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किताब, जो औरंगजेब को संगीतप्रेमी बताती है

पुस्तक मुस्लिम शासकों के रागरंग और फनकार शहंशाह औरंगजेब लेखक गजेंद्र नारायण सिंह प्रकाशन वाणी प्रकाशन मूल्य 595 रुपये संगीत के मूर्धन्य अध्येता स्व. गजेंद्र नारायण सिंह ने अपने अंतिम वक्त में यह किताब लिखी- ‘मुस्लिम शासकों के रागरंग और फनकार शहंशाह औरंगजेब आलमगीर’. यह देख कुछ कौतूहल हुआ. हालांकि कहीं टुकड़ों में पढ़ा-लिखा था […]

पुस्तक मुस्लिम शासकों के रागरंग और फनकार शहंशाह

औरंगजेब

लेखक गजेंद्र नारायण सिंह

प्रकाशन वाणी प्रकाशन

मूल्य 595 रुपये

संगीत के मूर्धन्य अध्येता स्व. गजेंद्र नारायण सिंह ने अपने अंतिम वक्त में यह किताब लिखी- ‘मुस्लिम शासकों के रागरंग और फनकार शहंशाह औरंगजेब आलमगीर’. यह देख कुछ कौतूहल हुआ. हालांकि कहीं टुकड़ों में पढ़ा-लिखा था कि औरंगजेब भी जब आलमगीर हुआ करते तो वीणा बजाते. लेकिन इसी औरंगजेब ने मौसिकी का जनाजा निकलने पर खुशी भी जतायी.

इस बात का जिक्र तो उसके समकक्ष इतालवी निकालाई मनुच्ची की पुस्तक में मिलता है, और इससे इंकार गजेंद्र बाबू ने भी नहीं किया. हां! उन्होंने इसे मात्र एक गप्पबाजी कह कर किनारा कर दिया. तो आखिर सत्य क्या रहा होगा? अगर दस्तावेजों और साक्ष्यों से गुजरें तो हम कहां पहुंचेंगे? और दस्तावेज मिलेंगे कहां? कमाल की बात है कि ऐसे ग्रंथों और हस्तलिखित दस्तावेजों का जखीरा पटना के खुदाबख्श ओरियंटल लाइब्रेरी में ही मिलता है. और यहीं घंटों बैठ गजेंद्र बाबू ने इस किताब की नींव डाली.

उस मामले में यह ऐसा शोधग्रंथ है जिसे पूरा करने में कम से कम चार दशक लगे होंगे. यह किताब पढ़ कर भी नजर आता है कि कई बार बातें दुहराई गयी है, संस्मरण पुराने हैं. जैसे पन्ने एक साथ नहीं, अलग-अलग लिखे गये और बाद में संपादित किये गये. शोध-ग्रंथों में यह आम है, लेकिन यह एक रोचक किताब है, नीरस नहीं.

इस किताब को लाने में गजेंद्र बाबू को कैथरीना ब्राउन (कैम्ब्रिज़ विश्वविद्यालय) की अपेक्षा कुछ विलंब जरूर हुआ, लेकिन इनकी पुस्तक में कुछ पक्के तथ्य हैं. दोनों ने औरंगजेब को फनकार सिद्ध करने के लिए अलग-अलग तर्क दिये, लेकिन दोनों की मुख्य शोध-स्थली पटना ही रही. हालांकि उनसे भी कहीं पहले आचार्य कैलाशचंद्र बृहस्पति के लेख ‘औरंगजेब के संगीतप्रेम’ से यह बात निकली थी. तब तो औरंगज़ेब की एक छवि मुगल शासकों में सबसे विवादित, सांप्रदायिक और आततायी व्यक्ति की भी है, कि यह बात पचती नहीं. संगीत-प्रेमियों में जो मिसाल जहांगीर, अकबर, मुहम्मदशाह रंगीला, बहादुरशाह जफर की मिलती है वह औरंगज़ेब की नहीं मिलती.

गजेंद्र नारायण सिंह ने न सिर्फ संगीत-प्रेमी बल्कि औरंगज़ेब को मुग़लों में इकलौता संगीतकार और बंदिशकार सिद्ध किया है. जफर बंदिशकार थे, लेकिन संगीतकार नहीं. औरंगजेब की लिखी ध्रुपद बंदिशों का एक दुर्लभ संग्रह इस पुस्तक में है. इसमें भी ताज्जुब यह कि ये बंदिशें ब्रजभाषा और अवधी में लिखी हैं, फारसी में नहीं.

हालांकि इस किताब में भटकाव भी है और पक्षपात भी. कई बार संगीत से अलग भटक कर इतिहास में औरंगजेब को नायक की कोशिश है. स्व. गजेंद्र नारायण सिंह इतिहास अध्येता भी थे, और दिनकर के ‘संस्कृति के चार अध्याय’ पर आपत्ति जताने का उनको अधिकार है.

लेकिन इसे संगीत से घाल-मेल शायद न करना उचित होता. इस प्रयास में बात भटक कर हिंदू-मुस्लिम विवादों और मंदिर-मस्जिद के वर्तमान द्वंद्वों की ओर चली गयी है. वहां तर्क भी बिखर गए हैं, और कुछ अंशों में बेतुके भी. लेकिन यह बात आदर-योग्य तो है ही कि जीवन के अंतिम समय तक गजेंद्र बाबू शिथिल नहीं पड़े, लिखते रहे. और उनका ध्येय यह भी है कि आज जब इस्लाम मौसिक़ी से भटक गया है, शास्त्रीय संगीत में भूमिका दिन-ब-दिन घटती जा रही है, ऐसे में उन्हें मार्ग पर लाया जाये. औरंगजेब को एक धर्मनिष्ठ मुसलमान माना जाता रहा, जो युद्ध-स्थल पर भी नमाज़ पढ़ने बैठ जाता था, टोपी सिल कर कमाता था. जब ऐसा व्यक्ति मौसिक़ी के खिलाफ न था, और बंदिशें लिखता था, वीणा बजाता था, तो भला संगीत से परहेज किसे है और क्यों है?

वाणी प्रकाशन से प्रकाशित इस पुस्तक में मात्र औरंगजेब ही नहीं, मुगलों के संगीत पर एक बारीक नजर है. मुनीश्वर दयाल और गजेंद्र बाबू के अवसान के बाद बिहार ही नहीं, भारत में संगीत-अध्येता घटते जा रहे हैं.

यह गजेंद्र बाबू के ‘स्वान-सॉन्ग’ के रूप में भी पढ़ी जानी चाहिए कि एक वयोवृद्ध लेखक आखिर कैसे अपने अंतिम समय में पुस्तकालयों और संग्रहालयों से तथ्य बटोरने निकलते होंगे. इतनी ज्ञान-पिपासा और संगीत-प्रेम अब किस मानुष में बची है? जिस पटना में कभी संगीत की महफिलें हर दुर्गा-पूजा में रात भर जमती थी और बिस्मिल्लाह खान-वीजी जोग की राग दुर्गा पर जुगलबंदी होती थी, वहां से मौसिकी का जनाजा निकल चुका. अब तो औरंगज़ेब भी नहीं. तो इस दुर्गति का जिम्मेदार किसे माना जाये?

प्रवीण झा

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