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अलनीनो, मॉनसून और अर्थव्यवस्था

।। अविनाश कुमार चंचल।। दुनियाभर के पर्यावरण विशेषज्ञ 2014 को अलनीनो का साल मान रहे हैं. अगर सच में यह साल अलनीनो के प्रभावों वाला होगा, तो यह भारत सहित समूचे दक्षिण एशियाई क्षेत्र के लिए चिंताजनक स्थिति बन सकती है. भारतीय मौसम विभाग ने भी इस साल मॉनसून में कमी का अनुमान जताया है. […]

।। अविनाश कुमार चंचल।।

दुनियाभर के पर्यावरण विशेषज्ञ 2014 को अलनीनो का साल मान रहे हैं. अगर सच में यह साल अलनीनो के प्रभावों वाला होगा, तो यह भारत सहित समूचे दक्षिण एशियाई क्षेत्र के लिए चिंताजनक स्थिति बन सकती है. भारतीय मौसम विभाग ने भी इस साल मॉनसून में कमी का अनुमान जताया है. अलनीनो, मॉनसून और अर्थव्यवस्था पर इसके प्रभाव पर नजर डाल रहा है आज का नॉलेज.

पर्यावरण के गंभीर खतरों के बीच ‘अलनीनो’ एक नया नाम है. इस समय दुनियाभर में अलनीनो का खतरा बढ़ने की खबरें आ रही हैं रहा है. असल में अलनीनो एक गर्म जलधारा है, जो प्रशांत महासागर में पेरू तट के सहारे प्रत्येक दो से सात साल बाद बहना प्रारंभ कर देती है. इस दौरान यह समुद्र में काफी गर्मी पैदा करती है, जिससे पेरूवियन सागर का तापमान 3.5 डिग्री सेंटीग्रेड तक बढ़ जाता है. अलनीनो दुनिया में तबाही का भीषण दृश्य उपस्थित करती रही है. ‘अलनीनो’ एक स्पेनिश शब्द है, जिसका अर्थ है- शिशु. 25 दिसंबर को क्रिसमस के आसपास इसका पता लगने के कारण पेरू के मछुआरों ने इसका नामकरण अलनीनो किया.

प्रशांत महासागर के केंद्र और पूर्वी भाग में पानी का औसत सतही तापमान कुछ वर्ष के अंतराल पर असामान्य रूप से बढ़ जाता है. लगभग 120 डिग्री पूर्वी देशांतर के आसपास इंडोनेशियाइ द्वीप क्षेत्र से लेकर 80 डिग्री पश्चिमी देशांतर यानी मैक्सिको और दक्षिण अमेरिकी पेरू तट तक, संपूर्ण उष्ण क्षेत्रीय प्रशांत महासागर में यह क्रिया होती है. एक निश्चित सीमा से अधिक तापमान बढ़ने पर ‘अलनीनो’ की स्थिति बनती है और वहां सबसे गर्म समुद्री हिस्सा पूरब की ओर खिसक जाता है. समुद्र तल के 8 से 24 किलोमीटर ऊपर बहनेवाली जेट स्ट्रीम प्रभावित हो जाती है और पश्चिमी अमेरिकी तट पर भयंकर तूफान आते हैं. वैज्ञानिकों का मानना है कि इसका पृथ्वी के समूचे जलवायु तंत्र पर असर पड़ता है.

2014 : अलनीनो का साल?

पर्यावरण विशेषज्ञ साल 2014 को अलनीनो का साल मान कर चल रहे हैं. अमेरिका की नेशनल ओशेनिक एंड एटमोस्फेरिक एडमिनेस्ट्रेशन ने इस वर्ष की शुरुआत में ही यह आशंका जाहिर कर दी थी कि 2014 अलनीनो वर्ष हो सकता है. इसके अनुसार जून-जुलाई तक उत्तरी गोलार्ध में अलनीनो की अवस्था बन सकती है. अगर सच में यह साल अलनीनो के प्रभावों वाला होगा, तो यह भारत सहित समूचे एशियाइ क्षेत्र के लिए चिंताजनक स्थिति लेकर आनेवाला है.

जिस साल पूवी प्रशांत महासागर में समुद्र के पानी का तापमान सामान्य से ऊपर रहता है, उस साल अलनीनो का प्रभाव रहता है. यह अधिकांशत: जून से अगस्त माह के बीच रहता है. अलनीनो के कारण पूरी दुनिया में वर्षा और हवाओं, तूफान आदि के रुख में परिवर्तन दर्ज किया जाता है. उदाहरण के लिए इससे जहां पेरू और अमेरिका आदि देशों में अतिवर्षा की आशंका होती है, वहीं भारत और ऑस्ट्रेलिया आदि देशों में सूखे की आशंका बढ़ जाती है. अलनीनो के प्रभाव के चलते समूचे दक्षिण-पूर्वी एशिया में मॉनसून सामान्य से कम रहता है. ऐसे में संभावना जतायी जा रही है कि बरसात इस बार सामान्य से कम रहेगी.

