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धनबाद : माता रानी के दर्शन को शक्ति मंदिर में उमड़े भक्त

मां की आराधना कर सुख समृद्धि का मांगा वरदान धनबाद : शारदीय नवरात्र के चौथे दिन शनिवार को मां के कुष्मांडा रूप की पूजा घरों, मंदिरों आैर पूजा पंडालों में की गयी. शक्ति मंदिर में अहले सुबह से भक्तों की भीड़ लगने लगी. शनिवार होने के कारण लंबी लाइन में लग कर भक्तों ने माता […]

मां की आराधना कर सुख समृद्धि का मांगा वरदान
धनबाद : शारदीय नवरात्र के चौथे दिन शनिवार को मां के कुष्मांडा रूप की पूजा घरों, मंदिरों आैर पूजा पंडालों में की गयी. शक्ति मंदिर में अहले सुबह से भक्तों की भीड़ लगने लगी. शनिवार होने के कारण लंबी लाइन में लग कर भक्तों ने माता रानी के दर्शन किये. सुबह पांच बजे से मां के पट भक्तों के लिए खोल दिये गये.
मंगला आरती के बाद भक्तों ने मां की आराधना कर सुख समृद्धि का वरदान मांगा. शनिवार को मां को नीले रंग की साड़ी पहनायी गयी. नीले फूलों से उनका शृंगार किया गया. मां का अलौकिक रूप भक्तों पर आशीर्वाद बरसा रहा था. भक्तों के बीच सामा चावल का खीर का भोग वितरित किया गया. नवरात्रा को लेकर मंदिर को फूलों से सजाया गया है. आकर्षक विद्युत सज्जा की गयी है. संध्या में महिला भजन मंडली द्वारा भजन कीर्तन किये गये. माता रानी के जयकारे से मंदिर परिसर गूंजता रहा.
अष्टमी को होगी कुंवारी कन्या पूजन : शक्ति मंदिर में 17 अक्तूबर को महाअष्टमी की पूजा होगी. इसके बाद महाआरती होगी. नौ कुंवारी कन्या और एक भैरव बाबा की पूजा की जायेगी. कुंवारी कन्या का पूजन मां के नौ रूप में किया जायेगा.
अहिंसा परम धर्म, फिर देवी शक्तियां हिंसक कैसे?
दनीय शक्तियों के पास असुरों का वध करने के स्थूल शस्त्र नहीं थे, बल्कि आसुरी लक्षणों का अंत करने के लिए ज्ञान-शस्त्र थे. मानो कोई व्यक्ति हमें उपदेश देता है कि ज्ञान रूपी तलवार से काम रूपी असुर को मारो. इस उपदेश को चित्रकार चित्र के रूप में अंकित करते समय हमारे हाथ में तलवार दिखाएगा और हमारे सामने काम विकार को असुर के रूप में खड़ा कर देगा.
इसी प्रकार शक्तियों की अनेक भुजाएं तथा उनमें नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्र दिखाने का भी यही अभिप्राय है कि काम, क्रोधादि आसुरी लक्षणों का अंत करने के लिए उनमें बहुत शक्ति और ज्ञान की अनेक धारणाएं थीं. हिंसाकारी व्यक्तिओं का पूजन कभी नहीं होता. अहिंसा तो धर्म का प्रथम और परम लक्षण है. अत: इन धर्मयुक्त एवं वंदनीय शक्तिओं के हाथों में हिंसा के शस्त्र मानना अज्ञानता और अनर्थ है. दुर्गा सप्तशती में लिखा है –
सर्व मंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थ साधिके।
शरण्ये त्र्यम्बिके गौरी नारायणी नमोस्तुते।।
शरणागत दीनार्तपरित्राण परायणे।
सर्वस्यातिहरे देवि नारायणी नमोस्तुते।।
सर्वस्वरूपे सर्वेशे सर्वेशक्तिसमन्विते ।
भयेभ्यस्त्राहि नो देवि दुर्गे देवि नमोऽस्तु ते ।।
रोगनशेषानपहंसि तुष्टा
रुष्टा तु कामान् सकलानभीष्टान्।।
त्वामाश्रितानां न विपन्नराणां।
त्वमाश्रिता हृयश्रयतां प्रयान्ति।।
सर्वाबाधा प्रशमनं त्रैलोक्यस्याखिलेश्वरि।
एवमेव त्वया कार्यमस्मद्दैरिविनाशनम्।।
(अर्थात-नारायणी! तुम सब प्रकार का मंगल प्रदान करनेवाली मंगलमया हो. कल्याणदायिनी शिवा हो. सब पुरुषार्थो को सिद्घ करनेवाली, शरणागतवत्सला, तीन नेत्रों वाली एवं गौरी हो. तुम्हें नमस्कार है.
