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दो दिवसीय राष्ट्रीय शॉर्ट फिल्म फेस्टिवल का जमशेदपुर में समापन, महिलाओं ने सुनायी संघर्ष की कहानी

टाटा स्टील फाउंडेशन द्वारा आयोजित समुदाय के साथ कार्यक्रम में शामिल होने कई महिलाएं जमशेदपुर पहुंची. दो दिवसीय राष्ट्रीय शॉर्ट फिल्म फेस्टिवल के समापन अवसर पर इन महिलाओं ने अपनी संघर्ष की कहानी बतायी. प्रभात खबर ने कई महिलाओं से बात की.

Jharkhand News: कच्ची उम्र में शादी, बच्चे का जन्म और अचानक पति की मौत होना, किसी महिला के हिम्मत को तोड़ने के लिए काफी है. इन सारी झंझावात के बावजूद एक मां अपने बच्चों के लिए जीना आरंभ करती है, खुशियां घर में अब आयेगी इस इंतजार का सफर पूरा भी न हो सका और जवान बेटी की मौत हो जाना. एक बार फिर एक मां 22 साल पीछे की स्थिति में पहुंच जाती है, लेकिन वह अब फिर से संघर्षों से न केवल जीना शुरू की है बल्कि समाज के लिए मिसाल बन रही है. ऐसा इसलिए क्योंकि एक बिटिया अपनी उस मां को बिल्कुल अलग देखना चाहती थी जिसने दिन रात कपड़ों की सिलाई कर अपने बच्चों की जिंदगी को बुनने का काम किया. यह किसी फिल्म की कहानी नहीं, बल्कि ओड़िशा के राउरकेला की जनजाति समुदाय से आने वाली शांति बड़ाइक के संघर्षपूर्ण सच्ची कहानी है.

प्रभात खबर ने महिलाओं से की बात

शांति बड़ाइक टाटा स्टील फाउंडेशन द्वारा आयोजित समुदाय के साथ कार्यक्रम में शामिल होने शहर आयी है. समुदाय के साथ कार्यक्रम के तहत नौ अगस्त को विश्व आदिवासी दिवस पर झारखंड समेत आसपास के राज्यों से आयी जनजाति समुदाय की हर एक महिलाओं की ऐसी कहानी है, जिनके निजी जीवन की लड़ाई, संघर्ष और सफलता अब समाज की महिलाओं को एक नया रास्ता दे रही है. प्रभात खबर ने ऐसी महिलाओं से बात की.

महिला का जीवन स्वार्थी नहीं है, हमें हमेशा अपनों के लिए जीना पड़ता है : शांति बड़ाइक

ओड़िशा राउरकेला के घिरपानी में एक होटल चलाने वाली शांति बड़ाइक की कहानी एक औरत एक मां के लिए न केवल प्रेरणादायी है बल्कि उन्हें हर चुनौती व परेशानी में हिम्मत देने वाली है. 16 वर्ष की आयु में शादी और दूसरे ही साल बार 1997 में बेटी का जन्म, 2003 में बेटे का जन्म और 2005 में पति की मृत्यु. 25 साल की उम्र में दो बच्चों की मां और पति का साथ छूट जाना एक महिला के जीवन में पहाड़ टूटने से भी बड़ा है. पति सेल कर्मचारी थे, मृत्यु के बाद मिलने वाली मामूली पेंशन की राशि बच्चों के परवरिश के लिए काफी नहीं थे. सिलाई सीखी और दिन रात सिलाई कर कमाई की. दोनों बच्चों को इंग्लिश स्कूल से पढ़ाया.

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भावुक हुई शांति

साइंस से प्लस टू करने वाली शांति बड़ाइक की बिटिया फैशन डिजाइनिंग के क्षेत्र में जाना चाहती थी, उसने राष्ट्रीय स्तर पर होने वाली निफ्ट यानी NIIFT की प्रवेश परीक्षा पास की और भुवनेश्वर के कॉलेज में दाखिला लिया. पढ़ाई का आखिरी साल था. गुजरात के एक बड़े ब्रांड के कपड़े की कंपनी में इंटर्नशिप के लिए गयी थी. शांति के घर अब खुशियां प्रवेश करने वाली थी कि बिटिया की अचानक तबीयत बिगड़ी और 22 साल की उम्र में वह अपनी मां का साथ छोड़ गयी. अब जैसे शांति के जीवन फिर से एक बार दुखों का साया छा गया, तो बेटे ने मां को हिम्मत दी और कहा अब तुम्हें दीदी के सपने और मेरे बेहतरी के लिए जीना है. जीवन से हार चुकी शांति को फिर से जीने की राह दिखी. आज वह एक छोटा सा खुद का होटल का व्यवसाय कर रही है. बेटा इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहा है. पहली बेटे को छोड़ कर आयी शांति अपनी कहानी कहते हुए भावुक हो उठती है और आंखों के आंसू को पोंछते हुए कहती हैं कि कभी महिलाओं को हारना नहीं चाहिए. महिला का जीवन स्वार्थी नहीं है हमें हमेशा अपनों के लिए जीना पड़ता है.

