Jayaprakash Narayan Jail BreaK : आज 11 अक्टूबर को जेपी यानी जयप्रकाश नारायण की जयंती है.उनकी जयंती के अवसर पर जानते है उस कहानी के बारे में जब जयप्रकाश नारायण ने हजारीबाग जेल से फरार होकर एक साहसी कारनामा किया था.
8 नवंबर 1942, हजारीबाग सेंट्रल जेल. यहां बंद थे भारत छोड़ो आंदोलन के बड़े नेता—जयप्रकाश नारायण, शेरोमणि शर्मा, सूरज नारायण सिंह समेत कई क्रांतिकारी. अंग्रेज सरकार को लगा था कि इन नेताओं को कैद कर उसने आंदोलन की रीढ़ तोड़ दी है. लेकिन वह नहीं जानती थी कि जेल की दीवारें भी आजादी के जज्बें को कैद नहीं कर सकतीं.
उस रात 9 नेता फरार हुए—सिर्फ 56 धोतियों की मदद से. यह फरारी कोई आम भाग निकलना नहीं थी, बल्कि आजादी के आंदोलन में एक निर्णायक मोड़ थी. जंगलों और गांवों के रास्ते छिपते हुए ये नेता पटना पहुचे और भूमिगत आंदोलन को नई दिशा दी.
युद्ध, मतभेद और जेल का रास्ता
कहानी की शुरुआत 1939 से होती है. दुनिया पर दूसरा विश्वयुद्ध छा चुका था. ब्रिटेन ने भारत से कोई राय लिए बिना उसे भी युद्ध में झोंक दिया. इस पर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का रुख अस्पष्ट था. एक ओर गांधीजी और नेहरू मित्र राष्ट्रों की जीत चाहते थे, तो दूसरी ओर कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के नेता — जयप्रकाश नारायण, डॉ. लोहिया, आचार्य नरेंद्र देव जैसे लोग — इसे साम्राज्यवादी युद्ध मानकर खुलकर विरोध में खड़े हो गए. उनका कहना था — यही वह मौका है जब भारत को अंग्रेजों से आजादी के लिए निर्णायक संघर्ष छेड़ना चाहिए.
इसी विरोध के कारण फरवरी 1940 में जमशेदपुर में जयप्रकाश नारायण गिरफ्तार कर हजारीबाग जेल भेज दिए गए. नौ महीने बाद रिहा हुए तो फिर युद्ध-विरोधी गतिविधियों में जुट गए. दोबारा मुंबई में पकड़े गए और देवली कैंप जेल में भेजे गए, वे अन्य सोशलिस्ट और कम्युनिस्ट नेताओं के साथ नजरबंद रहे.

देवली जेल में ही उन्होंने अपनी पत्नी प्रभावती को गुप्त पत्रों का बंडल सौंपने की कोशिश की. प्रभावती गांधीजी की अनुयायी थीं. वह बंडल लेने में हिचकिचाईं. सीआईडी ने बंडल पकड़ लिया. उसमें ऐसे गोपनीय पत्र थे जिनमें कांग्रेस की “दुविधापूर्ण” नीति का कड़ा विरोध और कार्यकर्ताओं को भूमिगत होकर संघर्ष शुरू करने का आह्वान था. अंग्रेजों ने इन पत्रों को प्रकाशित कर दिया — उन्होंने सोशलिस्टों का संदेश पूरे देश में फैला दिया.
1942 तक आते-आते हालात गरमाए. गांधीजी ने अगस्त में “करेंगे या मरेंगे” के नारे के साथ भारत छोड़ो आंदोलन छेड़ दिया. 9 अगस्त की सुबह ही पूरे नेतृत्व को गिरफ्तार कर लिया गया. जयप्रकाश नारायण को भी हजारीबाग जेल भेजा गया. तत्कालीन स्थिति से वह बहुत बैचेन थे, उन्होंने निर्णय लिया कि किसी भी कीमत पर उनको जेल से बाहर जाकर इस संघर्ष का नेतृत्व कर उसे शक्ति प्रदान करनी चाहिए, मगर यह हो कैसे? जयप्रकाश नारायण का इरादा साफ था — “कैद में बैठकर नहीं, मैदान में उतरकर आजादी की लड़ाई लड़नी है.
दीवाली की रात की योजना
हजारीबाग जेल चारों ओर घने जंगलों से घिरी थी. जेल की दीवारें 17 से 22 फीट ऊँची थीं, ऊपर कंटीले तार. सुरक्षा में कोई ढिलाई नहीं थी. भागना लगभग नामुमकिन समझा जाता था. फिर भी जेपी और उनके पाँच विश्वसनीय साथियों — योगेंद्र शुक्ला, रामानंद मिश्र, सूरज नारायण सिंह, शालिग्राम और गुलाबचंद गुप्ता — ने फरारी की ठानी.
योजना पहले अक्टूबर में बनी थी, पर अमल नहीं हो सका. आखिरकार तय हुआ कि दीवाली की रात सबसे उपयुक्त रहेगी. अमावस्या का अंधेरा, पहरेदारों का त्यौहार का मूड और जेल के भीतर दीपों की रोशनी में थोड़ा सा ढीला अनुशासन — सब कुछ अनुकूल था.
9 नवंबर 1942 की रात 10 बजे छहों साथी जेल के आंगन में पहुंचे. टेबल को दीवार के पास रखा गया. योगेंद्र शुक्ला सबसे फुर्तीले थे — वे पहले दीवार पर चढ़े. गुलाबचंद शुक्ला की पीठ पर, सूरज नारायण उनके कंधों पर और इसी तरह एक मानवीय सीढ़ी बनाई गई. 56 धोतीयों से बनाई गई रस्सी दीवार के ऊपर फेंकी गई। एक-एक कर सभी ऊपर चढ़े और दूसरी ओर कूद गए.
जेपी के पैर में दीवार फांदते समय चोट लग गई. लहूलुहान पैर में साथियों ने धोती बांधी और उन्हें कंधों पर उठा लिया. जंगल की ओर सफर शुरू हुआ.

