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जनसंख्या विस्फोट का कारण धर्म नहीं, सामाजिक बुराइयां…

-रजनीश आनंद- विश्व की बढ़ती जनसंख्या चिंता का कारण है, क्योंकि जिस गति से जनसंख्या बढ़ रही है उसके लिए जीवन की बुनियादी सुविधाएं और संसाधन जुटाना चुनौती है. भारत के लिए भी बढ़ती जनसंख्या बहुत बड़ी चुनौती है क्योंकि 2019 तक देश की आबादी लगभग 1.36 अरब हो गयी है. संयुक्त राष्ट्र के अनुसार […]

-रजनीश आनंद-

विश्व की बढ़ती जनसंख्या चिंता का कारण है, क्योंकि जिस गति से जनसंख्या बढ़ रही है उसके लिए जीवन की बुनियादी सुविधाएं और संसाधन जुटाना चुनौती है. भारत के लिए भी बढ़ती जनसंख्या बहुत बड़ी चुनौती है क्योंकि 2019 तक देश की आबादी लगभग 1.36 अरब हो गयी है. संयुक्त राष्ट्र के अनुसार 2010-2019 तक में भारत की जनसंख्या 1.2 की औसत वार्षिक दर से बढ़ी है. यह पूरे देश के लिए चिंता का कारण है. इसी चिंता को दर्शाते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 15 अगस्त को लाल किले के प्राचीर से छोटे परिवार की वकालत की और जनसंख्या नियंत्रण पर अंकुश लगाने की बात कही. उनके इस बयान की प्रशंसा हो रही है, उनके विरोधी भी उनकी प्रशंसा कर रहे हैं. लेकिन यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि देश में परिवार नियोजन के तरीके उपलब्ध रहने के बाद भी जनसंख्या विस्फोट पर उस तरह अंकुश नहीं लग सका, जैसी कोशिश की गयी थी, यही कारण है कि सरकार जनसंख्या विनियमन विधेयक 2019 लेकर आयी है, जिसके अंतर्गत दो बच्चों को आदर्श मानते हुए जनसंख्या नियंत्रण कानून बनाया जायेगा. लेकिन सवाल यह है कि क्या कानून से समस्या का समाधान हो पायेगा. आखिर देश में बढ़ती जनसंख्या की मूल वजह क्या है:-

क्या कहते हैं प्रबुद्ध जन

शाहिद हसन : प्रोफेसर हसन का मानना है कि जनसंख्या वृद्धि के लिए शिक्षा, आस्था और अर्थव्यवस्था जिम्मेदार कारक हैं. इसे धर्म से जोड़कर देखना बिलकुल गलत है. जिन लोगों में शिक्षा का अभाव है, वहां बच्चों की संख्या ज्यादा है. गरीबी इसका प्रमुख कारण है. गरीब परिवार में अगर बच्चे ज्यादा होते हैं, तो उनके लिए कमाई का एक हाथ बढ़ जाता है. सरकार अगर जनसंख्या पर गंभीरता से नियंत्रण करना चाहती है, तो उसे साइंटिफिक तरीके से जनगणना करानी चाहिए और यह पता करना चाहिए कि जनसंख्या वृद्धि के लिए कौन-कौन से कारक जिम्मेदार हैं. उसके बाद उन मोर्चों पर काम करना चाहिए, जागरूकता लानी चाहिए, तभी जनसंख्या पर नियंत्रण होगा. यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि हालिया आर्थिक सर्वेक्षण में जो आंकड़े आये हैं, उसमें यह स्पष्ट है कि मुसलमानों में फर्टिलिटी रेट में सबसे ज्यादा 22.9 प्रतिशत की कमी आयी है. इसलिए सोशल साइकोलॉजी को समझने की जरूरत है,ताकि जनसंख्या नियंत्रण पर सही तरीके से लगाम कसी जा सके.