विश्व मौसम संगठन ने इस बार अलनीनो की स्थिति बनने का दावा किया है. खुद भारतीय मौसम विभाग ने भी मॉनसून का इस साल सामान्य से कम से कम 5 फीसदी कम रहने का दावा किया है. भारत जैसा देश- जहां आज भी अधिकतर हिस्सों में खेती-किसानी मॉनसून पर ही निर्भर है- के लिए यह खतरनाक स्थिति लेकर आयेगा. भारत पिछले कई वर्षो से खाद्य पदार्थो की महंगाई से जूझता चला आ रहा है. बारिश अच्छी न होने का प्रतिकूल असर अनाज के उत्पादन पर पड़ सकता है, जिससे खाद्यान्न के बाजार भाव भी प्रभावित होते हैं और कीमतों में वृद्धि होती है. इससे न सिर्फ अर्थव्यवस्था, बल्कि राजनीतिक और सामाजिक स्थितियां भी प्रभावित होती हैं.भारत के सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का योगदान अब घट कर तकरीबन 13 फीसदी ही है. इसके बावजूद इस क्षेत्र पर आबादी का लगभग 60 प्रतिशत हिस्सा आज भी निर्भर है. इसके अलावा खाद्य पदार्थो की कीमतों का असर उद्योग या सेवा क्षेत्र में कार्यरत लोगों पर भी होता है. फिर अनाज की महंगाई से कुल मुद्रास्फीति भी प्रभावित होती है. भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन यह साफ कर चुके हैं कि जब तक मुद्रास्फीति नियंत्रण में नहीं आती, रिजर्व बैंक आर्थिक वृद्धि दर को बढ़ावा देनेवाली नीतियों पर नहीं चल सकता. यानी मॉनसून कैसा रहता है, इसका देश की सकल अर्थव्यवस्था से सीधा संबंध है.

इससे पहले साल 2009 में भारतीय मॉनसून को अलनीनो ने प्रभावित किया था. 2009 में जब भारत इससे प्रभावित हुआ था, तो महंगाई चरम पर पहुंच गयी थी, क्योंकि देश भर में वर्षा सामान्य से 23 फीसदी कम हुई थी. इसका बेहद बुरा प्रभाव पड़ा था और मार्च, 2010 में खाद्य मुद्रास्फीति चढ़ कर 21 फीसदी के ऊंचे स्तर पर पहुंच गयी, जबकि इसकी तुलना में अप्रैल, 2009 में यह 8.7 फीसदी थी. इस पर काबू पाने के लिए आरबीआइ को ब्याज दरें ऊंची करनी पड़ी थीं. साल 2009 से पहले 1998 में सदी का सबसे शक्तिशाली अलनीनो था, जब प्रशांत महासागर का तापमान सामान्य से 4 डिग्री कम हो गया था. इससे पहले 1982-83 में भी अलनीनो बड़ी ताबाही लेकर आया था. जिसमें करीब 2000 लोगों की मौत और 13 अरब डॉलर की संपत्ति नष्ट हो गयी थी.

इस साल भी अगर अलनीनो का प्रभाव 30 फीसदी से अधिक होता है, तो साल 2009 और 2012 में जिस तरह उत्तर पश्चिमी और मध्य के राज्यों में अकाल जैसी स्थिति उत्पन्न हुई थी, इस बार भी वैसे ही आसार बन सकते हैं. कम बारिश से सूखा पड़ने के 25 फीसदी आसार हैं. उत्तर-पश्चिमी भारत के गुजरात, सौराष्ट्र, कच्छ, पंजाब, राजस्थान व हरियाणा तथा पश्चिम-मध्य भारत के पूर्व व पश्चिम मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, विदर्भ, मराठवाड़ा, मध्य महाराष्ट्र, कोंकण, गोवा, कर्नाटक के उत्तरी हिस्से तथा तेलंगाना में सामान्य से कमजोर मॉनसून व्यापक असर दिखायेगा. ताजा अनुमान में कहा गया है कि अलनीनो पैटर्न तब डिवेलप हो सकता है, जब जून-सितंबर का मॉनसून सीजन होता है. अप्रैल से जून के बीच भारत के अधिकांश हिस्सों, अफगानिस्तान, उत्तरी पाकिस्तान, श्रीलंका और बांग्लादेश में सामान्य से ज्यादा नमी वाले हालात रहेंगे. हालांकि, मई से जुलाई तक उत्तरी पाकिस्तान से सटे भारत के एकदम उत्तरी इलाकों को छोड़ कर साउथ एशिया के अधिकांश भागों में सामान्य से ज्यादा शुष्क हालात दिखेंगे.