शरण में आये दीनों एवं पीड़ितों की रक्षा में संलगA रहनेवाली तथा सबकी पीड़ा दूर करनेवाली नारायणी देवि! तुम्हें नमस्कार है. सर्वस्वरूपा, सर्वेश्वरी तथा सब प्रकार की शक्तियों से संपन्न दिव्यरूपा दुर्गे देवि! सब भयों से हमारी रक्षा करो. तुम्हें नमस्कार है.
देवि! तुम प्रसन्न होने पर सब रोगों को नष्ट कर देती हो और कुपित होने पर मनोवांछित सभी कामनाओं का नाश कर देती हो. जो लोग तुम्हारी शरण में जा चुके हैं, उनपर विपति तो आती ही नहीं. तुम्हारे शरण में गये मनुष्य दूसरों को शरण देनेवाले हो जाते हैं. सर्वेश्वरी! तुम इसी प्रकार तीनों लोकों की समस्त बाधाओं को शांत करो और हमारे शत्रुओं का नाश करती रहो.)
यह कैसी रीति, कैसी प्रीति : इस तरह शक्ति से अभिप्राय आध्यात्मिक शक्ति अथवा ज्ञान, योग तथा पवित्रता की शक्ति है न कि माया की शक्ति या हिंसा करने की शक्ति. परंतु आज भक्त लोग समझते हैं कि काली या दुर्गा में शत्रुओं के अथवा असुरों का संहार करने की शक्ति था.
परंतु आज इन रहस्यों की ओर ध्यान देने की बजाए लोग नवरात्रि के अवसर पर दुर्गा, सरस्वती, काली आदि देवियों की प्रतिमा बनाते हैं, उन्हें वस्त्रों तथा आभूषणों से सजाते हैं और भोग लगाते हैं और अंत में पूजा इत्यादि करके उन्हें जल प्रवाहित कर देते हैं. मानो कि वे शक्तियों की भी स्थापना, पालना और अंत कर देते हैं! यह कितनी गलत रीति और भला कैसी प्रीति है?
दुर्गा सप्तशती में लिखा है कि पूर्व काल में शुंभ और निशुंभ नामक असुरों ने जब इंद्र से तीनों लोकों का राज्य छीन लिया था तो देवताओं ने हिमालय पर जाकर भगवान की स्तुति की.
उस समय पार्वती जी के शरीर केश से एक देवी प्रकट हुई, जिनका नाम अंबिका देवी या शिवा देवी हुआ. इस देवी ने हूं किया तो असुरों की सेना का मुख्य असुर भस्म हो गया. असुरों की सेना को आते देखकर इन्हें क्रोध आया और इनका मुख काला पड़ गया और वहां से तुरंत विकराल मुखी काली देवी प्रकट हुई.
ऐसे वृत्तांत से क्या अनुभव होता है
उनकी जीभ लपलपाने वाली थी..वे सबका भक्षण करने लगीं..वे अंकुशधारी महावतों, योद्घाओं और घंटा-सहित कितने ही हाथियों तथा घोड़ों को एक ही हाथ से पकड़ कर मुंह में डाल लेतीं और चबा डालती..इन्होंने बहुत असुरों को मार डाला..क्या काली और अंबिका देवी का जो वृतांत दिया है, उसे जानकर शांति, आनंद, प्रेम आदि ईश्ववरीय गुणों का कोई अनुभव होता है? या फिर हिंसा, मार-काट, निर्दयता या कुल मिलाकर कहें अमर्यादित व्यवहार का दर्शन होता है.
देवियों के प्रहार से उसके शरीर से रक्त की जो बूंद पृथ्वी पर गिरती उससे एक असुर प्रकट हो जाता. फिर उस असुर से जो रक्त-बूंदें गिरती उनसे उतने ही असुर और प्रकट हो जाते. इस प्रकार उस महादैत्य के रक्त से संपूर्ण संसार असुरों से भर गय. यह देखकर चंडिका देवी ने काली से कहा-‘तुम अपना मुख और भी फैला लो और मेरे शस्त्र से गिरने वाले रक्त-बिंदुओं को तुम अपने उतावले मुख से खा लो.
इस प्रकार काली जी सभी असुरों से गिरने वाले रक्त को पी गयीं और रक्तबीज के जो रक्त-बिंदु काली जी के मुख में पड़े उनसे मुख में पैदा होने वाले असुरों को भी वह चट कर गयीं. ये बातें भ्रमात्मक और घृणा-उत्पादक मालूम होती हैं. आखिर देवियों के वास्तविक अस्त्र-शस्त्र कौन से थे? और वे कौन से अस्त्र हो सकते हैं, जो स्वर्ग के द्वार खोल सकें.

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