पुष्पेश पंत
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बारिश में चटोरी जीभ
पुष्पेश पंत जब कभी हम बारिश की बहारों का मजा लेने की बात करते हैं, तो सबसे पहले हमें गरमागरम पकौड़े, समोसे या भजिया आदि ही याद आते हैं. हम देश के विभिन्न प्रदेशों में तैयार किये जानेवाले तले व्यंजनों को जाने क्यों इतनी आसानी से भुला देते हैं. महाराष्ट्र का साबूदाना वड़ा हो या […]
जब कभी हम बारिश की बहारों का मजा लेने की बात करते हैं, तो सबसे पहले हमें गरमागरम पकौड़े, समोसे या भजिया आदि ही याद आते हैं. हम देश के विभिन्न प्रदेशों में तैयार किये जानेवाले तले व्यंजनों को जाने क्यों इतनी आसानी से भुला देते हैं. महाराष्ट्र का साबूदाना वड़ा हो या बटाटा वड़ा, यह किसी पकौड़े से कम जायकेदार नहीं. मैसूर का बोंडा हो या तामिलनाडु का दाल/रस वड़ा अथवा आंध्र प्रदेश का चपटा-चटपटा तिरुपति वड़ा, इन सभी की जुगलबंदी भाप उगलती चाय के साथ बहुत अच्छी सधती है.
बेसन के पकौड़ों से बखूबी मुकाबला लेती हैं मंगोड़ियां- जो बड़ी की तरह ही तरी वाली सब्जी में इस्तेमाल की जानेवाली नहीं होतीं, वरन धुली हुई मूंगदाल को पीस कर बनायी नन्हीं-नन्हीं ताजा तली हुई होती हैं. मंगोड़ियां को तलने के पहले हाथ से फेंट कर इतना हल्का बना दिया जाता है कि मुंह में डालते ही हवा में बिला जाती हैं.
यूं तो बंगाल में तले-भूने खाने परोसे जाने का चलन है, परंतु बारिश में जलपान के लिए मोचा (केले के फूल) का कटलेट, आलू और अंडे का ‘चौप’ फिरंगियों के राज वाले दौर से लोकप्रिय रहे हैं. अमृतसरी मछली और विभाजन के बाद की दिल्ली की खोज मुर्ग तथा अंडे के ‘पकौड़े’ भी इस सूची में शामिल किये जाने जरूरी हैं.
राजस्थान में कजरारे बरखा के बादल महलों की दीवारों पर बने रंगीन चित्रों में ही बिजली चमकते-गरजते दिखलायी देते हैं, पर जब कहीं भी झमाझम बरसता मेंह बाहर आना-जाना असंभव कर दे, तब रेगिस्तान की संतान मिर्ची बड़े का आनंद आप ले सकते हैं.
लद्दाख में तथा तिब्बत के पठार से जुड़े पूर्वोत्तरी प्रदेश के ऊपरी इलाके में भी बारिश नाममात्र को ही होती है. आजकल आम हो चुका ‘मोमो’ यहीं की संतान है. भाप से पकाये मोमो सारे देश में फैल चुके हैं, पर हाल के दिनों में राजधानी दिल्ली में इनका तला और तंदूरी अवतार प्रकट हुआ है, जो नम मौसम के बहुत माफिक है.
स्वदेशी ही नहीं विदेशी तली चीजों से आप एकरसता से मुक्ति पा सकते हैं. भूमध्य सागर तटवर्ती देशों में ‘फलाफल’ काबुली चने को उबालने के बाद पीसकर तले जाते हैं. इनकी शक्ल कोफ्तों जैसी होती है और इनको आप अपनी पसंद के अनुसार तीखा बना सकते हैं. जापानी टेंपुरा में ताजी सब्जियों को तथा झींगे आदि को बेसन के नहीं, बल्कि चावल के आटे के लगभग आवरण में पेश किया जाता है. ‘टेंपुरा’ को तेज आंच में कुछ क्षणों के लिए ही तला जाता है.
इस गलतफहमी से छुटकारा पाने की जरूरत है कि बारिश के मौसम में चटोरी जीभ सिर्फ नमकीन व्यंजनों के लिए ही लार चुआती है. कड़ाही से निकलकर सीधे आपकी तश्तरी तक पहुंचनेवाली कुरकुरी या नरम जलेबी बस पलभर के लिए ही चाशनी में डुबकी लगाती है. गुलाब जामुन की गुनगुनी गरमी उमस की ऊब को दूर भगाने में देर नहीं लगाती. मालपुए गरमागरम ज्यादा तृप्तिदायक लगते हैं और यही बात दाल के हलुए के बारे में भी कही जा सकती है.
गुलगुले और पुए आजकल कम चखने को मिलते हैं, पर उत्तराखंड में बड़ी जलेबी के आकार वाले ‘सिंगल’ का पुनर्जन्म हो रहा है. सौंफ और इलायची से संपन्न इस व्यंजन में बहुत हल्की मिठास होती है. इसे आप खट्टी चटनी लगाकर भी खा सकते हैं. ओडिशा का ‘छेनापूड़’ घर पर बनाना कठिन है, परंतु खाजा या ‘जीबीगोजा’ पर तो हाथ आजमाया ही जा सकता है.
‘अनरसे’ जाने कब और कहां लुप्त हो गये, लेकिन केरल के तले पके मीठे केले ने उत्तर में पैर पसारना क्यों नहीं शुरू किया? हमारी मानें, तो महाराष्ट्र की चहेती घी में तर-बतर पूरन पोली या तमिल-तेलुगु-कन्नड़ भाषी क्षेत्रों का ‘आदिरसम’ भी बारिश के लिए ही बने हैं. कद्दूकश किये हुए नारियल तथा गुड़ के मिश्रण वाले पीठे और तले मोदक भारत के पूर्वी तथा पश्चिमी सागर तटवर्ती प्रदेश के व्यंजन हैं, जहां मॉनसून का प्रभाव सबसे अधिक रहता है.
रोचक तथ्य
बंगाल में तले-भूने खाने परोसे जाने का चलन है, परंतु बारिश में जलपान के लिए मोचा (केले के फूल) का कटलेट, आलू और अंडे का ‘चौप’ फिरंगियों के राज वाले दौर से लोकप्रिय रहे हैं.
भाप से पकाये मोमो सारे देश में फैल चुके हैं, पर हाल के दिनों में राजधानी दिल्ली में इनका तला और तंदूरी अवतार प्रकट हुआ है, जो नम मौसम के बहुत माफिक है.
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