले चुनावों में जदयू के कई नारे भी खासे लोकप्रिय रहे हैं. उदाहरण के लिए ” बिहार में का बा, नीतीशे कुमार बा”, ””क्यूं करें विचार-ठीके तो है नीतीश कुमार.”” सच्चा है, अच्छा है! चलो, नीतीश के साथ चलें.” ”नीक बिहार-ठीक बिहार”, सुशासन का प्रतीक बिहार.” खास बात यह रही कि यह सभी नारे मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की छवि के इर्दगिर्द गढ़े गये. जनप्रिय नेता के रूप में वे स्वीकार भी किये गये.पिछले चुनावों में भाजपा के ये ये नारे भी खूब चले कि -”मोदी है तो मुमकिन है”. ”अब की बार, फिर मोदी सरकार”. ”अच्छे दिन आने वाले हैं”. ”सबका साथ, सबका विकास.” और ”हर-हर मोदी, घर-घर मोदी.” जैसे कई नारे सामने आये. जिन्होंने मतदाता का ध्यान खींचा. राजद की ओर से कई सकारात्मक नारे गढ़े गये हैं. जो तेजस्वी के इर्द-गिर्द गढ़े गये हैं. उदाहरण के लिए ”बिहार भर रहा है हुंकार! नकलची सरकार के बचे हैं दिन दो चार! जल्द बनने वाली है जन प्रिय तेजस्वी_सरकार” और ” अब बिहार को 20 साल पुरानी खटारा सरकार नहीं,चाहिए चुस्त दुरुस्त तत्पर तेज रफ़्तार #तेजस्वी_सरकार !!”” आदि. इसी तरह कांग्रेस ने भी कुछ नारे उछाले हैं.
जब अचानक बोले गये बोल बने बड़े सियासी नारे
वर्ष 1997-98 की जब लालू प्रसाद जब एक आरोप में जेल जा रहे थे. तब किसी उनसे कहा कि लालू प्रसाद के अब राजनीति में आपके दिन तो गिनती के रह गए हैं. इस पर लालू प्रसाद ने पलटवार किया था कि जब तक समोसे में आलू रहेगा तब तक बिहार में लालू रहेगा. बाद में उनके कार्यकर्ताओं ने इसे पूरा नारा ही बना दिया. यह नारा खूब लोकप्रिय हुआ.
बात 30 साल पुरानी है
बात करीब 30 साल पुरानी है. पटना के गांधी मैदान में आयोजित रैली में लालू प्रसाद संबोधित कर रहे थे. तभी दिवंगत नेता राम विलास पासवान हैलीकॉप्टर से आये. तपाक से लालू प्रसाद ने कहा कि ऊपर आसमान-नीचे पासवान. बाद में कार्यकर्ताओं ने इसे नारे की शक्ल दे दी. ा- 1991 में लालू प्रसाद ने बिहार में ताड़ के पेड़ से निकलने वाले…वाले तरल पदार्थ ”ताड़ी” पर से टैक्स हटा लिया.तब विपक्ष की ओर से नारा आया कि- ”एक रुपये में तीन गिलास, लालू, वीपी, रामविलास”. हालांकि पासवान समर्थकों ने इस नारे का इस्तेमाल कुछ इस तरह से किया- ”एक रुपया में तीन गिलास, जीतेगा भाई राम विलास.” साथ ही कहा गया कि गूंजे धरती आसमान,राम विलास पासवान.

