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माहवारी शुरू यानी ”बेटी बड़ी हो गयी”

-रजनीश आनंद- घोड़ा बांधा, पश्चिमी सिंहभूम जिले का एक छोटा गांव. यह गांव घोड़ाबांधा पंचायत के मझिगांव प्रखंड में स्थित है. जिला मुख्यालय चाईबासा से लगभग 59 किलोमीटर और राजधानी रांची से 176 किलोमीटर दूर स्थित है घोड़ाबांधा गांव. चाईबासा से बस पर सवार होकर जब मैं गांव की ओर निकली तो रास्ते में सखुआ […]

-रजनीश आनंद-

घोड़ा बांधा, पश्चिमी सिंहभूम जिले का एक छोटा गांव. यह गांव घोड़ाबांधा पंचायत के मझिगांव प्रखंड में स्थित है. जिला मुख्यालय चाईबासा से लगभग 59 किलोमीटर और राजधानी रांची से 176 किलोमीटर दूर स्थित है घोड़ाबांधा गांव. चाईबासा से बस पर सवार होकर जब मैं गांव की ओर निकली तो रास्ते में सखुआ के जंगल मिले. झारखंड और ओडिशा राज्य की सीमा पर यह गांव स्थित है. ओडिशा का मयूरभंज जिला प्रखंड की सीमा से सटा है. मुख्य सड़क से उतरकर गांव की ओर जाने पर एक तालाब के किनारे आठ-दस लड़कियां और महिलाएं नहाती मिलीं. मेरे जोहार कहकर अभिवादन करने पर उन्होंने भी हाथ जोड़कर मेरा अभिवादन किया.

मेरे बाहरी होने का आभास उन्हें हो गया था. मैंने उन्हें बताया कि मैं महिलाओं के स्वास्थ्य संबंधित विषयों पर शोध कर रही हूं. उनमें से दो-चार लड़कियां ही मेरी बात को समझ पायीं, जिन्होंने स्कूल जाकर पढ़ाई की है. उन्होंने बाकी महिलाओं को मेरी बात समझायी. उन लड़कियों में से एक ललिता हेम्ब्ररोम उम्र लगभग 30 वर्ष ने बताया कि गांव के लोग हिंदी समझ लेते हैं, लेकिन यहां हो भाषा बोली जाती है. ललिता से मैंने गांव के बारे में जानकारी लेनी चाही, तो उसने बताया, यह आदिवासी बहुल गांव है, जहां हो जनजाति के लोग ज्यादा हैं. साथ ही गोप, तांती और कुम्हार जाति के लोग भी गांव में रहते हैं. गांव में पांच टोलियां परूमसई, कुम्हार, मुंदरसई, बाईती, और उलीसई टोलियां हैं. घोड़ाबांधा गांव में बहुसंख्यक जनजातीय आबादी है, बावजूद इसके यहां ईसाइयत का प्रभाव नहीं है. ज्यादार लोग सरना धर्मावलंबी हैं. पश्चिमी सिंहभूम जिले में प्रति एक हजार पुरूषों पर महिलाओं की संख्या 1004 है. 2011 की जनगणना के अनुसार गांव की कुल आबादी 1807 है. जिसमें पुरूषों की संख्या 871 और महिलाओं की संख्या 936 है.

