नये दशक में विज्ञान और तकनीक का आयाम व्यापक होगा. इससे न केवल जटिल समस्याओं का समाधान निकलने, बल्कि धरती पर जीवन को बेहतर बनाने की उम्मीदें की जा सकती हैं. बीते दस वर्षों में जिन तकनीकों के बारे में हमने सुना, यह वक्त उनके इस्तेमाल और नयी तकनीक में बदलाव का है. आइए, डालते हैं एक नजर उन तकनीकी नवाचारों पर, जो हमारे जीवन को बदलने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं.
वैकल्पिक मांस बाजार
संयुक्त राष्ट्र के खाद्य व कृषि संगठन के मुताबिक दूध, मांस और खाद प्राप्त करने के लिए जानवरों का इस्तेमाल वैश्विक स्तर पर कुल ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के 15 प्रतिशत के लिए जिम्मेदार है. अत्यधिक मांस सेवन के स्वास्थ्य पर पड़ते दुष्प्रभावों और जानवरों के साथ अमानवीय व्यवहार करने के कारण इस दशक में लोग पौधों से प्राप्त प्रोटीन से बने वैकल्पिक मांस का रुख करेंगे. इतना ही नहीं, इस दशक में पौधों से प्राप्त मांस के अलावा प्रयोगशाला में जानवरों के उत्तकों से विकसित किये गये मांस भी बिक्री के लिए बाजार में उपलब्ध हो सकेंगे.
मेम्फिस मीट्स और मोसा मीट समेत तकरीबन 40 कंपनियां इस दिशा में काम कर रही हैं. बार्कले की मानें तो 2029 तक वैकल्पिक मांस का बाजार कुल मांस बाजार का दसवां हिस्सा हो जायेगा. मांस के अलावा, इस दशक में सी-फूड के विकल्प भी उपलब्ध होने की उम्मीद है, क्योंकि बहुत ज्यादा सी-फूड के उपभोग से कई समुद्री प्रजातियों पर विलुप्ति का खतरा मंडराने लगा है.
पैकेजिंग का विकल्प
चारों ओर बिखरा प्लास्टिक कचरा, विशेषकर सिंगल यूज प्लास्टिक पर्यावरण के लिए बेहद घातक साबित हो रहा है. इसका एक बड़ा हिस्सा पैकेजिंग में प्रयोग होनेवाला प्लास्टिक है.
वैज्ञानिक, कंपनियां और सरकार पर्यावरण के अनुकूल पैकेजिंग विकल्पों की तलाश में जुटे हैं. लंदन की एक पैकेजिंग कंपनी नोप्ला ने पानी, जूस और केचप के लिए समुद्री शैवाल से निर्मित एडिबल पॉड और पाउच विकसित किया है. वहीं, कई कंपनियों ने समुद्री शैवाल से सैंडविच रैप, स्ट्रॉ और गन्ना से चम्मच और कप निर्मित किया है.
इजरायल की एक कंपनी टीपा ने पौधाें और जीवाश्म आधारित पॉलिमर से भोजन और फैशन के लिए पूरी तरह से लचीली पैकेजिंग विकसित की है, जो कुछ ही महीनों में विघटित हो जाते हैं. मार्केट रिसर्च फर्म आइएमएआरसी ग्रुप की मानें तो प्लास्टिक पैकेजिंग के इन विकल्पों का बाजार 2024 तक बढ़ कर 240 बिलियन डॉलर के हो जाने की संभावना है.
कार्बन कैप्चर टेक्निक
आवश्यकता से अधिक कार्बन उत्सर्जन धरती के तापमान को बढ़ाने के लिए सीधे तौर पर जिम्मेदार है. वर्ल्ड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट के अनुसार, प्रति एकड़ को भी अगर वनाच्छादित कर दिया जाये तो भी प्रतिवर्ष तीन टन कार्बन डाइऑक्साड ही अवशोिषत हो पायेगा. इसलिए हवा से सीधे कार्बन को ग्रहण करने की तकनीक पर काम चल रहा है.
