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रंगमंच का जादू ऐसी चीज है जिसे हमें हमेशा संजोकर रखना चाहिए : कुंदन वर्मा

विश्व रंगमंच दिवस कला के महत्व का जश्न मनाने का दिन है. ऐसा करने के लिए, पिछले छह दशकों से हर वर्ष 27 मार्च को एक थीम का पालन किया जाता है.

विश्व रंगमंच दिवस आज पर विशेष प्रतिनिधि, सहरसा विश्व रंगमंच दिवस कला के महत्व का जश्न मनाने का दिन है. ऐसा करने के लिए, पिछले छह दशकों से हर वर्ष 27 मार्च को एक थीम का पालन किया जाता है. विश्व रंगमंच दिवस का इस वर्ष का थीम रंगमंच और शांति की संस्कृति है. अंतरराष्ट्रीय रंगमंच संस्थान हर साल विश्व रंगमंच दिवस के लिए कोई विशेष थीम निर्धारित नहीं करता है. यह थीम कहानी कहने एवं प्रदर्शन की शक्ति के माध्यम से शांति एवं समझ को बढ़ावा देने में रंगमंच की भूमिका पर प्रकाश डालती है. विश्व रंगमंच दिवस की शुरुआत 1961 में अंतरराष्ट्रीय रंगमंच संस्थान द्वारा की गयी थी. यह आईटीआई केंद्रों एवं अंतरराष्ट्रीय रंगमंच समुदाय द्वारा प्रतिवर्ष 27 मार्च को मनाया जाता है. इस अवसर पर विभिन्न राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय रंगमंच कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं. इस अवसर पर शशि सरोजिनी रंगमंच सेवा संस्थान, सहरसा के नाट्य प्रशिक्षक, राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित फिल्म समानांतर के प्रोडक्शन नियंत्रक एवं वस्त्र डिजाइनर अभिनेता सह नाट्य निर्देशक कुंदन वर्मा ने कहा कि रंगमंच मनोरंजन का साधन मात्र नहीं है. बल्कि यह लोगों तक अपनी बात पहुंचाने का भी बेहतरीन जरिया है. नाटक सिर्फ एक कला नहीं है. यह दुनिया को गहराई से एवं ज़्यादा सार्थक तरीक़े से अनुभव करने व समझने का एक तरीका है. हमारे पास मनोरंजन के चाहे कितने भी विकल्प हों, लेकिन रंगमंच का जादू ऐसी चीज है जिसे हमें हमेशा संजोकर रखना चाहिए. रंगमंच एक अनूठा अनुभव प्रदान करता है जो हमें सिखाता है, प्रेरित करता है, एवं एक-दूसरे के करीब लाता है. रंगमंच हमारी संस्कृति को आकार देता है. हमारे जीवन को समृद्ध बनाता है एवं साझा कहानियों के माध्यम से शांति को बढ़ावा देता है. उन्होंने कहा कि भारतीय रंगमंच के तीन प्रकार विकसित हुए. शास्त्रीय काल, पारंपरिक काल एवं आधुनिक काल. हिंदी रंगमंच से अभिप्राय हिंदी एवं उसकी बोलियों के रंगमंच से है. हिन्दी रंगमंच की जड़ें रामलीला एवं रासलीला से आरंभ होती है. हिंदी रंगमंच संस्कृत नाटक, लोक रंगमंच एवं पारसी रंगमंच की पृष्ठभूमि का आधार लेकर विकसित हुआ है. भरतमुनि ने नाट्यशास्त्र में नाट्य शब्द का प्रयोग केवल नाटक के रूप में नहीं करके व्यापक अर्थ में किया है. जिसके तहत रंगमंच, अभिनय, नृत्य, संगीत, रस, वेशभूषा, रंगशिल्प, दर्शक भी पक्ष आ जाते हैं. भारतेन्दु हरिश्चंद्र हिंदी रंगमंच के पुरोधा हैं. हिन्दी रंगमंच का मकसद है रंगमंच के कर्मियों के प्रति जागरूकता लाना एवं इस खास दिन पर उनके कृतित्व से जो प्रभाव पैदा हो रहा है या हो चुका है, उस पर चर्चा करना. लेकिन समय के पहिये में इनका दिन कभी ऐसा नहीं आया जिसमें यह खुद को समाज में सामाजिक, आर्थिक रूप से बेहतर स्तर पर रख सके. बात समाज के सरोकार की हो तो कई नाटक और इसे मंच पर उतारने वाले हुनरमंद कलाकार हैं, लेकिन वैसे कलाकार अब विरले मिलते हैं या हैं ही नहीं जिन्हें समाज में एक बेहतर ओहदे भी मिल सके. बिहार के लगभग सभी हिस्से विशेष कर मैं सहरसा में भी कोई नाटकीय मंच नहीं है. कला भवन है भी तो इसकी स्थिति बहुत अच्छी नहीं है. इसके कारण नाटकों के मंचन में भी काफी परेशानी का सामना करना पड़ता है. इस वजह से प्रस्तुति में परेशानी आती है. उन्होंनें रंगकर्मियों की आर्थिक स्थिति का जिक्र करते कहा कि कई नाट्य संस्थानों को समय पर अनुदान तक नहीं मिल पाता है. उन्हें इस काम से जुड़े रहने के लिए सपोर्ट भी नहीं मिल पाता है. रंगमंच मानव समुदाय के जीवन, संघर्ष एवं सौन्दर्यबोध की अभिव्यक्ति का आदिम कला-रूप है. यह पृथ्वी पर आखिरी मानव समूह के जीवित रहते मौजूद रहनेवाली कला-विधा है. यह जन मानस में उत्साह को बढ़ाते हुए अपने हुनर को जिंदा रखते हैं. कई कलाकार मुफलिसी में जी रहे हैं. आज रंगकर्मी बिना किसी समर्थन के अपने जुनून एवं रंगमंच के प्रति अपनी प्रतिबद्धता के कारण इस क्षेत्र में सक्रिय हैं. आज ज़रूरत है कि समाज एवं सरकार दोनों ही रंगकर्म को एक सम्मानित पेशा के रूप में मान्यता देते रंगकर्मियों को समर्थन देकर उसे और मजबूत बनाने की है. रंगमंच वह ताकतवर औजार है जो समाज को आईना दिखाने का हिम्मत रखता है. फोटो – सहरसा 15 – कुंदन वर्मा

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