डॉ प्रभात कुमार सिंह : एसोसिएट प्रोफेसर प्रभात कुमार सिंह का कहना है कि जबतक समाज से सामाजिक बुराइयां मसलन, गरीबी, अशिक्षा, बेकारी और दरिद्रता को दूर नहीं किया जायेगा जनसंख्या पर नियंत्रण संभव नहीं है. अत: सरकार को पहले यह सुनिश्चित करना चाहिए कि इन बुराइयों को कैसे मिटाया जाये. जहां तक बात जनसंख्या पर नियंत्रण की है तो इसपर काफी हद तक लगाम कसी जा चुकी है. शहरों में लोग दो से ज्यादा बच्चे पैदा नहीं करते हैं, जबकि ग्रामीण इलाकों में जहां गरीबी, अशिक्षा और भुखमरी है, वहां के लोग जनसंख्या बढ़ाते हैं, क्योंकि उनके लिए एक आदमी यानी काम करने वाला एक और हाथ है. भारत की सामाजिक व्यवस्था में यह खामियां हैं, इसे धर्म से जोड़ना अनुचित है, क्योंकि गरीबी, अशिक्षा और बेरोजगारी जैसी समस्या हर जगह पर है और इसका धर्म से कोई लेना-देना नहीं है. समतामूलक समाज का निर्माण हो तो जनसंख्या पर नियंत्रण सहज संभव है.

राष्ट्रीय परिवार नियोजन कार्यक्रम

भारत में परिवार नियोजन कार्यक्रम की शुरुआत 1952 में ही हो गयी थी, ध्यान देने वाली बात यह है कि इस कार्यक्रम की शुरुआत करने वाला भारत पहला देश था. हालांकि उस वक्त इस कार्यक्रम का उद्देश्य लोगों को बेहतर स्वास्थ्य सुविधा करना था, जो बाद में जनसंख्या नियंत्रण से जुड़ गया. आजादी के वक्त शिशु मृत्युदर बहुत ज्यादा थी, जिसे धीरे-धीरे नियंत्रित किया गया.

शिशु मृत्युदर पर अंकुश

आजादी के पहले देश में शिशु मृत्यु दर अत्यधिक थी. लेकिन इसपर काफी हद तक अंकुश लगा लिया गया है. आंकड़ों के अनुसार 1990 में भारत की शिशु मृत्यु दर प्रति 1000 पर 129 थी. 2005 में यह घटकर 58 हो गई, जबकि 2017 में ये प्रति 1000 पर 39 रह गयी है. परिणाम यह हुआ कि परिवार में बच्चों की संख्या बढ़ती गयी. चूंकि शिशुओं की मौत पहले ज्यादा थी इसलिए सशंकित लोगों ने बच्चों की संख्या कम करने पर विचार नहीं किया और बच्चे बढ़ते गये.

लिंग आधारित भेदभाव भी जनसंख्या वृद्धि के लिए जिम्मेवार

संविधान ने देश में लिंग आधारित भेदभाव नहीं किया और महिलाओं को समान अधिकार दिये, बावजूद इसके समाज में भेदभाव नहीं मिटा. पुत्र की चाह में भी देश में कई अनचाही बेटियां पैदा हुईं. आजादी के समय तो देश में शिक्षा का अभाव था, लेकिन बात अगर आज की करें तो बजट 2019-20 के पहले आये आर्थिक सर्वेक्षण में इस बात का खुलासा हुआ है कि देश में लड़के बच्चों की चाह बहुत ज्यादा है और लड़कों की ख्वाहिश में देश में 2.1 करोड़ अनचाही बच्चियां पैदा हुईं हैं. इसे भी जनसंख्या वृद्धि का एक कारक माना जायेगा.

परिवार नियोजन के तरीके अपनाने में संकोच और भ्रांतियां

आज भी परिवार नियोजन के तरीके अपनाने में दंपती संकोच करते हैं. वैसे भी पुरुष इस दायित्व को नहीं निभाना चाहते और यह एक तरह से महिलाओं की जिम्मेदारी मानी जाती है. परिवार नियोजन के तरीके अपनाने में पुरुष इस तरह से संकोच करते हैं मानो यह उनकी प्रजनन क्षमता को प्रभावित करेगा, जबकि सच्चाई इससे इतर है. परिणाम यह होता है कि अकसर अनचाहे बच्चों का जन्म होता है.

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