तालाब पर मिली महिलाओं से मैंने कुछ देर तक इधर-उधर की बातें की, तब मैंने उनसे माहवारी के दौरान उनके आचार-विचार के बारे में पूछा? मेरे सवाल पर महिलाएं सहम गयीं. ऐसा प्रतीत हुआ, जैसे मैंने किसी ऐसी बात की चर्चा कर दी हो, जिसपर बात नहीं होनी चाहिए. उनसे निकटता जताने के लिए मैंने अपनी समस्याएं उनसे शेयर करने की कोशिश की, तब जाकर उन्होंने बताया कि गांव में सभी महिलाएं माहवारी के दौरान कपड़े का इस्तेमाल करती हैं. माहवारी के दौरान साफ-सफाई के बारे में पूछने पर उनमें से एक शंकुतला हेम्ब्ररोम उम्र 32 साल ने बताया, हम सब सूती कपड़े का प्रयोग करती हैं. वह आरामदायक होता है और सोखता भी ज्यादा है. उसे धोकर इस्तेमाल करना भी सहज होता है.
कपड़े को धोकर इस्तेमाल करने के दौरान गांव की महिलाएं अपने दृष्टिकोण से तो साफ-सफाई का ध्यान रखती हैं, लेकिन सच्चाई क्या है, इससे आप भी रूबरू हों. चूंकि गांव में किसी भी घर में शौचालय और स्नानागार की सुविधा नहीं है, इसलिए महिलाएं स्नान के लिए तालाब पर जाती हैं. वहीं चट्टान आदि पर महिलाएं माहवारी के दौरान इस्तेमाल किये जाने वाले कपड़े को धोती हैं. जो लोग गांव में थोड़े सक्षम हैं, वे तो कपड़े को धोने के लिए साबुन का इस्तेमाल करती हैं, लेकिन बीपीएल परिवार की महिलाएं कई बार साबुन का भी उपयोग नहीं कर पाती हैं.

तालाब पर कपड़े को धोने के बाद वे वहीं जमीन पर कपड़े को सूखने के लिए डाल देती हैं. अगर नहाते तक कपड़े सूख गये तो ठीक, अन्यथा महिलाएं कपड़ों को घर लाकर उसे घर के आसपास साड़ी या फिर अन्य किसी कपड़े के नीचे सूखने के लिए डाल देती हैं. ऐसे में कपड़े पर सीधे सूर्य की रोशनी नहीं पड़ती है और कपड़े में संक्रमण की आशंका रहती है. लेकिन महिलाएं अपने स्वास्थ्य के प्रति यह लापरवाही लज्जा और संकोच के कारण करती हैं. साथ ही अंधविश्वास के कारण भी माहवारी के दौरान महिलाएं कई तरह की परेशानियों से रूबरू होती हैं. माहवारी के दौरान इस्तेमाल किये जाने वाले कपड़े को छुपाकर रखना महिलाओं की मजबूरी है.

सीता देवी, 28 वर्ष बताती हैं कि गरमी के मौसम में माहवारी के कपड़ों को धोना बड़ी परेशानी का सबब बन जाता है. इसका कारण यह है कि गरमी में तालाब सूख जाते हैं. उस वक्त महिलाओं को कुंओं पर जाकर जाकर कपड़ा धोना पड़ता है. गांव में कुंओं की संख्या काफी कम है. इसलिए महिलाएं घर पर पानी लाकर भी माहवारी के कपड़ों को धोती हैं और बारी में ही सुखाती हैं.
40 वर्षीय सुकुरमनी देवी ने बताया कि उन्हें लगभग 12 वर्ष की उम्र में पहली बार माहवारी हुई थी. उस वक्त घर में मां ने उन्हें बताया था कि माहवारी होने का मतलब है कि अब वह बड़ी हो गयी. साथ ही मां ने उन्हें कपड़ा लेने और साफ-सफाई के बारे में भी बताया. हालांकि गांव में आज भी महिलाएं सेनेटरी नैपकिन का इस्तेमाल नहीं करती हैं. समाज में व्याप्त अंधविश्वास और भ्रांतियां उन्हें माहवारी के दौरान साफ-सफाई बरतने से रोकते हैं, परिणाम यह होता है कि महिलाएं मानसिक और शारीरिक परेशानियों को झेलती हैं.
(यह आलेख आईएम4चेंज, इंक्लूसिव मीडिया यूएनडीपी फेलोशिप के तहत प्रकाशित है)
Prabhat Khabar Digital Desk
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