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लालटोंगः आजादी के 69 साल बाद भी नहीं जली विकास की बत्ती

सिलीगुड़ी. सिलीगुड़ी से 18 किमी दूर बैकुण्ठपुर के बीहड़ जंगल में बसा है लालटोंग नामक वनबस्ती. जलपाईगुड़ी जिले के डाबग्राम-फूलबाड़ी विधानसभा केंद्र के भक्तिनगर थाना क्षेत्र में पड़ता है यह वनबस्ती. एक तरफ हरे-भरे जंगल तो दूसरी तरफ हिमालय की तलहटी में बसा है यह बस्ती. वहीं, हिमालय की कोख से निकली तीस्ता नदी की […]

सिलीगुड़ी. सिलीगुड़ी से 18 किमी दूर बैकुण्ठपुर के बीहड़ जंगल में बसा है लालटोंग नामक वनबस्ती. जलपाईगुड़ी जिले के डाबग्राम-फूलबाड़ी विधानसभा केंद्र के भक्तिनगर थाना क्षेत्र में पड़ता है यह वनबस्ती. एक तरफ हरे-भरे जंगल तो दूसरी तरफ हिमालय की तलहटी में बसा है यह बस्ती. वहीं, हिमालय की कोख से निकली तीस्ता नदी की कलकल करती जल धारा बस्ती के शांत माहौल में संगीत के धुन के तरह कानों में गुंजती है. प्रकृति के हसीन वादियों से घिरी इस छोटी बस्ती में कुल 33 परिवार रहते हैं. ये परिवार नेपाली व आदिवासी समुदाय के हैं. बस्ती की जनसंख्या 275 से अधिक है. वहीं, कुल मतदाताओं की संख्या 210 बतायी जा रही है.
क्या है समस्याः आजादी के 69 साल बाद भी इस बस्ती में विकास की बत्ती नहीं जली है. आज तक इस बस्ती में बिजली नहीं पहुंची. पीने योग्य पानी की समस्या है. शिक्षा-स्वास्थ्य परिसेवा भी सबसे बड़ी समस्या है. वनबस्ती को शहर से जोड़ने के लिए न तो पक्की सड़क और न ही यातायात के लिए यात्री वाहन की व्यवस्था है. चिकित्सा या अन्य आपातकालीन जरूरी परिसेवा के लिए वनवासी वन विभाग पर निर्भर रहते हैं. बच्चों के पढ़ने के लिए न तो प्राथमिक विद्यालय है और न ही प्राथमिक चिकित्सा के लिए स्वास्थ्य केंद्र. शिक्षा और स्वास्थ्य दोनों के लिए ही इस बस्ती के बच्चे और वनवासी सिलीगुड़ी पर निर्भर हैं. अधिकांश बच्चें 10वीं-12वीं तक की पढ़ायी के बाद ही शिक्षा छोड़ने को मजबूर हैं. इसकी वजह छात्र-छात्राओं को हर रोज 18 किमी दूर जाकर पढ़ाई करना संभव नहीं है. वहीं सिलीगुड़ी या फिर सालूगाड़ा में अपने रिश्तेदार या नहीं तो किराये के मकान में रहकर बच्चों को पढ़ने के लिए छोड़ना काफी रिस्क है. युवा बीच मझधार में ही पढ़ाई छोड़कर अपने पुश्तैनी धंधे में लग जाते हैं.
वनवासियों का क्या है पेशाः इस छोटी से बस्ती के वनवासियों का मुख्य पेशा पशुपालन और डेयरी उद्योग है. इस बस्ती के प्रायः सभी 33 परिवार गाय, सुअर और मुर्गी पालन का धंधा करते हैं जो इनका पुश्तैनी धंधा है. डेयरी उद्योग इनके जीविकोपार्जन का मुख्य जरिया है. इस बस्ती में पाले जानेवाले गायों से हर रोज डेढ़ से दो हजार लीटर दुध उत्पादन होता है. दूध की पूरी खपत सिलीगुड़ी के ग्वालों व मिठाई दुकानदारों के मार्फत होती है. ग्वाले इस बस्ती से 18 रूपये प्रति लीटर दूध खरीदते हैं और शहर में 40-50 रूपये प्रति लिटर में बिक्री करते हैं.
क्या कहना है वनवासियों काः वनवासियों ने प्रभात खबर के साथ अपनी समस्या साझा करते हुए कहा कि करीब 70-80 साल पहले यह बस्ती बसी थी. वनवासी कष्णा छेत्री का कहना है कि आजादी के 69 वसंत पार हो गये, लेकिन हमने आज तक विकास की बत्ती तक जलती नहीं देखी. राजनेताओं ने हमेशा ही इस बस्ती को उपेक्षित रखा है और हमें केवल चुनावी मोहरा बनाया. जब-जब चुनाव आता है तभी नेता इस जंगल में देखे जाते हैं. चुनाव हो जाता है वोट मिल जाता है राजनेताओं का काम निकल जाता है उसके बाद हमारी सुध लेनेवाला भी कोई नहीं होता. विनय तामांग ने बताया कि हम हमेशा हाथियों एवं जंगली सुअरों के आतंक में जीने को मजबूर हैं.

उन्होंने कहा कि न तो वाम शासन में बस्ती का विकास हुआ और न ही ममता की तणमूल शासन में. हालांकि 2011 के विधानसभा चुनाव के बाद 2012 में उस समय उत्तर बंगाल विकास मंत्री गौतम देव के प्रयास से सोलर सिस्टम द्वारा बस्ती को रोशन करने का प्रयास किया गया था, लेकिन देखभाल की उचित व्यवस्था न किये जाने की वजह से मात्र साल-डेढ़ साल में ही यह सिस्टम टांय-टांय फिस्स हो गया. श्री तामांग का कहना है कि उस दौरान बस्ती में कुल 28 परिवार थे.

सरकार ने बस्ती में बिजली की व्यवस्था के लिए सभी 28 परिवार के मकान पर एक सोलर पैनल लगाया. वहीं, बस्ती के गल्ली-मुहल्लों में पांच सोलर पैनल लगाये गए. लेकिन इन 33 सोलर पैनलों में आज अधिकांश देखरेख के अभाव में खराब हो गये हैं. मात्र दो-चार घरों में ही इस पैनलों से घर रोशन होता है वह भी मात्र कुछ मिनटों के लिए ही. इतनी समस्याओं और अभावों के बावजूद इस बस्ती में रह रहे वनवासी काफी खुशमिजाज और जिंदादिली की जिंदगी जीते हैं. साथ ही आथित्य सत्कार में भी कोई कसर नहीं रखते.

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