आजादी के बाद 1952 में हुए देश के पहले चुनाव में कोलेबिरा से विधायक चुने गये थे सुशील बागे. 1984 में निधन होने तक वह छह बार कोलेबिरा के विधायक रहे. एक बार निर्दलीय, एक बार कांग्रेस पार्टी से और चार बार झारखंड पार्टी के टिकट पर चुनाव जीता. बिहार सरकार में पंचायती राज व परिवहन जैसे महत्वपूर्ण विभागों के मंत्री रहे.बागे ऐसे विधायक थे, जिनको गुरूर छू भी न पाया था. वह खपरैल और घास-फूस से बने घर में रहते थे. साइकिल से घूमना उन्हें पसंद था. उन्हें विधायक या कैबिनेट मंत्री बनने का कभी गुरूर नहीं रहा.वह अपना कपड़ा खुद धोते. घर के आगे झाड़ू भी स्वयं लगाते थे. स्व बागे की धर्मपत्नी सिल्विया शीतल 87 साल की हो गयी हैं. 19 जनवरी 1984 को सुशील बागे के निधन के बाद सिल्विया दो बार एमएलसी भी रहीं. प्रभात खबर के वरीय संवाददाता बिपिन सिंह ने उनसे बात कर पुरानी यादें टटोलने का प्रयास किया है.
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खुद झाड़ू लगाते और कपड़ा धोते थे छह टर्म विधायक बागे
आजादी के बाद 1952 में हुए देश के पहले चुनाव में कोलेबिरा से विधायक चुने गये थे सुशील बागे. 1984 में निधन होने तक वह छह बार कोलेबिरा के विधायक रहे. एक बार निर्दलीय, एक बार कांग्रेस पार्टी से और चार बार झारखंड पार्टी के टिकट पर चुनाव जीता. बिहार सरकार में पंचायती राज व […]
रांची :जो लोग उन्हें (स्वर्गीय सुशील बागे) करीब से जानते हैं, वो आपको बतायेंगे, उनकी राजनीति जितनी आक्रामक थी. दूसरी तरफ वह उतना ही सादगी भरा जीवन जीते थे. बातचीत क्रम में सिल्विया शीतल मानो यादों में कहीं खो जाती हैं. वह कहती है : रोज सुबह चार बजे उठना उनकी आदत थी, नहा-धो कर झक सफेद धोती पहन कर वह बाहर कुर्सी पर बैठ जाते थे. अखबार पढ़ना उनकी दिनचर्या में थी.
हमारी उनसे रोज लड़ाई होती थी. मैं देर तक जाग कर कॉलेज क्लासेज लेने की तैयारी करती. लेकिन, उनको जल्दी सोने और सुबह जल्दी बिस्तर छोड़ने की आदत थी. उनकी खटर-पटर से रोज मेरी नींद टूट जाती. मैं उनसे सख्त लहजे में कहती, क्या जरूरी है सुबह के वक्त इतना शोर मचाने की. लेकिन वह कभी नहीं सुनते थे.
उनका पूरा जीवन राजनीति और झारखंड के लोगों के लिए समर्पित था. उन्होंने शिक्षा को हमेशा महत्व दिया. यही सीख उन्होंने अपने बच्चों को भी दी. उनके संस्कार ही रहे कि आज भी उनका परिवार सादगी से भरा हुआ है. हम दोनों व्याख्याता थे. फिर भी परिवार पालना मेरी ही जिम्मेदारी थी.
क्योंकि उनके पैसे तो कभी पूरे नहीं पड़ते थे. वह अपना वेतन आम लोगों के दुख दूर करने पर ही खर्च करते. झारखंड अलग राज्य उनका सपना था. हमारा नारा था देना होगा झारखंड, ले के रहेंगे झारखंड. कैसे लोगे झारखंड, लड़ के लेंगे झारखंड. जयपाल सिंह मुंडा हमारे ही गांव टकरा के थे, उनका हमारे घर लगातार आना-जाना था.
वह परिवार के सदस्य की तरह थे. मेरे पति को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता था कि कोई आदमी राजनीति में कहां पहुंच गया है. वह कहते थे कि सादगी कभी नहीं छोड़नी चाहिए. वह मुझसे अक्सर रात में ज्यादा चावल बनवाते. सुबह बासी भात और तरकारी खाते थे. दरअसल, वह अपने लिए किसी को भी परेशान नहीं करना चाहते थे.
हर वक्त दूसरों की चिंता ने उनको स्वयं के सुख से हमेशा वंचित रखा. हमारे घर के बाहर दरवाजे पर वह रोज झाड़ू लगाते. अपना कपड़ा खुद धाेते. मिलने आनेवाले लोगों के लिए कुर्सियां और बेंच भी स्वयं ही ठीक करते थे. आज की राजनीति को पैसे ने खराब कर दिया है. नेता विधायक का जनता से संबंध कमजोर हो गया है.
झारखंड आंदोलन जल, जंगल, जमीन के साथ आदिवासियों, मूलवासियों की भाषा, संस्कृति और सामाजिक अस्तित्व की रक्षा के संकल्प की उपज थी. आज भी यह उद्देश्य पूरा नहीं हो सका है. दुख होता है कि इस उद्देश्य की बात भी अब नहीं सुनी जा रही है. झारखंड के लिए सच्ची लड़ाई लड़नेवालों के विचार आज भी साफ-सुथरी राजनीति को प्रासंगिक बनाने की चाहत रखनेवालों को रास्ता दिखा सकते हैं.
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