महिलाओं के खाली समय को आर्थिक सबलता का जरिया बनाया : अहिल्या सिंह सरदार

पूर्वी सिंहभूम जिला के केरवा डुंगरी पंचायत की अहिल्या सिंह सरदार अपने साथ आज गांव व पंचायत की महिलाओं को आर्थिक सबल बनाने के लिए जानी जाती है. मजदूर किसान परिवार के अहिल्या को जब आर्थिक तंगी से गुजरना पड़ा, तो उन्होंने महसूस किया कि सुबह के 11 बजे से शाम के 4 बजे का वक्त उनका जाया जाता है, तो उन्होंने कुछ करने का विचार बनाया. उन्होंने सोहराय पेंटिंग को अपने कमाई का जरिया बनाया. काम को बढ़ाने और अपनी जैसी गांव की अन्य महिलाओं को भी जागरूक किया और इससे जोड़ एक समूह तैयार कर लिया. आज उनका यह समूह लोगों के घरों की दीवार पर सुंदर कलाकृति उकरने के लिए ऑर्डर लेकर काम करता है. अहिल्या ने बताया कि शुरूआत में जब वे लोग पेंटिंग का प्रशिक्षण लेने जाती थी तो घर के पुरुष सदस्यों को यह पसंद नहीं था, लेकिन अब जब वे आर्थिक रूप से खुद और परिवार की मदद कर रही हैं, तो सभी खुश है. उन्होंने बताया कि टाटा स्टील फाउंडेशन की टीम ने भी समूह का साथ दिया.

शादी के बाद उच्च शिक्षा ली, बाल साहित्य पुरस्कार प्राप्त किया, आज अपनी भाषा को जिंदा रखने के लिए कर रही काम : जोबा मांझी

जमशेदपुर स्थित करनडीह की रहने वाली शिक्षिका, साहित्यकार जोबा मांझी की कहानी भी उन महिलाओं के लिए प्रेरणादायी है जो सांसारिक जीवन के कारण पढ़ाई से दूर हो जाती हैं और उनकी अपनी पहचान खो सी जाती है. जोबा मांझी की शादी भी तब हो गयी जब वह इंटर में पढ़ाई कर रही थी. उन्होंने अपने ही कॉलेज के एक सीनियर पितांबर माझी से की. आदिवासी समाज से होने के बावजूद जोबा के परिवार में सभी उच्च शिक्षा प्राप्त थे और शिक्षा के प्रति जागरूक थे. यही वजह रही कि उन्होंने शादी के बाद डबल एमए किया. एलबीएसएम से 2009 में संथाली और इग्नू से 2014 में हिंदी से जबकि वर्ष 2002 में ही उन्होंने लॉ की डिग्री जमशेदपुर को-ऑपरेटिव कॉलेज से कर ली थी. जोबा माझी गीतांजली का संथाली भाषा ओलचीकी लिपी में अनुवाद कर चुकी है. बाल साहित्य के क्षेत्र में उन्होंन साहित्य अकादमी से वर्ष 2014 में बाल साहित्य पुरस्कार से भी नवाजा जा चुका है. वर्तमान में वह एक संस्था के तहत अपनी भाषा, लिपि को विश्व पटल पर पहुंचाने और समाज के युवाओं को उसके प्रति जागरूक करने के लिए नि:शुल्क शिक्षा सेवा दे रही है. इसके अलावे शांति और उनके पति पितांबर फिल्म कहानीकार के साथ निर्माण व कलाकार भी हैं.

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गांव की महिलाओं की मददगार, बच्चों की टीचर दीदी : अनिता बोदरा

सरायकेला के सीनी गांधी चौक की रहने वाली अनिता बोदरा आज अपने क्षेत्र की महिलाओं की मददगार, बच्चों की टीचर दीदी है. 2002 में मैट्रिक पास करने वाली अनिता की शादी 2003 में हो गयी. बच्चे कुछ साल बाद 2009 में हुए, पति मजदूरी करते थे. उनकी मजदूरी से घर नहीं चलता था. आर्थिक तंगी समस्याओं का कारण बनती जा रही थी. उसी दौरान उन्होंने बगैर आय के आय करना शुरू किया पति की कमाई से हर दिन 10-10 रुपये जमा करना शुरू की और वो दस रुपये की बचत अब अनिता को आर्थिक सबलता की मिसाल बन गयी है. एक महिला समिति से जुड़ कर वर्तमान में अनिता काम कर रही है और समिति में उन्हें लेखापाल की जिम्मेदारी दी गयी है. कमाई बहुत ज्यादा नहीं है, लेकिन वह खुद के साथ अपने समाज की महिलाओं के कुछ पा रही है इसकी उन्हें दोगुनी खुशी है. बच्ची के लोग बच्चे को स्कूल भेजना पसंद नहीं करते थे, लेकिन अनिता ने लॉकडाउन के दौरान भी बच्चों को पढ़ाया और उन्हें शिक्षा के साथ नैतिक ज्ञान दिया. आज वह गांव की टीचर दीदी है. महिलाएं हर छोटे बड़े काम के लिए अनिता के पास आती हैं.

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