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काव्य के आलोक में नागपुरी कवि

धनेंद्र प्रवाही नागपुरी कवि और उनका काव्य’ ऐसे समय में प्रकाश में आया, जब झारखंडी भाषा साहित्य जगत में इस तरह के शोधग्रंथ की विशेष आवश्यकता थी. जब से झारखंड की जनजातीय एवं क्षेत्रीय भाषाओं के विकास एवं पठन-पाठन की दिशा में अकादमिक स्तर पर काम होने शुरू हुए. दरअसल तभी से हर झारखंडी भाषा […]

धनेंद्र प्रवाही
नागपुरी कवि और उनका काव्य’ ऐसे समय में प्रकाश में आया, जब झारखंडी भाषा साहित्य जगत में इस तरह के शोधग्रंथ की विशेष आवश्यकता थी. जब से झारखंड की जनजातीय एवं क्षेत्रीय भाषाओं के विकास एवं पठन-पाठन की दिशा में अकादमिक स्तर पर काम होने शुरू हुए.
दरअसल तभी से हर झारखंडी भाषा को इस प्रवृति और प्र‍कृति की पुस्तकों की जरूरत महसूस होती रही है. अगर कहें कि इस ग्रंथ के रूप में नागपुरी भाषा साहित्य को डॉ बी पी केशरी ने एक अनुकरणीय कृति से श्रीसंपन्न कर दिया है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी.
नि:संदेह, इस पुस्तक का संपादन और प्रकाशन एक श्रम समय एवं व्यय साध्य कार्य था, पर मेरे विचार से इसे सबसे बढ़कर एक धैर्य साध्य आयोजन कहना उचित लगता है.
यह सर्वविदित है कि डॉ केशरी हिंदी, नागपुरी और अंग्रेजी भाषाओं में विविध विधाओं में साहित्य रचना तथा समाजशास्त्र एवं इतिहास लेखन के अलावे शैक्षिक, राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में भी सदा सक्रिय और प्राय: नेतृत्वकारी भूमिका निभाते रहे. लेखक के वैविध्यपूर्ण कार्य में 61 वर्षों तक रचना प्रक्रियाधीन रहते हुए ‘नागपुरी कवि और काव्य’ नाम का 702 पृष्ठों का यथानाम तथा गुण यह दीर्घकाय ग्रंथ अपने वर्तमान आकर्षक रूपाकार को प्राप्त कर सामने आया.
इस पुस्तक का इक्कासी वर्षीय लेखक युवा समान अपने सिर पर मोरपंख खोंसकर झारखंडी अखड़ा की नृत्यमंडली में अखंड अाह्लाद से भरा झूमता हुआ दिखता है. मोरपंख की मनोहर प्रतीकात्मक छवियों वाले कवरपृष्ठ को देखकर तो यह उत्प्रेक्क्षा ही उठती है.
नागपुरी समेत अन्य क्षेत्रीय एवं जनजातीय भाषाओं के संबंध में अनेक आवश्यक और उपादेय जानकारियां भी इसमें समाविष्ट हैं. झारखंडी विविधता में एकता के प्रति लेखक की सतत आग्रहशीलता की झलक भी इसमें सहज की द्रष्टव्य है.
रचनाकार का कथन है कि मुगलशासकों के हस्तक्षेप से पहले यहां सामंती रीति-नीति और आडंबर नहीं था. आदिवासी भाषाओं के साथ-साथ नागपुरी भाषा-साहित्य संस्कृति इनकी नागवंशियों के छत्र-छाया में सहज गति से पल्लवित-पुष्पित हो रही थी. नागपुरी लोकगीतों और शिष्टगीतों में इसके चित्र और बिंब बखूबी मौजूद हैं. ‘नागपुरी कवि और उनका काव्य’ इसका प्रतिबिंब है.
आगे कहा गया है, अकूत प्राकृतिक संसाधनों से संपन्न इस क्षेत्र में भारत की लगभग सभी सांस्कृतिक धारा में समादृत रही है. नागपुरी काव्य के ताने-बाने में हिंदू-मुस्लिम, सरना, ईसाई मतावलंबियों का सहज सह अस्तित्व और सुंदर सामंजस्य है.
आदिवासियों का प्र‍कृति जीवन और उनमुक्त उल्लास इसमें प्राण संचार करते हैं तो आर्यों की मर्यादा और संयम इसे अभिनव सौष्ठव से सज्जित करते हैं. उपर्युक्त पंक्तियां आदिवासी और सदानों के पारस्परिक सौमनस्य, सौहार्द और सहजीविता की सुदीर्घ परंपरा को रेखांकित करती है.