कनाडा, स्विटजरलैंड और अमेरिकी की कुछ कंपनियां ऐसी मशीन तैयार कर रही हैं जो प्रतिवर्ष 10 लाख टन कार्बन अवशोषित कर सकती है, जिसे बाद में धरती में संग्रहित कर दिया जायेगा या तेल निकालने में इस्तेमाल किया जा सकेगा. हालांकि यह तकनीक वनीकरण से दो से पांच गुना महंगी है.
हवा से सीधे कार्बन को ग्रहण कर लेने की यह तकनीक अभी शुरुआती चरण में है, लेकिन आगामी कुछ वर्षों में जैसे ही इसकी लागत में गिरावट आयेगी, इसे व्यापक स्वीकृति भी मिलेगी. इस तकनीक के अतिरिक्त, कार्बन कैप्चर और स्टोरेज के साथ जैव-ऊर्जा जैसी अन्य प्रौद्योगिकियां भी हैं, जो कार्बन को ग्रहण कर धरती में संग्रहित करने में सक्षम हैं. इतना ही नहीं, वैज्ञानिक कार्बन को ग्रहण कर उसी समय उसकी अम्लता को कम कर उसे धरती की बजाय समुद्र में संग्रहित करने की तकनीक भी तलाश रहे हैं.
युद्धक्षेत्र में रोबोट की तैनाती
भविष्य के युद्धों में तकनीक ही हथियार का रूप लेगी. बुद्धिमान रोबोट इसका नेतृत्व कर सकते हैं. युद्धक्षेत्र में रोबोट की तैनाती के कई फायदे होंगे.
सैनिकों की शहादत में कमी आयेगी, माइनफील्ड को भी साफ किया जा सकेगा और अनएक्सप्लोडेड बम को दूर व अधिक तेजी से निष्क्रिय किया जा सकेगा. इन रोबोटों की मदद से सीमा गश्ती जैसे थकाऊ और दीर्घकालिक निगरानी जैसे कार्य आसान हो जायेंगे. इसलिए दुनियाभर की सरकारें रोबोट योद्धा तैयार करने के लिए निवेश कर रही हैं.
आज के रोबोट जहां बड़े पैमाने पर रिमोट से नियंत्रित होते हैं, वहीं आनेवाले समय में ये कृत्रिम बुद्धिमत्ता और डीप लर्निंग से लैस होंगे. ये तकनीकें भविष्य के रोबोट को परिस्थितियों का आकलन करने और बिना किसी मानवीय हस्तक्षेप के निर्णय लेने में मदद करेगी. जीपीएस, नेविगेशन सेंसर, टक्कर का पता लगाने वाले सॉफ्टवेयर जैसी कई प्रणालियों से लैस ये रोबोट युद्धभूमि में मुकाबला करने में सक्षम हाेने के साथ ही सैनिकों की मदद भी करेंगे.
यूनिवर्सल ट्रांसलेटर
स्टार ट्रेक के साइंस फिक्शन में कुछ लोगों को यूनिवर्सल ट्रांसलेटर की मदद से एलियंस के साथ बातें करते दिखाया गया है. बहुत जल्द यह सब हकीकत में बदलने वाला है. हालांकि मशीन के सहारे भाषा का अनुवाद कोई नयी बात नहीं है.
प्रारंभ में, इस प्रणाली ने नियम-आधारित अनुवाद का उपयोग किया, जहां सब कुछ भाषा विज्ञान पर आधारित था, लेकिन इसकी अपनी सीमायें थीं. फिर सांख्यिकीय मशीन अनुवाद आया. यहां नियम अतीत के आंकड़ों पर आधारित थे जिनके संदर्भ भी तथ्यपूर्ण थे. गूगल ट्रांसलेट और बिंग ट्रांसलेटर इसके उदाहरण हैं. लेकिन इसमें समय ज्यादा लगता है और अनुवाद भी अच्छे नहीं होते हैं.
