चुनावी प्रचार अभियान के दौरान भषणों में गुम हो रहे हैं आम आदमी की जरूरतों के मुद्दे
राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप के इर्द-गिर्द सिमट कर रह गया है नेताजी का प्रचार अभियान
पूर्णिया. विधानसभा चुनाव को लेकर राजनीतिक दलों और उनके प्रत्याशियों के कदमताल तेज हो गये हैं. एक तरफ जहां शहर से गांव तक हर घर हर द्वार पर वे दस्तक देने लगे हैं वहीं दूसरी ओर उनकी प्रचार गाड़ियों का शोर भे तेज हो चुका है. चुनाव के इस प्रचार अभियान में कहीं विकास की बयार बहायी जा रही है कहीं बदलाव की जरुरत पर जोर दिया जा रहा है. अलबत्ता जनता अभी कन्फ्यूज दिख रही है. आम अवाम उनकी बातों को सुन और समझ भी रहा है पर यह समझ में नहीं आ रहा है कि भाषणों, बयानों, वायदों और आश्वासनों में वे मुद्दे कहां चले गये जो आम आदमी की जरुरत है. रोजमर्रे की जिन्दगी में जिन मुसीबतों का वे सामना करते आ रहे हैं वे मुद्दों में क्यों नहीं शामिल हैं.आम अवाम के बीच कन्फ्यूजन की यह स्थिति अकेले एक जगह की नहीं है. पूर्णिया जिले के सभी सातों विधानसभा क्षेत्रों में लोग दलों और उनके नेताओं की ओर सवालिया निगाहों से देख रहे हैं. किसान परेशान हैं कि वे बिहार के पूर्णिया जिले में जूट की फसल उपजाते हैं और उसका रेट बंगाल तय करता है जो इतना कम होता है कि लागत पर भी आफत हो जाती है. बुजुर्ग कहते हैं कि एक जमाने में पूर्णिया के पड़ोसी जिलों में जूट मिल की आधारशिला रखी गई थी जो कालांतर में जमींदोज हो गई. बंगाल का बर्चस्व जस का तस रह गया. किसान कहते हैं कि आज मक्का और मखाना का जमाना है पर इसका रेट बिचौलिये तय करते हैं. उनकी परेशानी यह है कि चुनाव दर चुनाव होते हैं, भाषणों-वायदों- आश्वासनों की श्रृंखला चलती है पर इन समस्याओं के निदान के लिए न तो कोई पहल होती है और न ही नेताजी इस पर बहुत कुछ बोलते हैं. लोगों का कहना है कि कोई विकास का दावा कर मेहनताना में वोट मांग रहा है तो कोई विकास के दावों को नकार कर बदलाव के लिए वोट मांग रहा है. उनकी तो कभी किसी ने नहीं सुनी.
चुनाव दर चुनाव हुए पर वहीं खड़ा रह गया आम आदमी
अमौर के रिजवान और सलीम कहते हैं कि बाढ़ और कटाव का मुद्दा उठाया और कहा कि वे लोग हर साल इसकी तबाही और फसल नुकसान का दर्द झेलते हैं. बायसी के मो. मंसूर और मो. नईम भी इसी मुद्दे पर संजीदा दिखते हैं. कहते हैं, यह हर साल की समस्या है जिससे आम आदमी जूझता है पर किसी चुनाव में इस पर बात करने के लिए कोई तैयार नहीं. इसी इलाके में श्रवण कुमार यादव पलायन का सवाल खड़ा करते हैं. इसके कारणों पर भी चर्चा होती है और लोग कहते हैं कि नेताजी बदलाव की बात कर रहे हैं. इस इलाके में तो कई-कई बार बदलाव हुआ पर आम आदमी वहीं का वहीं खड़ा है. कसबा में कसबा के मदरसा चौक पर कई लोग मिलते हैं जो शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार को लेकर निराश दिखते हैं. कसबा के रणधीर साह और बलवंत कहते हैं कि रोजगार के अभाव में काम कीतलाश में बाहर जाने की मजबूरी खत्म नहीं हुई. अजय साह कहते हैं कि यहां बरसात में कई मुहल्लों में जलजमाव की समस्या झेलनी पड़ती है.
प्रचार अभियान गुम हैं बुनियादी समस्याएं
गौरतलब है कि राजनीतिक दलों के साथ ही उनके तमाम नेता और कार्यकर्ता जोर-शोर से प्रचार अभियान में जुटे हैं. अपने-अपने हिसाब से चुनावी विमर्श भी कर रहे हैं और उनके आधार पर जनता से समर्थन मांग रहे हैं. भाषणों का दौर भी चल रहा है जिसमें एक तरफ पिछले कुछ सालों में विकास करने के दावे के साथ समर्थन मांगा जा रहा है तो दूसरी तरफ सत्ता में आने के बाद की योजनाओं पर फोकस करते हुए बदलाव पर जोर दिया जा रहा है और इसके साथ पूरा कार्यक्रम राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप के इर्द-गिर्द सिमट कर रह जाता है. आम आदमी परेशान है कि उनकी तमाम बुनियादी समस्याएं और रोजमर्रे की जरुरतें गौण दिखती हैं. जनता से जुड़े मुद्दों को कहीं कोई खास तवज्जो नहीं मिल रही. लोग कहते हैं कि जो लोग सत्ता में रहे वे इन मुद्दों पर कुछ बोलते नहीं और जो आना चाहते हैं वे यह बताने को तैयार नहीं कि जनहित के नजरिये से उनका क्या योगदान रहा है. दलों का चुनाव अभियान भले ही रेस हो गया है पर सुलझे-अनसुलझे इन सवालों के बीच जनता मूक दर्शक बनी सबकी सुन रही है.
.डिस्क्लेमर: यह प्रभात खबर समाचार पत्र की ऑटोमेटेड न्यूज फीड है. इसे प्रभात खबर डॉट कॉम की टीम ने संपादित नहीं किया है