भारतीय अर्थव्यवस्था पर प्रभाव

मॉनसून में देरी होने से भारतीय अर्थव्यवस्था को जबरदस्त नुकसान हो सकता है, क्योंकि इसका असर खरीफ की फसल पर पड़ेगा. खरीफ का सीजन जुलाई और अगस्त के महीने के दौरान होगा, क्योंकि यह ऐसा वक्त है जब भारत की सालाना बारिश का 65 फीसदी इन्हीं महीनों के दौरान होता है. यह वर्षा बेहद महत्वपूर्ण है, क्योंकि 60 फीसदी से ज्यादा खरीफ की खेती सीधे तौर पर मॉनसून पर निर्भर है. मॉनसून में कमी से खाद्य उत्पाद प्रभावित होगा और ग्रामीण बाजार में मांग में कमी आयेगी. इससे उन कंपनियों के शेयरों पर दबाव देखा जा सकता है, जिनके उत्पादों की ग्रामीण इलाकों में बड़े पैमाने पर खपत होती है.

कृषि उत्पादन और संबंधित क्षेत्रों पर इसके प्रभाव का सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) पर भी असर पड़ेगा, जिससे जीडीपी की वृद्घि पांच फीसदी से भी नीचे फिसल सकती है, जो वित्त वर्ष 2015 के दौरान जीडीपी की विकास दर के लिए लगाये जा रहे अनुमान से कम होगी. अपनी हालिया रिपोर्ट में मूडीज ने चालू वित्त वर्ष में विकास दर के 5 से 6 फीसदी के दायरे में रहने का अनुमान व्यक्त किया है.

मॉनसून में कमी से कृषि आधारित क्षेत्रों और कंपनियों पर, खासतौर से रसायन और उर्वरक क्षेत्र से जुड़ी कंपनियों पर दबाव नजर आयेगा. अगर मद्रास्फीति ऊंची रहती है (अलनीनो की वजह से) और लोगों को अधिक से अधिक धन जरूरत की वस्तुओं पर खर्च करना पड़ेगा, तो इससे उपभोग आधारित अन्य खर्च प्रभावित हो सकते हैं. सामान्य से कम मॉनसून का बाजारों पर व्यापक असर पड़ेगा और उर्वरक, कीटनाशक, ट्रैक्टर, दोपहिया और एफएमसीजी जैसे क्षेत्रों की चमक फीकी हो सकती है.

अनुमान से कम वर्षा का औद्योगिक उत्पादन पर भी बुरा असर पड़ सकता है. बिजली संयंत्र और दूसरे ऐसे अन्य उद्योग प्रभावित होंगे, जिन्हें चलाने के लिए पर्याप्त मात्र में जल की आपूर्ति नहीं हो पायेगी. अगर अलनीनो की आशंका सही साबित होती है, तो भारी मात्र में सरकारी संसाधन इससे मुकाबला करने में झोंक दिये जायेंगे और इससे विकास के कई जरूरी मसले ठंडे बस्ते में जा सकते हैं.

संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट

अलनीनो के खतरे को और भी पुख्ता और गंभीर कर दिया है संयुक्त राष्ट्र की एक ताजा रिपोर्ट ने. संयुक्त राष्ट्र के जलवायु परिवर्तन के लिए बने अंतरसरकारी पैनल (आइपीसीसी) ने जलवायु परिवर्तन पर रिपोर्ट जारी की है.