लेकिन अब डीप न्यूरल मशीन ट्रांसलेशन के जरिये हम धीरे-धीरे लर्निंग सिस्टम की तरफ बढ़ रहे हैं, जो उच्च स्तर की सटीकता के साथ अनुवाद करने में सक्षम है. यह तकनीक स्वचालित रूप से स्वर, संदर्भ, सांस्कृतिक बारीकियों आदि का ध्यान रखती है और रीयल टाइम में हमारे द्वारा कही गयी बातों का दूसरी भाषा में अनुवाद करती है. जैसे गूगल का ट्रांसलेटोट्रॉन. मान लीजिए इस तकनीक के माध्यम से आप अंग्रेजी में बोलते हैं तो रूसी भाषा के व्यक्ति को उसका अनुवाद रूसी में आपकी ही आवाज में सुनाई देगा.
एआइ आधारित पर्सनलाइज्ड लर्निंग
अभी तक विद्यार्थी अपनी समस्याओं के हल के लिए एल्गोरिदम का उपयोग करते थे, लेकिन अब इसका उपयोग शिक्षा क्षेत्र की दिक्कतों को दूर करने के लिए किया जा रहा है. ग्रेडिंग और परीक्षा की तैयारी जैसे बारंबार किये जाने वाले कार्य से लेकर शिक्षण और सीखने से जुड़े कार्य तक में बदलाव के लिए आर्टिफिशियल इंटेलेजिंस तकनीक का उपयोग किया जा रहा है.
इस तकनीक के जरिये अब व्यक्तिगत शिक्षण मॉडल (पर्सनलाइज्ड लर्निंग मॉडल) को प्रोत्साहित किया जा रहा है ताकि प्रत्येक विद्यार्थी की ताकत, जरूरत, कौशल और अभिरुचियों को आधार बनाकर उनके लिए विशिष्ट शैक्षणिक योजना तैयार की जा सके. यह तकनीक विद्यार्थियों को पाठ्यक्रम की संरचना में बदलाव की सुविधा भी देती है. असल में इस तकनीक का उद्देश्य शिक्षक या स्कूल के निर्देशों की बजाय विद्यार्थियों की शिक्षा की जरूरतों को प्राथमिकता देना है, ताकि बच्चे बेहतर प्रदर्शन कर सकें. ग्रैंड व्यू रिसर्च की मानें तो 2025 तक पर्सनलाइज्ड लर्निंग का बाजार 423 बिलियन डॉलर तक पहुंच जाने की संभावना है.
थ्रीडी प्रिंटिंग
थ्रीडी प्रिंटिंग तकनीक नयी नहीं है और शुरुआती प्रिंटिंग अभी भी उपयोग में लायी जा रही है. इस तकनीक से आज भी बड़े पैमाने पर कार पैनल, इलेक्ट्रिक स्विच, एयरक्रॉफ्ट में इस्तेमाल होनेवाले प्लास्टिक कंपोनेंट, दिल का प्रारूप आदि तैयार किये जा रहे हैं. लेकिन अब यह तकनीक पहले के मुकाबले कहीं ज्यादा विकसित हो चुकी है.
आज अनुसंधानकर्ता बायो-इंक का परीक्षण करने में जुटे हैं ताकि इंक के जरिये महत्वूपर्ण अंग, हड्डियां व कार्टिलेज का थ्रीडी प्रिंट तैयार किया जा सके. गार्टनर का अनुमान है कि इस दशक में थ्रीडी प्रिंटिंग बाजार वैश्विक स्तर पर दस गुना बढ़ जायेगा. क्योंकि परंपरागत प्रिंटर फ्लैट सर्फेस पर प्रिंट करता है, जबकि थ्रीडी प्रिंटर गहराई में जाकर प्रिंट करता है. इस तकनीक के जरिये मरीज के कोशिका का नमूना लिया जाता है और फिर उसे बायो-इंक में विकसित किया जाता है, ताकि जैविक भाग को प्रिंट किया जा सके. यह अनुसंधान मानव अंग प्रत्यारोपण की दिशा में क्रांति ला सकता है. हालांकि अभी यह अनुसंधान प्रयोग के दौर से गुजर रहा है.
