दीपक सवाल, कसमार, पेटरवार प्रखंड के बुंडू में राष्ट्रीय उच्च पथ-23 की दोनों ओर फैला एक जंगल है, जिसे लोग बरसों से लगभग एक ही रूप में देखते आ रहे हैं. यह जंगल अपने आप में अनोखा है. यहां केवल सखुआ के लंबे, सीधे तने खड़े, दशकों पुराने वृक्षों की कतारें हैं. इन विशाल पेड़ों का सौंदर्य और उनकी भव्यता जहां राहगीरों का मन मोह लेती है, वहीं वन विभाग के जानकार इसे एक विशेष श्रेणी के जंगल के रूप में देखते हैं. उनके अनुसार, किसी जंगल में यदि नये पेड़-पौधों की बढ़वार रुक जाये, नीचे का प्राकृतिक पुनर्जनन बंद हो जाये और केवल पुराने पेड़ ही बचे रह जायें, तो उसे बोलचाल की भाषा में ‘बूढ़ा जंगल’ कहा जा सकता है. यह वही स्थिति है, जिसमें जंगल धीरे-धीरे अपनी जैव विविधता खोने लगता है और भविष्य में पूर्णतः विलुप्त होने के खतरे में आ जाता है. बुंडू के इस जंगल की यही स्थिति है. बोकारो के पूर्व डीएफओ व भारतीय वन सेवा के सेवानिवृत्त अधिकारी कुमार मनीष अरविंद ने इस जंगल को पुनर्जीवित करने के लिए लगभग तीन वर्षों तक विभिन्न तकनीकी हस्तक्षेप किये, परंतु कोई उल्लेखनीय बदलाव संभव नहीं हो सका. इसी आधार पर उन्होंने इसे ‘बूढ़ा जंगल’ की संज्ञा दी थी. उनका आकलन था कि इस क्षेत्र में प्राकृतिक पुनर्जनन लगभग ठप हो चुका है. ऊंचे और सघन सखुआ पेड़ों की गहरी छाया जमीन तक सूर्य का प्रकाश पहुंचने नहीं देती है, जिस कारण नीचे नये वनस्पतियों का विकास रुक गया है. मिट्टी का पोषण-चक्र टूट चुका है और बीजों के अंकुरण व बढ़वार की प्राकृतिक प्रक्रिया भी लगभग समाप्त हो चुकी है.
क्यों कहा जाता है ‘बूढ़ा जंगल’
इस जंगल में कदम रखते ही एक बात तुरंत महसूस होती है- जमीन पर न तो छोटे पौधे हैं, न झाड़–झंखाड़, न कहीं उभरती हरियाली. कारण स्पष्ट है. दशकों पुराने सखुआ की घनी छाया ने सूर्य के प्रकाश को धरातल तक पहुंचने से रोक रखा है. जब मिट्टी तक धूप नहीं पहुंचती है, तो प्राकृतिक पुनर्जनन रुक जाता है. साथ ही, सखुआ की पत्तियों से मिट्टी का पीएच क्षारीय हो जाना, सड़क किनारे के शोर-धूल और मानव गतिविधियों से बढ़ता पर्यावरणीय दबाव, वन्यजीवों की कमी (जो बीज फैलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं), इन सबने मिलकर जंगल को स्थिर, लगभग जड़ अवस्था में पहुंचा दिया है. कई स्थानीय लोग बताते हैं कि जबसे याद है, इन पेड़ों का रूप यही है. न कोई पौधा उगा, न जंगल का फैलाव बदला. जंगल तभी जीवित रहता है, जब उसकी अगली पीढ़ी लगातार जन्म लेती रहे. यहां वह शृंखला लगभग टूट चुकी है.
आकर्षण भी, चेतावनी भी
यह वन एक ओर यात्रियों के लिए आकर्षण का केंद्र है. लोग यहां रुककर फोटो लेते हैं, कई एलबमों की शूटिंग भी हुई है. पेड़ों की सुव्यवस्थित कतारें इसे प्राकृतिक फोटो स्टूडियो जैसा बनाती हैं. दूसरी ओर, पर्यावरणीय दृष्टि से यह वन एक चेतावनी है. सुंदर, शांत, पर अंदर से समाप्तप्राय. यदि वैज्ञानिक पद्धतियों से मिट्टी सुधार, जल-नियोजन, प्राकृतिक पुनर्जनन, और सहायक वृक्ष प्रजातियों का रोपण प्रारंभ किया जाये, तो यह जंगल फिर से जीवंत हो सकता है. वन विभाग चाहे तो इसे इको-टूरिज्म स्पॉट के रूप में विकसित कर सकता है, जिससे क्षेत्र की पहचान भी बढ़ेगी और संरक्षण भी होगा.
बोले अधिकारी
पूर्व मुख्य वन संरक्षक मनीष अरविंद ने कहा कि जंगल के भीतर कोई ग्रोथ नहीं है. नयी पौध का रिक्रूटमेंट नहीं हो रहा. इसकी सहायक प्रजातियां भी लुप्तप्राय हैं. आगे चलकर पेड़ बूढ़े होंगे, गिरेंगे और जंगल नकारात्मक वृद्धि की स्थिति में पहुंच जायेगा. यह दशा किसी भी प्राकृतिक वन के लिए संकट का संकेत होती है, क्योंकि नये वृक्ष न उग पाने पर जंगल धीरे-धीरे अपनी निरंतरता और जीवंतता खो देता है. हालांकि यदि वैज्ञानिक, चरणबद्ध और संरचनात्मक संरक्षण कार्य किये जायें, तो इस जंगल को फिर से जीवन दिया जा सकता है और इसमें नयी हरियाली लौटायी जा सकती है.
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