जापान के योकोहामा शहर में 31 मार्च को आइपीसीसी द्वारा जारी दूसरी रिपोर्ट में स्पष्ट कहा गया है कि जलवायु परिवर्तन से आनेवाले दिनों में खाद्य सुरक्षा को लेकर संकट की स्थिति उत्पन्न हो जायेगी. इससे अर्थव्यवस्था के विकास की गति मंद होगी, स्वास्थ्य, प्राकृतिक आपदाओं में बेतहाशा वृद्धि होगी. जलवायु परिवर्तन का सबसे ज्यादा असर एशिया के विकासशील देशों पर पड़ने की आशंका व्यक्त की जा रही है. विशेषज्ञों के मुताबिक भारत जलवायु परिवर्तन से बुरी तरह प्रभावित होनेवाले देशों में से एक है. वैसे भी भारत पहले से ही दुनिया में सबसे ज्यादा आपदा की आशंकावाले देशों में से एक है और इसके 1.2 अरब लोगों में से बड़ी संख्या बाढ़, चक्रवात और सूखे के खतरोंवाले संवेदनशील क्षेत्रों में रहते हैं. अलनीनो और दूसरे कारणों से हो रहे जलवायु परिवर्तन से होनेवाले खराब मौसम से कृषि उत्पादन और खाद्य सुरक्षा ही प्रभावित नहीं होगी, बल्कि पानी की कमी और बाढ़ के पानी के फैलने से भारत समेत कई विकासशील देशों में डायरिया और मलेरिया जैसे मच्छरजनित रोगों को भी बढ़ावा मिलेगा.

जलवायु परिवर्तन की वजह से गेहूं और चावल की पैदावार में कमी दर्ज की जा रही है. इन कारणों से आनेवाले समय में सुरक्षा का संकट उत्पन्न हो सकता है. मसलन, भूमि विवाद, कीमतों में वृद्धि, खाद्य संकट आदि मुद्दे हिंसा और अपराध को बढ़ाने का काम करेंगे. विशेषज्ञों ने यह भी आशंका व्यक्त की है कि भारत सहित दूसरे विकासशील देशों को ऊर्जा, ट्रांसपोर्ट, खेती, पर्यटन जैसे मजबूत अर्थव्यवस्थावाले क्षेत्र में भारी संकट का सामना करना पड़ सकता है. पहले से ही गरीबी, असमानता, विस्थापन जैसी समस्या का सामना कर रहे भारत जैसे देश में जलवायु परिवर्तन की वजह से अराजकता का माहौल बन सकता है. अध्ययन बताते हैं कि जलवायु परिवर्तन गरीबी, असमानता, खाद्य उत्पादन में कमी, विस्थापन जैसी गड़बड़िया पैदा करेगा, जो देश की शांति-सुरक्षा को क्षति पहुंचा सकता है.

अभी संभलने की है उम्मीद

हालांकि, कई वर्षो में अलनीनो के बावजूद अच्छा मॉनसून आया था. विशेषज्ञों के अनुसार अलनीनो और जलवायु परिवर्तन के खतरों को अब भी कम किया जा सकता है. भारत को अलनीनो और अन्य पर्यावरण खतरों से निपटने के लिए अभी से तैयारी शुरू कर देनी होगी. किसानों की खेती के लिए सिंचाई का सस्ता और सुलभ माध्यम तैयार करना होगा. साथ ही, मौसम विभाग को भी दुरुस्त बनाने की जरूरत है. कमजोर मॉनसूनी वर्ष और उससे उत्पादन में कमी के असर को नीतिगत कदमों से कम किया जा सकता है. इसके लिए सरकार को दूरदर्शी राजनीतिक कदम उठाने होंगे. देश के प्राकृतिक संसाधनों, जंगलों, पहाड़ों, नदियों को खत्म करनेवाली विकास की नीतियों को विराम देकर एक संवेदनशील और समावेशी विकास नीति अपनानी होगी.

किसानों पर पड़ेगी अलनीनो की दोहरी मार

।।देविंदर शर्मा।।

(कृषि अर्थशास्त्री)

अलनीनो जब भी आता है, सूखे का कहर लेकर आता है. इससे सबसे ज्यादा ऑस्ट्रेलिया और भारत प्रभावित होते हैं. अलनीनो से सामान्य मॉनसून की स्थिति बिगड़ जायेगी और बारिश भी कम होगी. मौसम विभाग ने इस साल अगस्त में अलनीनो के आने की 70 प्रतिशत तक संभावना जतायी है. अगस्त के महीने में खरीफ की फसलें पकने की कगार पर होती हैं. ऐसे में अगर अलनीनो खरीफ फसलों को नुकसान पहुंचाता है, तो जाहिर है कि पैदावार प्रभावित होने के साथ-साथ इसकी सबसे ज्यादा मार किसानों पर पड़ेगी. चूंकि कृषि हमारी अर्थव्यवस्था का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, इसलिए यदि खेती-किसानी प्रभावित होगी, तो अर्थव्यवस्था पर भी इसका असर दिखना लाजिमी है.

