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ढेरों पुरस्कार पा चुके लेखक तरस रहे अपनी देखभाल को

दार्जिलिंग. नेपाली साहित्य जगत के प्रसिद्ध साहित्यकार वीरेंद्र सुब्बा बुढ़ापे में अपनी देखभाल को तरस रहे हैं. उनके पास अपना कोई घर भी नहीं है. 89 साल के वीरेंद्र सुब्बा शहर के तामांग बौद्ध गुम्फा रोड स्थित क्रामाकपा आफिस के एक छोटे से कमरे में साल 2014 से रह रहे हैं. नेपाली साहित्य जगत को […]

दार्जिलिंग. नेपाली साहित्य जगत के प्रसिद्ध साहित्यकार वीरेंद्र सुब्बा बुढ़ापे में अपनी देखभाल को तरस रहे हैं. उनके पास अपना कोई घर भी नहीं है. 89 साल के वीरेंद्र सुब्बा शहर के तामांग बौद्ध गुम्फा रोड स्थित क्रामाकपा आफिस के एक छोटे से कमरे में साल 2014 से रह रहे हैं. नेपाली साहित्य जगत को ‘एकांत’, ‘मेघ माला’, ‘कुसुम छोरी’, ‘मूल सडकतिर’, ‘टिस्चे’ जैसे खंड काव्य देनेवाले यह साहित्यकार एक तरह से बेघर है.
पहले वह शहर से तकरीबन पांच किलोमीटर नीचे और पान्दाम चाय बगान से थोड़ा ऊपर लोअर तुंगसुंग में किराये के एक छोटे से घर में रहते थे. वहां से उनको हटा दिया गया, तो वह काफी समय तक शहर के सोनम वागदी रोड स्थित नेपाली साहित्य सम्मेलन भवन में रहने लगे थे. नवंबर, 2014 में वह क्रामाकपा आफिस की एक कोठरी में आ गये. तब से वह यहीं हैं.
देखभाल के अभाव में वीरेंद्र सुब्बा के शरीर से दुर्गन्ध आ रही थी. कपड़े बहुत गंदे थे. पूरा कमरा बदबू से भरा हुआ था. जानकारी मिलने पर उनकी मदद को आगे आयी ‘हू केयर्स’ नामक संस्था. लाचार लोगों की ओर सहयोग का हाथ बढ़ानेवाली, असहाय लोगों की साफ-सफाई करनेवाली इस संस्था के लोग रविवार की सुबह वीरेंद्र सुब्बा के कमरे पर पहुंचे. यहां पहुंचने से पहले संस्था के लोगों को नहीं मालूम था कि यह बूढ़ा व्यक्ति कौन है. जब संस्था के लोग सच्चाई से वाकिफ हुए तो स्तब्ध रहे गये. बाद में इसकी भनक पत्रकारों को मिली और वहां मीडिया की भीड़ जमा हो गयी.
वीरेंद्र सुब्बा की लिखी रचनाएं स्कूल से लेकर मास्टर डिग्री तक की पाठ्य पुस्तकों में पढ़ायी जाती हैं. उनका साहित्य जगत में जितना दखल है, उतना ही चित्रकला में भी है. उन्होंने अपने बनाये दर्जनों सुंदर चित्र बक्से में बन्द करके रखे हैं. इतना ही नहीं, वीरेंद्र सुब्बा अपने जमाने में प्रसिद्ध बॉक्सर भी थे. उन्होंने कई बॉक्सिंग प्रतियोगिताओं में जीत हासिल की थी. लेकिन इतनी प्रतिभाओं के धनी वीरेंद्र सुब्बा आज लाचार अवस्था में जी रहे हैं.

मरने के बाद सम्मान जतानेवाले हमारे समाज, हमारे संघों-संस्थाओं की नजर अभी तक उप पर नहीं पड़ी है. बातचीत के दौरान वृद्ध साहित्यकार ने कहा कि मुझे कालिम्पोंग का पारसमणि पुरस्कार,कर्सियांग का शिव कुमार पुरस्कार मिला है. दार्जिलिंग के नेपाली साहित्य सम्मेलन के साथ ही सिक्किम, नेपाल और जीटीए आदि ने भी मुझे सम्मानित किया है. आज आप अपना पेट कैसे भरते हैं? इस सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि सिक्किम के मुख्यमंत्री पवन कुमार चामलिंग तीन बार मुझे 50-50 हजार रुपये दे चुके हैं. इस तरह डेढ़ लाख रुपय मिला. इसी तरह से जीटीए ने भी पैसा दिया है. यह सारा रुपया मैंने अपने बैंक खाते में रखा है. इस पैसे का ब्याज मैं हर महीने उठाता हूं और उसी से अपना पेट भरता हूं. आजकल क्या लिख रहे हैं? इस सवाल के जवाब में उन्होंने कविता आदि लिखने में व्यस्त होने की जानकारी दी . 89 साल के बूढ़े वीरेन्द्र सुब्बा का जोश और हौसला युवाओं जैसा है.

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