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Jharkhand News: झारखंड में चढ़ा पारा, देसी फ्रिज से सजे बाजार, कैसी है डिमांड, कुम्हारों की ये है पीड़ा

Jharkhand News: लातेहार जिले के महुआडांड़ प्रखंड के बाजारों में मिट्टी की सोंधी खुशबू लिए देसी फ्रिज (मिट्टी घड़ा) बिकने लगे हैं. गर्मी के दिनों में इसकी डिमांड बढ़ जाती है. कुम्हारों (प्रजापति) की पीड़ा ये है कि अब इस काम में उतनी कमाई नहीं रह गई है.

Jharkhand News: झारखंड में पारा चढ़ता जा रहा है. धूप की तपिश बढ़ती जा रही है. इस बीच ठंडे पानी को लेकर बाजार देसी फ्रिज से सज गये हैं. मिट्टी के घड़ों की मांग बढ़ने लगी है. गर्मी में लोग नया घड़ा बाजार से खरीदकर लाते हैं. झारखंड के लातेहार के महुआडांड़ प्रखंड में बाजार मिट्टी के घड़े से सज गये हैं. कुम्हार उसकी बिक्री करते हैं. इनकी पीड़ा है कि महंगाई में इससे पेट पालना मुश्किल हो गया है. लोग कहते हैं कि मिट्टी की सोंधी खुशबू के लिए नये घड़े के पानी की बात ही कुछ और है.

गर्मी में मिट्टी के घड़े की डिमांड

लातेहार जिले के महुआडांड़ प्रखंड के बाजारों में मिट्टी की सोंधी खुशबू लिए देसी फ्रिज (मिट्टी घड़ा) बिकने लगे हैं. गर्मी के दिनों में इसकी डिमांड बढ़ जाती है. कुम्हारों (प्रजापति) की पीड़ा ये है कि अब इस काम में उतनी कमाई नहीं रह गई है. महंगाई के दौर में सही से चार लोगों का परिवार चलाना मुश्किल है. पहले लोग मिट्टी के बर्तन में खाना भी पकाते थे, लेकिन समय परिवर्तन से लोगो के जीने का तरीका बदला. अब एल्युमिनियम, स्टील, फाइबर एवं प्लास्टिक के बर्तनों ने मिट्टी के बर्तन को खत्म कर दिया. ग्रामीण परिवेश के किचन से चार दशक पहले ही मिट्टी के बर्तन पूरी तरह गायब हो गए.

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धीरे-धीरे विलुप्त हो रही कला

महुआडांड़ के गोठगांव के कुम्हार टोली में मिट्टी के बर्तन बनाये जाते हैं. गांव में प्रजापति परिवार की आबादी 80 घरों की है. लगभग 10 परिवार इसी पुश्तैनी धंधे से जुड़े हैं. गर्मी के मौसम आते ही बाजार स्थित बस स्टैंड के रोड किनारे मिट्टी के बर्तन की दुकान प्रजापति समुदाय के लोग लगाते हैं. लेकिन धीरे-धीरे इस समुदाय से मिट्टी के बर्तन बनाने की कला विलुप्त होती जा रही है. कुछ परिवार के पुरुष घर पर मिट्टी के बर्तन बनाते हैं, फिर इसे लकड़ी से पकाते हैं. महिलाएं पास के हाट-बाजार में ले जाकर बेचते हैं. मिट्टी घड़ा विक्रेता बताते हैं कि गर्मी में घड़ा अमीर-गरीब दोनों तबके के लोग खरीदते हैं, लेकिन क्षेत्र में आदिवासी परिवार अधिक खरीदते हैं. इस साल बाजार में मिट्टी का घड़ा 100 रुपए से लेकर 150 एवं 200 रुपये तक के बेचे जा रहे हैं.

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पहले हर घर में होता था घड़ा

विश्वनाथ कुम्हार कहते हैं कि हमारे पूर्वजों की आय का मुख्य स्रोत मिट्टी का बर्तन बनाकर बेचना था. पहले हर घर में घड़ा होता था. होटल में भी पानी रखने के लिए बड़ा घड़ा रखा जाता था. होटल मालिक दर्जनों बड़े-बड़े घड़े बनाने का ऑर्डर देते थे, लेकिन दो दशक पहले से होटल में घड़ा रखने का चलन खत्म हो गया. आज गर्मी में केवल गांव में ही मिट्टी के घड़े की मांग रह गई है. महाबीर ने बताया कि मिट्टी कला बोर्ड नामक संस्था ने आकर कुम्हार टोली में मिट्टी के काम से जुड़े लोगों को आश्वासन दिया था कि आपको मुफ्त में मोटर चाक मिलेगा. साथ प्रशिक्षण भी दिया जाएगा और बर्तन के विभिन्न सामान का बाजार उपलब्ध होगा. चार वर्ष बीत गए. सपना दिखाकर वे चले गये, लेकिन हकीकत में कुछ नहीं बदला. हिन्दू धर्म-संस्कृति में मिट्टी के बर्तन की जरूरत हमेशा रहेगी. शादी-विवाह, मृत्यु, और त्योहार में कुछ ही, मगर मिट्टी के बर्तन अनिवार्य होते हैं. इस कला के संरक्षण की जरूरत है.

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नयी पीढ़ी इस पेशे से कतरा रही

संपती देवी कहती है कि सरकार को हमारे समाज की ओर ध्यान देना चाहिए. गांव में बिजली आ गई है. मोटर चाक मिलना चाहिए. आज भी हाथ से चाक चलाते हैं. वैसे तो आश्वासन मिलता है, लेकिन मोटर चाक नहीं मिला है. आज हमारे बच्चे इस काम को पसंद नहीं करते है. कहते हैं कि इससे अच्छा तो बाहर जाकर मजदूरी करके कमा लेते हैं. प्रमेश्वर कुम्हार कहते हैं कि गर्मी में 30 से 40 हजार तक का घड़ा बेच लेते हैं. ऑटो में घड़ा को लेकर नेतरहाट, बारेसाड़, गारू, जरागी, डूमरी, बनारी के साप्ताहिक बाजार में बेचते हैं.

रिपोर्ट: वसीम अख्तर

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