विजय बहादुर
पटना : बिहार में इंटरमीडिएट केखराब रिजल्ट को लेकर लगता है, कोहराम सा आ गया है. मीडिया और सोशल मीडिया में नेताओं और शिक्षा व्यवस्था पर आरोप-प्रत्यारोप का दौर शुरू हो गया है, लेकिन जो बिहारसे हैं या बिहार को जानते हैं, उनके लिए यह कोई चौंकाने वाली बात नहीं होनी चाहिए. मुझे लगता है, इस वर्ष बिहार सरकार ने पिछले वर्षहुएटॉपर घोटाले और बच्चा राय प्रकरण के बादपरीक्षाकोबिल्कुल कदाचार मुक्त करनेके लिए ढेर सारे प्रशासनिकउपाय किये थे. जिसके कारण इस वर्ष रिजल्टमेंउतीर्णता का प्रतिशत कम हो गया. ऐसा बिल्कुल नहीं है कि इस वर्ष अचानक बिहार के शिक्षा स्तर में गिरावट आ गयीयारिजल्ट का प्रतिशत कम हो गया. वस्तुतः परीक्षा में कड़ाई करने का साहस दिखाने के लिए बिहार सरकार बधाई की पात्र है. क्योंकि जनभावना के लुभावने प्रचलित मापदंडों के खिलाफ जाना कोई आसान काम नहीं होता है. यूपी जैसे राज्य में एक मुख्यमंत्री की हार का बहुत बड़ा कारण परीक्षा में कड़ाई थी, जबकि दूसरे को जनसमर्थन सिर्फ इसलिए मिल गया कि उन्होंने आश्वासन दिया था की वो परीक्षा में नकल की छूट देंगे.
बिहार के लोगों की मेधा का लोहापूरादेश मानता है. आइआइटी ,सिविल सेवा की सबसे कठिन परीक्षा में बिहारी छात्रों ने अपनी मेधा का लोहा साल दर साल मनवाया है, लेकिन बिहार की शिक्षा व्यवस्था का स्याह पक्ष भी रहा है. ऐसा नहीं है की इसमें आज गिरावट हो गयी है.
मुझे संस्मरण है कि आज से 30-35 वर्ष पहले हालत इससे भी बदतर ही थे. हमलोग अविभाजित बिहार में दक्षिण बिहार (वर्तमान झारखंड) में रहते थे. दक्षिण बिहार में मिशनरी के बहुत सारे स्कूल और कॉलेज होने के कारण शिक्षा का स्तर बिहार के बाकी इलाकों से बहुत बेहतर था. हालांकि कुछअच्छे स्कूल -कॉलेज बिहार में भी थे. हमलोगों के बहुत सारे परिचित या कुछ मित्रों, जिनका घर बिहार में था, उनका बिहार जाकर परीक्षा देकर अच्छे नंबर लाना, परीक्षा में सेंटर पर किताब खोलकर लिखना, घर लाकर परीक्षा की कॉपी लिखना, परीक्षा में किसी दूसरे के द्वारा कॉपी लिखवा लेना या फिर परीक्षा होते ही दूसरे जिले में जाकर, जहां कॉपी जांचने के लिए जाती थी, वहां अभिभावक का नंबर बढ़वाने के लिए पहुंच जाना, बहुत ही साधारण सी बात थी.
मुझे आज भी एक घटना याद है, किसी काम से मैं अपने एक परिचित के यहां दानापुर गया था. मेरे परिचित की परीक्षा चल रही थी. मैंने देखा की वो नियत समय पर कॉलेज नहीं गया. मैंने पूछा की परीक्षा देने क्यों नहीं गये. परिचित बोला चले जायेंगे कोई हड़बड़ी नहीं है. कॉलेज के काउंटर से जाकर कॉपी और प्रश्नपत्र घर ले आयेंगे और फिर फिर दो -तीन दिन के अंदर जवाब लिखकर जमा कर देंगे. यह घटना मुझे लगता है, काफी है बताने के लिए की पहले भी स्तर कोई बेहतर नहीं थी.
बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्रा ,रामलखन यादव, जैसे न जाने कितने छोटे -बड़े राजनेताओं के नाम से सैकड़ों स्कूल और कॉलेज खोले गये और वहां उनके गांव, इलाके और स्वजातीय लोगों को शिक्षक,लेक्चरर से लेकरचपरासी तक बना दिया गया. रंंजीत डॉन का नाम तो अब भी सभी के स्मृति में होगा, जिसे पैसे और पैरवी के बल पर डॉक्टर बनाने की फैक्टरी ही कहा जाता था.
बिहार ही नहीं कमोबेश झारखंड और उत्तर प्रदेश में भी सरकारी शिक्षा व्यवस्था कोई बहुत बेहतर नहीं है. शिक्षक स्कूल जाकर पढ़ाना नहीं चाहते हैं. बहुतेरे शिक्षकों का स्तर भी कोई बहुत बेहतर नहीं है. कोई भी व्यक्ति जो आर्थिक रूप से सक्षम है, अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में नहीं डालना चाहता है. मेरा तो स्पष्ट मानना है की इस तरह की शिक्षा व्यवस्था में इससे बेहतर रिजल्ट की उम्मीद बेमानी है. सरकारी शिक्षा में सुधार सिर्फ सरकार केबस की बात नहीं है.
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