एकताबद्ध झारखंड के लिए अडिग प्रतिबद्धता डॉ केशरी की पहचान है जो इस प्रतिवेदन के माध्यम से आलोच्य ग्रंथ के प्रणयन की प्रेरणा के मूल में स्पष्टत: विद्यमान है.
ग्रंथ का कवि परिचय और काव्य संकलन वाला दूसरा भाग चार सोपानों में बंटा है. 1600 से 2000 ई तक के दशक के लिए एक सोपान. कवियों की संख्या अधिक होने के कारण तृतीय और चतुर्थ सोपान पूर्वार्द्ध और उत्तरार्द्ध दो-दो खंड़ों में विभक्त हैं. संग्रह में शामिल 248 कवियों के नामाधीन शीर्षकों के पहले भाग में कवि परिचय और दूसरे में उनका प्रतिनिधि काव्य संकलित है.
लेखक ने कवि के ऐतिहासिक, सामाजिक एवं व्यक्तिगत जीवन का परिचय देते हुए सचना की साहित्यगत प्रवृति प्रकृति तथा भाषा एवं शैलीगत विशिष्टताओं को भी चिह्नित कर दिया है. ये परिचय चयनित रचनाओं में प्रतिबिंबित होकर परस्पर संकलित एवं परिपुष्ट होते हैं और जिज्ञासु सहृदयों को आश्वस्ति प्रदान करते चलते हैं. ग्रंथ का पाठ तो एक रोमांचक यात्रा वृतांक का भी रसास्वादन कर देता है.
100 वर्षों में विस्तीर्ण अनेक ज्ञात-अज्ञात स्थलों में निर्भीक और सोत्साह विचरण करता अन्वेषी नयी-नयी जानकारियों से लैस होता बार-बार यूरेका जैसे रोमांच से चमत्कृत होकर 248 पड़ावों से अपनी मूल्यवान उपलब्धियों की जीवंत रिपोर्टिंग करता है. अविरल प्रवाह वाली केशरी सुलभ सरल सरस सतत और सुखवर्द्धक और अतीव रोचक.
इस प्रसंग में हम यहां ब्रजभाषा के प्राचीन एवं नवीन प्रतिनिधि कवियों और उनकी कविताओं के वैज्ञानिक रीति से संपादित संग्रह ‘स्वर्ण मंजूषा’ का उल्लेख करना चाहेंगे जिसमें कुंभनदास( 15वीं शताब्दी) से लेकर जयशंकर प्रसाद (19वीं शताब्दी) तक 56 कवियों का परिचय और उनका काव्य संकलित है. स्वर्ण मंजूषा के संपादक कहते हैं ‘हमने अंग्रेजों के प्रामाणिक काव्य संग्रह-गोल्डेन ट्रेजरी को आदर्श माना है.
मेरे विचार से नागपुरी कवि और उनका काव्य इन दोनों ही संग्रहों के समकक्ष ठहरता है. निश्चय ही अपनी इस मान्यता की सर्वस्वीकार्यता का मेरा कतई कोई आग्रह नहीं है. पर हां, यह कहना न्याय नहीं होगा कि प्रस्तुत पुस्तक में संकलित काव्य से संबंधित आवश्यक टिप्पणियां सुलभ होतीं तो आम पाठक को काव्य-आस्वादन में आनंदवृद्धि का भी महत्वपूर्ण लाभ अवश्य मिलता.
अस्तु, पुस्तक का अवलोकन के अवसान के क्रम में एक नजर इसके परिशिष्ट भाग पर यह अंश मात्र औपचारिक नहीं होकर बड़ा ही उपयोगी और मूल्यवान बन गया है.
कवि परिचय और काव्य भाग का अवगाहन करते हुए अध्येता में और अनुसंधान की जो उत्कट अभिलाषा उत्पन्न होती है. उसकी प्रवृति के लिए इस भाग में शीर्षकों और नामों का भंडार ही खुला है. पाठकों की बढ़ी हुई जिज्ञासा को कार्योंन्मुख होने के लिए इस खंड में शोध-विषय बनने की संभावना से युक्त अनेक विषय भरे पड़े हैं.
अंत में ग्रंथकार की कतिपय युक्तियां, प्रवृति के आधार पर कवियों के मूल्यांकन का वृहद कार्य अभी शेष हैं. अथवा नागपुरी साहित्य का प्रकृतिमूलक इतिहास लिखा जाना बाकी है.
और 16वीं सदी से पूर्व की रचनाओं, रचनाकारों का अनुसंधान अभी हुआ ही नहीं है.आदि के आलोक में कहा जा सकता है कि चिंतन, मनन, शोध, अनुसंधान के ऐसे संभावनापूर्ण परिदृश्य में ‘नागपुरी कवि और उसका काव्य’ आगामी शोध यात्रा के पाठकों का प्रारंभिक आधार ही नहीं सक्षम मार्गदर्शक भी बनेगा.

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