जिस तरह इराक़ हिंसा की आग में जल रहा है और पश्चिमी देशों और ईरान के बीच परमाणु कार्यक्रम के मुद्दे पर चर्चा की तारीख़ 20 जुलाई क़रीब आ रही है वैसे-वैसे हालात अमरीका और ईरान को एक-दूसरे के क़रीब धकेलते दिख रहे हैं.
दोनों में से कोई भी देश न ही पिछले कुछ सालों में परमाणु मुद्दे को लेकर रहे अस्थिरता के दौर में लौटना चाहता है और न ही इराक़ के पश्चिमी हिस्से और यूरोप के एकदम नीचे सुन्नी चरमपंथी संगठन इस्लामिक स्टेट इन इराक़ एंड द शाम यानी आईएसआईएस को एक इस्लामी ख़िलाफ़त स्थापित करने देना चाहता है. लेकिन क्या ये दो कट्टर प्रतिद्वंद्वियों के ‘महान मेलमिलाप’ के लिए काफ़ी है.
यह भी सच है कि अमरीका इससे पहले भी ईरान के साथ मिलकर काम कर चुका है.
इराक़ में 2010 में हुए चुनावों के बाद अमरीका और ईरान दोनों ने ही इराक़ी प्रधानमंत्री नूरी अल मलिकी को संसद में कम सीटें जीतने के बावजूद सत्ता में रहने में मदद की थी.
इससे पहले, साल 2001 में अफ़ग़ानिस्तान पर हमले के दौरान भी ईरान ने अमरीका की मदद की थी. ईरान ने अमरीका को ख़ुफ़िया जानकारी दी थीं और अफ़ग़ान सेना के पुनर्निर्माण के लिए अमरीका के नेतृत्व में काम करने के तैयार भी हो गया था.
लेकिन आज के हालात में उस सहयोग को दोहराना मुश्किल है.
साझा रणनीति नहीं
सरलता से कहा जाए तो साझा दुश्मन आईएसआईएस से निपटने का मतलब साझा रणनीति पर काम करना नहीं हो सकता.
इराक़ में तनाव के कारणों को लेकर दोनों देशों की समझ अलग-अलग है. अमरीका इराक़ी प्रधानमंत्री नूरी अल मलिकी की नस्लीय भेदभाव की सत्तावादी नीतियों को तनाव का कारण मानता है. अमरीका को लग रहा है कि इसी वजह से इराक़ के सुन्नी अल्पसंख्यक आईएसआईएस के साथ हो गए हैं.
अमरीकी क़ब्ज़े के दौरान ही इराक़ में अल क़ायदा को पीछे हटाने के लिए सुन्नी क़बीलों को अमरीका ने हथियार और पैसे दिए थे.
अब उन सुन्नी क़बीलों को इराक़ की सरकार पर भरोसा नहीं है. अमरीका को नूरी अल मलिकी की देश के सभी वर्गों को एकजुट करने की क्षमता पर संदेह है. यही वजह है कि अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा इराक़ को सैन्य सहयोग देने के इच्छुक नहीं दिखते.
ईरान को भी नूरी अल मलिकी की क्षमताओं पर संदेह है लेकिन वो अपने एक अहम सहयोगी को खोना नहीं चाहता है. इराक़ ने पड़ोसी देश सीरिया में बशर अल असद की सेनाओं को मदद पहुँचाने के लिए ईरान को अपने हवाई क्षेत्र के इस्तेमाल की इजाज़त दी है.
शिया लड़ाके
ईरान को यह भी डर है कि सऊदी अरब जैसे मध्य पूर्व के देश इराक़ के हालात का इस्तेमाल क्षेत्र में ईरान के प्रभाव को कम करने के लिए कर रहे हैं. इसलिए ही ईरान आईएसआईएस के ख़तरे को रोकना तो चाहता है लेकिन बग़दाद में अपने प्रभाव को कम किए बिना.
ईरान ने अपने सैन्य विशेषज्ञ बग़दाद भेजे हैं लेकिन उसका बड़ा योगदान सुन्नी जेहादियों से मुक़ाबला करने के लिए असैब अहल अल हक़ जैसे शिया लड़ाकों को संगठित करने में है.
ईरान ने इराक़ी शिया लड़ाकों से रिश्ते स्थापित करने में कई दशक लगाए हैं और कुछ को तो सीरिया में लड़ने भी भेजा है. इराक़ के प्रधानमंत्री का जेहादियों से लड़ने के लिए स्वयंसेवकों का सेना में शामिल होने का आह्वान करना भी उसी धारणा को मजबूत करता है कि युद्ध नस्लीय आधार पर लड़ा जाएगा. ज़ाहिर है इराक़ में सेना के लिए स्वयंसेवक शिया समुदाय से ही आएंगे.
नतीजतन अमरीका को डर है कि सार्वजनिक रूप से ईरान को साथ लेना उन सुन्नी देशों का डर बढ़ा देगा जिनका समर्थन आईएसआईएस से निपटने के लिए अहम होगा.
ईरान नस्लीय मिलिशिया को बढ़ावा दे रहा है जो इराक़ की राष्ट्रीय एकता की संभावना को कम कर रहा है.