हवा की नमी से िमलेगा पानी
पानी की कमी और स्वच्छ पानी की अनुपलब्धता विश्व की बड़ी समस्याओं में एक है. संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के अनुसार, पानी की गंभीर कमी के कारण 2030 तक 70 करोड़ लोगों को विस्थापित होना पड़ सकता है. जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक 78.5 करोड़ लोगों को पीने का पानी उपलब्ध नहीं है, वहीं प्रतिवर्ष पांच लाख लोग दूषित पानी पीने के कारण हैजे से मर जाते हैं. इस समस्या से निबटने के लिए वैश्विक स्तर पर कई तकनीकें विकसित की जा रही हैं.
अमेरिकी कंपनी ने एेसा सौर पैनल तैयार किया है, जो हवा से नमी को पकड़ता है और उसे घनीभूत यानी कंडेंस करता है ताकि पानी का उत्पादन हाे सके. इसके बाद पानी को स्टरलाइज और मिनरलाइज्ड करके पीने के योग्य बनाया जाता है. हालांकि इस तकनीक से पानी का उत्पादन महंगा है जिसे अविकसित और विकासशील देश वहन नहीं कर सकते हैं. हालांकि गरीब देशाें में बड़े पैमाने पर इस तकनीक के उपयोग से इसकी कीमतों में पहले के मुकाबले महत्वपूर्ण कमी आयी है. इसके अतिरिक्त ओम्नी प्रोसेसर नामक एक और तकनीक तैयार की गयी है जो मानव कचरे से वाष्पित होने वाली नमी से बिजली का उत्पादन करने के अलावा उसे पीने के पानी में भी बदल देता है. इस तकनीक का उद्देश्य विकासशील देशों की पानी की समस्या काे दूर करना है.
क्वांटम कंप्यूटिंग
क्लासिकल कंप्यूटर के माध्यम से आज मौसम का पूर्वानुमान लगाया जा सकता है. लेकिन क्वांटम कंप्यूटिंग के जरिये आनेवाले समय में इस अनुमान को और बेहतर किया जा सकता है. माना जा रहा है कि क्वांटम कंप्यूटिंग परंपरागत बाइनरी कंप्यूटर की तुलना में कहीं तेज गति से गणना करने में सक्षम है.
इस तकनीक के जरिये मौसम का सटीक पूर्वानुमान, दवाओं की खोज, वित्तीय मॉडलिंग समेत जटिल माने जाने वाले क्षेत्रों की तमाम समस्याओं को सुलझाया जा सकता है. क्लासिकल सिस्टम के साथ काम करनेवाले क्वांटम कंप्यूटर के पास दुनिया की जटिल समस्याओं को हल करने की क्षमता है.
आइबीएम रिसर्च के क्वांटम साइंटिस्ट स्टीफन फ्लिप का कहना है कि क्लासिकल कंप्यूटिंग आधुनिक समाज की रीढ़ है. सेटेलाइट, टीवी से लेकर इंटरनेट व डिजिटल कॉमर्स इसी की देन है. इसी ने मंगल पर रोबोट और हमारी पॉकेट में स्मार्टफोन पहुंचाया है. लेकिन यह अभी भी कई जटिल समस्याओं को हल नहीं कर पाया है. ऐसे में प्रगति की रफ्तार जारी रखने के लिए क्लासिकल एप्रोच के साथ क्वांटम कंप्यूटिंग की जरूरत है, जिसके अपने नियम हैं.