वैसे तो हमारे पास 62 मिलियन टन अनाज का स्टॉक मौजूद है. खाद्य सुरक्षा विधेयक के तहत बांटे जानेवाले अनाज का आंकड़ा भी लगभग 62 मिलियन टन का आता है. यह अनाज खाद्य सुरक्षा के तहत आनेवाले परिवारों को पांच किलो के हिसाब से बांटने के लिए पर्याप्त तो है, लेकिन यहीं से एक सवाल खड़ा होता है कि बाकी लोगों के लिए अनाज कहां से आयेंगे? मौसम की मार हो या किसी और आपदा की, किसानी प्रभावित होने का अर्थ है कि पैदावार सामान्य से कम हो जायेगी. यदि पैदावार कम हुई, तो उपभोग की वस्तुओं का निर्माण करनेवाली इंडस्ट्री पर भी इसका सीधा असर पड़ेगा, जिसका अर्थ है कि महंगाई बढ़ जायेगी.

हालांकि, महंगाई-महंगाई का शोर वे लोग ज्यादा करते हैं, जो दैनिक भत्ता पाते हैं. शोर शुरू हो जाता है कि मुद्रास्फीति बढ़ रही है, लेकिन किसानों की बात कोई नहीं करता.

महंगाई का शोर करनेवाला मध्यवर्ग कभी आत्महत्या जैसी मुश्किलों से नहीं गुजरता, वहीं इस देश के किसानों की आत्महत्याएं रुकने का नाम नहीं ले रही हैं. बीते फरवरी-मार्च में किसानों ने ओले की मार झेली थी, अब उन्हें अलनीनो की दोहरी मार झेलनी पड़ सकती है. किसानों की आत्महत्याएं जारी है और हम महंगाई और मुद्रास्फीति का रोना रोते हुए हाथ पर हाथ धरे बैठे रहते हैं. जरा सोचिए, इस देश में 60 करोड़ के करीब लोग कृषि पर निर्भर हैं. ऐसे में यदि कृषि प्रभावित होगी, तो हमारी अर्थव्यवस्था का क्या हस्र होगा? लेकिन हम खेती-किसानी के बारे में गंभीरता से सोचने के बजाय, सिर्फ औद्योगिक विकास के बारे में ही सोचते हैं. जब तक हम खेती-किसानी के बारे में नहीं सोचेंगे, तब तक हमारी अर्थव्यवस्था भी मजबूत नहीं हो पायेगी.

(वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)

जीडीपी पर मॉनसून का प्रभाव

-देश के सामने पिछले चार दशकों में पांच बार सूखे की विकट स्थिति पैदा हुई है. सबसे बुरी हालत 1972 और 2009 में हुई थी, जब वर्षा के सालाना औसत में क्रमश: 24और 23 फीसदी की गिरावट दर्ज की गयी. 1979, 1987 और 2002 में सामान्य से 19 फीसदी कम बारिश हुई थी.

-हाल में देश को 2002, 2004 और 2009 में अलनीनो के कुप्रभाव का सामना करना पड़ा और सूखे जैसी स्थिति से जूझना पड़ा.

-2002 में यह असर सबसे अधिक देखा गया. उस वर्ष 2001 की तुलना में 17.8 फीसदी की कमी के कारण खाद्यान उत्पादन 174.2 मिलियन टन ही हुआ था. इस कमी का सीधा असर सकल घरेलू उत्पादन पर पड़ा, जो उस वर्ष 3.9 फीसदी के स्तर तक गिर गया था.

-2004-05 में खाद्यान का उत्पादन 204.6 मिलियन टन हुआ था, जबकि 2003-04 में यह 231.5 मिलियन टन था. इस गिरावट के कारण सकल घरेलू उत्पादन की दर 2003-04 की 8.5 फीसदी से गिर कर 7.5 फीसदी हो गयी थी.

-2009-10 में मॉनसून की कमी से 218.11 मिलियन टन अनाज उत्पादित हुआ, लेकिन इस वर्ष सकल घरेलू उत्पादन पर इसका खास असर नहीं हुआ और उसकी दर 8.6 फीसदी रही.

-2009-10 का सूखा पिछले 40 वर्षों में पांच सबसे गंभीर सूखे के मौसमों में था. इस वर्ष औसत वर्षा में 23 फीसदी की कमी हुई थी.

-पिछले वर्ष यानी 2013-14 में देश में शानदार मॉनसून रहा और इसका स्तर 106 फीसदी तक पहुंचा. इस कारण 262 मिलियन टन खाद्यान का रिकॉर्ड उत्पादन हुआ. इसके बावजूद सकल घरेलू उत्पादन की दर निराशाजनक ही रही. तीसरी तिमाही के आंकड़ों के मुताबिक यह सिर्फ 4.7 फीसदी ही रही.

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