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स्वयं को प्रेम न करने के कारण ही दूसरी चीजों में होता है आकर्षण

ओशो सिद्धार्थ औलिया मीराबाई जयंती 1498-1547 मीरा कहती हैं- राम नाम रस पीजै मनुआ, राम नाम रस पीजै। तज कुसंग सतसंग बैठ नित हरि चरचा सुण लीजै।। राम नाम का अमृत दिन-रात बरस तो रहा है, लेकिन लोगों को उसकी प्रतीति नहीं है और जब तक प्रतीति नहीं होती, तब तक प्रेम भी संभव नहीं […]

ओशो सिद्धार्थ औलिया
मीराबाई जयंती
1498-1547
मीरा कहती हैं-
राम नाम रस पीजै मनुआ, राम नाम रस पीजै।
तज कुसंग सतसंग बैठ नित हरि चरचा सुण लीजै।।
राम नाम का अमृत दिन-रात बरस तो रहा है, लेकिन लोगों को उसकी प्रतीति नहीं है और जब तक प्रतीति नहीं होती, तब तक प्रेम भी संभव नहीं होता. इसका एक ही उपाय है- सत्संग. जो सत्संग नहीं करेगा, कुसंग उसकी नियति होगी.
सत्संग यानी क्या? सत्संग वह है जहां बैठने से कामनाएं क्षीण हों. कुसंग वह है, जहां कामनाओं का जाल घना होता जाये. भीतर नयी-नयी चाह पैदा करने वाला आपको भले ही मित्र प्रतीत हो, लेकिन वह कुसंगी है.
इसका उपाय क्या है?
मीरा कहती है-
काम क्रोध मद मोह लोभ कूं, चित्त से बहाय दीजै।
काम क्या है? काम है- कामना यानी दूसरे से अपेक्षा. मैं जो चाहता हूं, वह इच्छा कोई और पूरी कर दे. ध्यान रहे, इच्छा कामना नहीं है; अपेक्षा कामना है.
आप अगर कार खरीदने की इच्छा करते हैं, तो यह काम नहीं है. लेकिन अगर आप अपेक्षा करते हैं कि दहेज में या ससुराल से कार मिल जाये, तो यह काम है. और यही कामना जब पूरी नहीं होती, इसके मार्ग में कोई बाधा आती है, तो उसी कारण भीतर जो आग पैदा होती है, उसी का नाम क्रोध है.
कृष्ण कहते हैं- ‘कामात्क्रोधोभिजायते’
अर्थात, कामना से ही क्रोध का जन्म होता है. फिर, मद या अहंकार क्या है? मैं कुछ भी हूं, लोग मेरा आदर करें, लोग मुझे सम्मानित करें. इसका नाम अहंकार है.
जो आपको मिला हुआ है- धन, मकान, जीवन, रिश्ते-नाते, उसको तुम पकड़ कर रखना चाहते हो कि कहीं छूट न जाये, यह मोह है. हम स्वयं को प्रेम नहीं करते, इसलिए मोह पैदा होता है. स्वयं को प्रेम न करने के कारण ही दूसरी चीजों में आकर्षण होता है. इसलिए ओशो ने स्वयं को प्रेम करने को ध्यान और दूसरे पर ध्यान देने को प्रेम कहा.
लोभ क्या है? लोभ है इस बात की प्रतीति कि जितना है आपके पास, वह काफी नहीं है. आपको और-और चाहिए. इसी का नाम लोभ है. मीरा कहती है कि पहले काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, द्वेष, मद को समझो और फिर चेतना को इन पांच प्रदूषक तत्वों से मुक्त करो. इसकी शुरुआत ध्यान से ही हो सकती है. तब राम-नाम यानी ओंकार का रस उसमें डालो. इससे चेतना निर्णायक रूप से साफ हो जाती है.
यही कबीर भी कहते हैं-
तेरा जन एकाध है कोई।
काम क्रोध अरु लोभ विवर्जित, हरिपद चीन्है सोई।
तुलसी कहते हैं- वैसे तो छह प्रदूषक तत्व हैं, लेकिन- ‘तात तीन अति प्रबल खल, काम, क्रोध, अरु लोभ। मुनि विज्ञान धाम मन करत निमिष महँ छोभ।’
काम, क्रोध, लोभ और अधिक प्रबल होते हैं. लोभ, मोह थोड़ा वक्त लेता है. लेकिन काम, क्रोध और लोभ क्षण भर में, चेतना को प्रदूषित कर देते हैं. दुर्वासा ऋषि की कथा आप जानते हैं. हिमालय में वर्षों तपस्या की, लेकिन एक दिन ‘भिक्षाम् देहि’ की उनकी पुकार अपने प्रेमी दुष्यंत की याद में खोई शकुंतला न सुन सकी, तो उसे श्राप दे दिया कि जिसे तू याद कर रही है, वह तुझे भूल जाये. बरसों की तपस्या क्षण भर में नष्ट हो गयी.
इसलिए अपनी चेतना के पात्र को जरा समझ से, ध्यान से साफ करो. नीरज की एक प्यारी कविता है- ‘अब जाने डोली कहां रुके, अब जाने शाम कहां पर हो.‘‘ कुछ ठिकाना नहीं जिंदगी का. किसी रंगरेज को, किसी गुरु को ढूंढ़ लो, जो राम नाम के रंग में तुम्हारी भी चदरिया रंग डाले. उसमें भीगो, उसमें डूबो.
(लेखक ओशोधारा नानक धाम, मुरथल के संस्थापक हैं.)
गोविंद नाम की पूंजी ही परमधन
मीरा संदेश देती हैं कि संसार का कोई भी धन हो, संसार की कोई भी पूंजी हो, खर्च हो जाती है. लेकिन गोविंद की पूंजी ही ऐसी है, राम रतन धन ऐसा है कि कितना भी खर्चो, तब भी खर्च नहीं होता. और जब परमधन मिल जाता है, तब कोई चोर उसे चुराकर नहीं ले जा सकता. वह धन बढ़ता ही जाता है.
खरचै नहिं कोई चोर न लेवै
दिन-दिन बढ़त सवायो।
मीरा का इशारा सुमिरन की पूंजी की ओर है. साधक जितना अधिक सुमिरन में जीना शुरू करता है, उसकी पूंजी उतनी बढ़ती जाती है. मीरा कहती हैं कि यह पूंजी केवल इस जीवन के लिए नहीं, बल्कि यह भवसागर को भी पार कराती है, बशर्ते हम सत्य की नाव पर हों-
सत की नाव खेवटिया सतगुरु
भवसागर तरि आयो।
‘मीरा’ के प्रभु गिरिधर नागर
हरख-हरख जस गायो ॥

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