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नयी किताब : आत्मकथात्मक इतिहास
कोई अपनी आत्माकथा तभी लिखता होगा, जब उसे लगता होगा कि इस दुनिया को हर वह चीज बतानी चाहिए, जो उसके साथ घटित हुई. अच्छी या बुरी या शायद ज्यादातर बुरी घटनाएं. बीते हुए कल की तमाम अच्छी-बुरी घटनाओं का पुंज ही तो इतिहास है. इसलिए यह संभव है कि आत्मकथा लिखते-लिखते कोई लेखक अपने […]
कोई अपनी आत्माकथा तभी लिखता होगा, जब उसे लगता होगा कि इस दुनिया को हर वह चीज बतानी चाहिए, जो उसके साथ घटित हुई. अच्छी या बुरी या शायद ज्यादातर बुरी घटनाएं. बीते हुए कल की तमाम अच्छी-बुरी घटनाओं का पुंज ही तो इतिहास है.
इसलिए यह संभव है कि आत्मकथा लिखते-लिखते कोई लेखक अपने दौर का सटीक इतिहास ही लिख डाले, जिसमें सामाजिक और राजनीतिक उथल-पुथल के साथ उसके अपने भोगे का कड़वा सच हो. वह लेखक अगर पत्रकार हो, तो फिर उसकी कलम से निकले शब्द इतिहास का दस्तावेज बन सकते हैं.
अवध में जन्मे सईद नकवी भी ऐसे ही मशहूर पत्रकार रहे हैं, जिनका इरादा तो अपनी आत्मकथा लिखना था, लेकिन ‘बीइंग द अदर’ किताब के रूप में उन्होंने अवध क्षेत्र में हिंदू-मुस्लिम साझी संस्कृति की विलुप्त होती विरासत में भारतीय मुसलमानों के ‘वतन में पराया’ होने का एहसास लिख डाला. फारोस मीडिया एंड पब्लिशिंग से आयी किताब ‘वतन में पराया’ नकवी की अंग्रेजी किताब ‘बीइंग दि अदर’ का हिंदी अनुवाद है, जिसे कमल सिंह ने किया है.
इस किताब को पढ़ते हुए ऐसा लगा कि नकवी ने दुनिया को महज एक पत्रकार के नजरिये से नहीं देखा है और न ही उस देश का मुसलमान होने के नजरिये से देखा है कि जिस देश के एक समुदाय को सांप्रदायिक राजनीति ने बंटवारे के करीब दशक भर तक के समय की मोहलत दी थी कि वह उसके धर्म आधारित देश को अपना विकल्प बना सकता था, बल्कि इस नजरिये से देखा है कि किस तरह आजादी के बाद से ही राजनीतिक और धार्मिक नेताओं ने सौहार्द को तोड़ कर मुसलमानों को पराया बनाने की कोशिश करते रहे हैं.
इसकी परिणति बाबरी विध्वंस में हुई, जिसका नतीजा आज भी हिंदू-मुसलमान दोनों भुगत रहे हैं. नकवी के लिए तो यह और भी दुखद है, क्योंकि उनकी परवरिश अवध में हुई थी, जिसे साझी संस्कृति की धरती माना जाता रहा है. नकवी ने धर्मनिरपेक्षता को संकीर्ण राजनीति का ऐसा कोमल हथियार बनते देखा, जिससे मुसलमानों को अपंग किया जा सकता है.
सईद नकवी ने अपनी मिट्टी की कड़वी सच्चाई को गहराई से महसूस किया है. हालांकि, भारत के एक खास जगह का आत्मकथात्मक कालखंड होते हुए भी यह किताब एक स्तर पर भारत के मुसलमानों के किसी विस्तृत इतिहास का दावा नहीं करती, पर यह जरूर बताती है कि अपने ही देश में मुसलमानों के पराया होने का एहसास क्या है. इस किताब को पढ़ने के बाद पाठक जरूर यह महसूस करेंगे कि धार्मिक उन्माद और सांप्रदायिकता के चलते हमारे प्यारे देश ने कितना कुछ खो दिया है.
शफक महजबीन
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