अमरीकी चिंताएँ
इसी हफ़्ते इराक़ में पूर्व अमरीकी कमांडर जनरल डेविड पेट्रियास ने तर्क़ दिया था कि "अगर अमरीका इराक़ को सहयोग देता है यह सहयोग इराक़ की सरकार के लिए होना चाहिए, उस सरकार के लिए जो इराक़ के सभी लोगों की सरकार हो और जो इराक़ के सभी समूहों का प्रतिनिधित्व करती हो. यह नहीं होना चाहिए कि अमरीका शिया लड़ाकों के लिए वायु सेना बन जाए."
समस्या यह है कि ईरान समर्थित ऐसे लड़ाके ही आईएसआईएस पर जवाबी कार्रवाई में अहम होंगे. इसलिए ही अमरीकी और ईरानी रणनीतियों में तनाव है. इसके विपरीत 2001 में जब ईरान ने अफ़ग़ानिस्तान में अमरीका का सहयोग किया था तब राष्ट्रीय स्तर पर नस्लीय विभाजन पर इतनी चिंताएं ज़ाहिर नहीं की गई थी.
साथ ही अमरीका को इस बात की भी चिंता है कि ईरान मौजूदा संकट का का इस्तेमाल नूरी अल मलिकी और इराक़ पर अपना प्रभाव और अधिक बढ़ाने के लिए भी इस्तेमाल कर सकता है.
खाड़ी सहयोग परिषद में सऊदी अरब जैसे अमरीका के क्षेत्रीय सहयोगियों की भी यही चिंता है. ये देश तर्क़ देते हैं कि 2003 में इराक़ पर अमरीकी हमले ने इराक़ को प्रभावी रूप से ईरान के हाथों में दे दिया था.
सऊदी अरब को आईएसआईएस से मिल रही चुनौती को लेकर चिंता है लेकिन वो नहीं चाहता कि आईएसआईएस हारे और इराक में ईरान की भूमिका और बड़ी हो जाए.
सऊदी अरब ने इराक़ में विदेशी हस्तक्षेप को नकारकर देश के सभी वर्गों की सरकार बनाने की वकालत की है. दूसरे शब्दों में कहें तो ये नूरी अल मलिकी को हटाने और ईरान को इराक़ से बाहर भेजने की बात है.
पुरानी कड़वाहट
अमरीका का यह मत नहीं है लेकिन वह अपने सहयोगियों की भावनाओं को लेकर संवेदनशील है. अमरीका समझता है कि क़तर और सऊदी अरब अपने संपर्कों के ज़रिए पश्चिमी इराक़ में सुन्नी क़बीलों को हथियार देकर उन्हें शिया लड़ाकों के ख़िलाफ़ मज़बूत कर सकते हैं. इससे भी इराक़ में नस्लीय तनाव बढ़ने का उतना ही ख़तरा है जितना ईरान की नीतियों के कारण है.
इन्हीं कारणों से अमरीकी अधिकारियों ने ‘सैन्य सहयोग’ या "इराक़ी लोगों की जान की क़ीमत पर रणनीतिक सहयोग" से इनकार किया है.
ईरानी नेताओं के पास भी सावधान रहने के अपने कारण हैं. वो कड़वाहट से 2001 के उस दौर को याद करते हैं जब अफ़ग़ानिस्ता पर हमले के दौरान अमरीका ने ईरान की मदद ली थी और अगले ही साल तत्कालीन अमरीकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने ईरान को भी ‘बुराई की धुरी’ कहे जाने वाले देशों में शामिल कर लिया था.
अगर ईरान नूरी अल मलिकी को अपनी नीतियों में सुधार करने या पद छोड़ने के लिए कहता है तो शायद अमरीका या सऊदी अरब इसका इस्तेमाल इराक़ में ईरान के प्रभाव को कम करने के लिए कर सकते हैं.
साथ ही, ईरान के सर्वोच्च नेता दशकों से अमरीका को बुरा और दमनकारी कहते रहे हैं. सार्वजनिक सहयोग इस संदेश को भी कम कर देगा.
यही वजह है कि ईरान की सर्वोच्च राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद के मुखिया अली शमख़ानी ने ईरान और अमरीका के बीच सहयोग की अफ़वाहों पर कहा था कि "ये झूठी हैं और मनोवैज्ञानिक युद्ध जैसी हैं." उन्होंने यह भी कहा कि इराक़ को सहयोग द्वीपक्षीय होगा और इसमें कोई तीसरा देश शामिल नहीं होगा.
इसलिए मौजूदा हालात में अमरीकी और ईरानी सहयोग का मतलब यह होगा कि ये आईएसआईएस पर दोनों देशों की समानांतर लेकिन अलग-अलग कार्रवाइयों से थोड़ा ही ज़्यादा होगा.
अमरीका राजनीतिक बदलाव की शर्त पर सैन्य सहयोग देगा और ईरान शिया लड़ाकों को एकजुट करता रहेगा. बग़दाद के पतन जैसी किसी बड़ी घटना के बिना अमरीका और ईरान को इन फ़ासलों को कम करते देखना मुश्किल है.
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