कृष्ण की भूमिका मुख्यतः दो भागों में विभाजित है. एक, ब्रज के कृष्ण और दूसरे राजा-कृष्ण. दोनों के कर्तव्य की परिधि भिन्न हैं, इसलिए भूमिकाएं भी भिन्न हैं. वृंदावन के कृष्ण के साथ मनुष्य जितने सहज भाव से परिचित हो पाये थे, राजा कृष्ण के साथ, पार्थसारथि कृष्ण के साथ उतने घनिष्ठ भाव से परिचित नहीं हो पाये. ब्रज के कृष्ण मधुर हैं एवं उस मधुरता में आध्यात्मिकता का मिश्रण है,
परंतु राजा कृष्ण की भूमिका में है कठोरता. मगर उस कठोरता के साथ भी आध्यात्मिकता का सम्मिश्रण है. दोनों भूमिकाओं में ही श्रीकृष्ण भारतवासी व विश्ववासियों के सम्मुख कई दृष्टांत प्रस्तुत कर गये हैं एवं उन दृष्टांतों का महत्व आज भी समाप्त नहीं हुआ. यद्यपि कृष्ण के जीवन का प्रथम अंश ही ब्रज के कृष्ण का है, परंतु पार्थसारथि कृष्ण के संबंध में ही विवेचना करना चाहता हूं.
महाभारत के संबंध में मैंने रांची में दीर्घ समय तक प्रवचन दिया था, उसमें ‘महाभारत’ ही मूल विषय था, और आज मैं जिस विवेचना की अवतारणा कर रहा हूं, उसमें कृष्ण ही है मूल विषय. प्रसंगवश महाभारत का विवरण आ जायेगा, क्योंकि कृष्ण के जीवन का संपूर्ण तो महाभारत नहीं है, पर कृष्ण को छोड़कर महाभारत की अवस्थिति भी नहीं.
प्रथमतः देखें राजा कृष्ण को. यह जो राजा कृष्ण थे, ये वृंदावन का त्याग कर गोकुल को छोड़कर मथुरा में गये थे. ब्रज के कृष्ण में, गोकुल-वृंदावन के कृष्ण में साहस, दृढ़ता सभी थी. परंतु था मधुरता का प्राबल्य. मधुर स्वर में बांसुरी बजा कर मनुष्य को अपने निकट ले आना, मनुष्य के साथ प्यार और स्नेह का संपर्क स्थापित करना, जब आवश्यकता पड़ी तो अपने प्रिय मनुष्यों के स्वार्थ की रक्षा,
उनके अस्तित्व की रक्षा के लिए संग्राम में शामिल होना उनका कार्य था. वे हमारे ही थे, पर वे हम सबसे बहुत बड़े वीर थे और हमारे साथ मिलजुल कर हम में से ही एक हो गये. उन्होंने जब देखा कि उस परिवेश में रह कर मानव समाज का संपूर्ण कल्याण संभव नहीं हो सकता, समस्त प्रकार से यह समाज निपीड़ित तथा पर्यूदस्त है, उन्हें उस भूमिका का त्याग कर राजा की भूमिका ग्रहण करनी पड़ी. उस भूमिका का सूत्रपात्र कैसे हुआ? वह हुआ कंस का निधन करके.
कंस’ शब्द का अर्थ क्या है? ‘कंस’ शब्द का अर्थ है, जिसका अस्तित्व भयावह है, जिसका अस्तित्व जीव के स्वार्थ रक्षार्थ, जीव के कल्याणार्थ तथा जीव की सर्वात्मक अग्रगति में बाधा स्वरूप है. और ‘कृष्ण’ शब्द का अर्थ है, जो मनुष्य को चरितार्थता के पथ पर ले जाये.
पार्थसारथि कृष्ण ने अपने जीवन में ही बता दिया था कि सच्चा व्यक्ति कैसे बना जा सकता है. कभी भी पीछे हटना नहीं है. और, जहां रणकौशल के कारण दो कदम पीछे हटना पड़ा, वहां बौद्धिक कौशल में संभवतः सौ कदम आगे बढ़ने के समान हुआ. वास्तव जगत में दो कदम पीछे हटे रणनीति की वजह से. कैसे? जरासंध बार-बार मथुरा पर आक्रमण कर रहे थे, इस कारण जरासंध के हाथ से मथुरा बचाने के लिए, मथुरा से राजधानी हटायी गयी, क्योंकि द्वारका जाने के लिए मरुभूमि को पार करना पड़ता.
जरासंध तो वह कर नहीं पायेगा, इस कारण दूर हटना पड़ा. वास्तव में यह पीछे हटना मानसिक जगत में एक कदम आगे बढ़ने के बराबर है. अर्थात् जरासंध के समान एक समाज-विरोधी तत्व को काबू करने के लिए नये पथ की उद्भावना की गयी. इसे व्यावहारिक और व्यक्तिगत जीवन में पार्थसारथि ने दिखा दिया कि अच्छा आदमी कैसे बना जा सकता है, किस प्रकार पापशक्ति, समाजविरोधी शक्ति के विरूद्ध संग्राम में अवतीर्ण होना चाहिए. इस प्रकार उन्होंने मनुष्य को आत्मिक दिशा देकर अपनी ओर खींचा. प्रस्तुति : दिव्यचेतनानंद अवधूत
‘पार्थ’ शब्द कहां से आया ?
‘पार्थ’ शब्द ‘पार्थ’ या ‘पृथु’ शब्द से आया है. पृथा एक विशेष राज्य का नाम है. उस राज्य की कन्या थीं कुंती. इस कारण कुंती का नाम भी पृथा था, अपत्यार्थ में ‘ष्ण’ प्रत्यय लगाने से ‘पार्थ’ शब्द बना अर्थात पार्थ का अर्थ है कौन्तेय, कुंतीपुत्र. इस अनुसार अर्जुन का नाम भी ‘पार्थ’ पड़ा.
प्राचीन भारत में आर्या के आने के पूर्व यहां अस्ट्रिक और द्राविड़ जनगोष्ठी में कन्यागत कुलव्यवस्था थी तथा कन्यागत दयाधिकार की व्यवस्था भी थी अर्थात मनुष्य प्रागैतिहासिक युग में अपनी मां के नाम से परिचय देता था. और आगे बढ़ने पर मां अथवा मातामही अथवा प्रमातामही का परिचय दे कर वंश परंपरा का विवरण दिया जाता. लोग माता से संपत्ति प्राप्त करते थे.
श्री श्री आनंदमूर्ति
आध्यात्मिक गुरु
(आनंद मार्ग के प्रवर्तक)
श्री श्री आनंदमूर्ति
आध्यात्मिक गुरु
(आनंद मार्ग के प्रवर्तक)
कुरुक्षेत्र के मैदान में जब अर्जुन ने युद्ध करने से मना कर दिया था, तो श्रीकृष्ण ने कहा था- हे भारत! जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने रूप को रचता हूं अर्थात साकार रूप से लोगों के सम्मुख प्रकट होता हूं. जीवन रूपी संग्राम में मनुष्य का आचरण कैसा होना चाहिए, इस पर 1969 में आनंदमूर्ति जी ने रांची में दिये प्रवचन में महाभारत के दृष्टांतों से बताया था.