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गुम हो रहा थानों का गुप्तचर तंत्र

छपरा(सारण) : पुलिसिंग में एक शब्द चलता है ‘मैनुअल’. इसका व्यावहारिक अर्थ वह है जिसने दशकों तक चोर-पुलिस के खेल में पुलिस को फ्रंट-फुट पर रखा. मगर कंप्यूटर और तमाम आधुनिक उपकरणों के साथ ‘अपडेट’ होती पुलिस के इस हथियार पर अब जंग सी लग गयी है. जी हां, बात हो रही रही है किसी […]

छपरा(सारण) : पुलिसिंग में एक शब्द चलता है ‘मैनुअल’. इसका व्यावहारिक अर्थ वह है जिसने दशकों तक चोर-पुलिस के खेल में पुलिस को फ्रंट-फुट पर रखा. मगर कंप्यूटर और तमाम आधुनिक उपकरणों के साथ ‘अपडेट’ होती पुलिस के इस हथियार पर अब जंग सी लग गयी है. जी हां, बात हो रही रही है किसी जमाने में पुलिस के अचूक हथियार रहे मुखबिर तंत्र की. पौराणिक राजाओं में जो जनप्रिय थे, उनकी विशेषता थी कि उनका पूरा गुप्तचर तंत्र हुआ करता था.

समय-समय पर राजा इन्हीं की तर्ज पर वेश बदल कर जनता के बीच घूमा करते थे, ताकि उनकी तकलीफे जान सकें. चोर पुलिस के खेल में तमाम तेज-तर्रार पुलिस वालों के लिए यह एक जरूरी सबक था कि वो अपना मुखबिर नेटवर्क खड़ा करें. एक समय था जब मुखबिर ही पुलिसिया सूचना तंत्र की जान हुआ करते थे. नेताओं से अधिक मुखबिरों की चलती थी.

इनकी खताएं भी दारोगा जी माफ कर देते थे. लेकिन हाइटेक होती पुलिस और अपराधियों के नये ट्रेंड के इस दौर में अब मुखबिर बीते दिनों की बात हो गये हैं. कारण भी साफ है. अब ऐसे दारोगा भी कम मिल रहे हैं, जो इन्हें पालते हो. ऐसे में इनकी तादात घटना लाजिमी है.

सर्विलांस के जरिये मिल रही है सफलता : अधिकतर मामलों में पुलिस को सर्विलांस के जरिये ही सफलता मिल रही है. फिर भी पुलिस पदाधिकारी यह मानते हैं कि सर्विलांस के बाद भी मुखबिरों की जरूरत पड़ती है. करीब डेढ़ दशक पहले तक मुखबिर पुलिस के सूचना तंत्र की जान हुआ करते थे. दारोगा की गोपनीय डायरी में मुखबिरों का नाम दर्ज रहता था. सरकारी स्तर पर मुखबिरों पर व्यय करने के लिए धनराशि आती थी. जिस घटना में पुलिस हाथ पांव मार कर थक जाती थी, मुखबिर ही नैया पार लगाते थे. लेकिन अब ऐसा नहीं है. लोगों ने कहा एक दर्जन से अधिक ऐसे सफल दारोगा इस जिले में आये, जो मुखबिरों के बल पर अपराध पर अंकुश लगाने व मामलों के पर्दाफाश में सफल रहे. पुलिस पदाधिकारियों का कहना है कि पहले के दौर में अपराध की स्थिति कुछ और होती थी. अब अपराधियों ने ट्रेंड बदल दिया है. अपराध में नये चेहरों का प्रवेश, क्राइम रिकॉर्ड न होने से पहचान में दिक्कत, दूसरे जिले में जाकर अपराध करने से पुलिस की मुश्किलें बढ़ी हैं. अधिकतर मामलों में सर्विलांस के जरिए ही पुलिस मामले का पर्दाफाश कर रही है. सच्चाई यह है कि मुखबिर अब मिल नहीं रहे हैं. अब पहले की तरह मुखबिरो को सुरक्षा भी नहीं मिल रही है. इस वजह से मुखबिरों की संख्या घटी है. जो गिने चुने हैं, उनसे आज भी पुलिस सहयोग लेती है. सर्विलांस ने मुखबिर की भूमिका को कम कर दिया है. हाइटेक युग में हर अपराधी मोबाइल रखता है.
अपराधी भी हो चुके हैं हाईटेक : बदलते समय के साथ अब अपराधी भी हाइटेक हो चले हैं, और नयी पीढ़ी के पढ़े-लिखे बदमाशों और अपराधियों से जो पुलिस के इलेक्ट्रॉनिक सिस्टम की बारीकी को समझते हैं और अब फोन के स्थान पर सोशल मीडिया ऐप का प्रयोग कर पुलिस को छका रहे हैं. उनको पकडने में पुलिस को मशक्कत करनी पड़ रही है, इसलिए वर्तमान थानेदारों और पुलिस पदाधिकारियों की चिंता बढ़ गयी है.
क्यों हुआ मुखबिरों का मोहभंग : एक पुरानी कहावत है कि पुलिस से न दोस्ती अच्छी न दुश्मनी. इस बात को ही ध्यान में रखकर ही पिछले कई वर्षों से पुलिस का मुखबिर तंत्र बुरी तरह विलुप्त हो रहा है. इसकी वजह साफ है कि पुलिस अगर किसी अपराध को खोल पाने में नाकाम होती है, तो इसका ठीकरा थाने के मुखबिर पर फोड़ कर उसे ही जेल भेज देती है.
पर्याप्त सुरक्षा की कमी भी एक कारण बनी है. इस तरह की घटनाओं ने भी मुखबिरों का मनोबल तोड़ने का काम किया है.
क्या कहते हैं अधिकारी
अपराध और अपराधियों का ट्रेंड बदल गया है. अपराधी भी हाइटेक हो गये हैं. संचार माध्यमों तथा आवागमन के साधनों की उपलब्धता के कारण अपराध अनुसंधान में आइटी सेल का महत्व बढ़ा है और मुखबिरों की भूमिका में कोई कमी नहीं आयी है. पुलिस आज भी मुखबिरों का सहयोग ले रही है.
सत्यनारायण कुमार, अपर पुलिस अधीक्षक, सारण

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