अंग्रेजों की बौखलाहट और इनाम
फरारी का पता जेल प्रशासन को तुरंत नहीं चला. जेल अधीक्षक छुट्टी पर थे, नए अधिकारी उसी दिन पहुंचे थे. गिनती सुबह हुई — तब जाकर हड़कंप मच गया. खबर जंगल की आग की तरह फैली. ब्रिटिश सरकार ने छहों को “जिंदा या मुर्दा” पकड़ने पर 10 हजार रुपये का इनाम घोषित किया — जो उस समय बहुत बड़ी रकम थी. दो सैन्य कंपनियों को जंगल में तलाश में लगाया गया. आदेश साफ था — “देखते ही गोली मार दो.”
लेकिन इन छहों ने घने जंगलों में रास्ते बदलते, भेष बदलते अंग्रेजों को चकमा दिया. 30 नवंबर की रात को वे हजारीबाग पार कर गया जिले के एक गांव पहुंचे. रास्ते में एक चट्टान के पास आराम किया — वही आज “जेपी रॉक” के नाम से जानी जाती है.
भूमिगत आंदोलन का नेता
फरार होने के बाद जेपी बनारस पहुंचे — आंदोलन का केंद्र. उनके साथी एक-एक कर अलग-अलग जगहों पर पकड़े गए, पर जेपी पुलिस की आँखों में धूल झोंकते रहे. उन्होंने अच्युत पटवर्धन, लोहिया, सुचेता कृपलानी, अरुणा आसफ अली जैसे भूमिगत नेताओं से संपर्क कर भारत छोड़ो आंदोलन को नई ऊर्जा दी.
उन्होंने भूमिगत कार्यकर्ताओं को पाँच खुले पत्र लिखे, जिनमें आंदोलन के रणनीतिक पहलुओं पर मार्गदर्शन दिया. नेपाल सीमा के पास छापामार दस्ते के लिए गुप्त प्रशिक्षण शिविर भी बनाया गया.
नेपाल सरकार के दबाव में उनको एक बार गिरफ्तार भी किया गया, लेकिन उनके साथियों ने रातों-रात हवालात तोड़कर उन्हें छुड़ा लिया. फिर जेपी दिल्ली, पंजाब, बंगाल होते हुए लगातार पुलिस से बचते रहे.
गिरफ्तारी और शाही किले की यातनाएं
18 सितंबर 1943 की रात वे फ्रंटियर मेल से लाहौर जा रहे थे. अमृतसर के बाद डिब्बे में तीन लोग चढ़े — एक अंग्रेज और दो सिख पुलिसकर्मी. उन्होंने जेपी को पकड़ लिया, हथकड़ियाँ डाल दीं. लाहौर के शाही किले में ले जाया गया, जहाँ 16 महीने रखा गया.
यह किला ब्रिटिश राज के सबसे खतरनाक बंदियों के लिए था. यहाँ उन्हें नींद से वंचित रखा गया, अकेले कोठरी में बंद किया गया, मानसिक-शारीरिक यातनाएं दी गईं. लेकिन,अंग्रेज उनसे कोई जानकारी न उगलवा सके.
6 महीने बाद उन्हें राममनोहर लोहिया सहित आगरा सेंट्रल जेल भेजा गया. वहीं ब्रिटिश पार्लियामेंटरी डेलिगेशन ने उनसे मुलाकात की और बाद में कैबिनेट मिशन ने भी उनसे विचार जाने.

लोकनायक बनते जेपी
11 अप्रैल 1946 को जेपी रिहा हुए. पटना स्टेशन पर हजारों लोगों ने उनका स्वागत किया. अब वे सिर्फ एक समाजवादी नेता नहीं थे — “अगस्त क्रांति के लोकनायक” बन चुके थे. 9 नवंबर 1942 की वह रात, जब छह साथियों ने 56 धोतियों से अंग्रेजी हुकूमत को धता बताया, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की अमर कहानियों में दर्ज हो चुकी थी.
2001 में हजारीबाग जेल का नाम बदलकर “जयप्रकाश नारायण केंद्रीय कारागार” रखा गया — उसी ऐतिहासिक फरारी की याद में.
इतिहास में दर्ज एक रोमांचक पन्ना
जयप्रकाश नारायण की हजारीबाग जेल से फरारी केवल एक साहसी कारनामा नहीं था — यह भारत छोड़ो आंदोलन की रीढ़ को मजबूती देने वाला कदम था. उन्होंने दिखाया कि आजादी की लड़ाई केवल भाषणों या प्रस्तावों से नहीं, बल्कि जोखिम उठाने और जमीनी नेतृत्व से लड़ी जाती है.
जेपी के जीवन की यह घटना बताती है — स्वतंत्रता आंदोलन केवल नेताओं की सभाओं का इतिहास नहीं है, बल्कि साहस, जिद और जनता के अदम्य हौसले का भी इतिहास है.

संदर्भ
स्वाधीनता संग्राम के सुनहरे प्रसंग, रूपनारायण, सस्तासाहित्य प्रकाशन नई दिल्ली
जयप्रकाश नारायण जनक्रांति के लोकनायक, डां रितेश्वर नाथ तिवारी
Dr Bimal Prasad , Sujata Prasad, The Dream of a Revolution

