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एक मुकदमे की राम कहानी
अजय कुमार ajay.kumar@prabhatkhabar.in पटना : यह एक मुकदमे की राम कहानी है. यह मुकदमा 1997 में दायर हुआ था और उसके दो साल बाद सुनवाई के लिए एडमिट हुआ. जिरह और दलीलों के बाद इसकी सुनवाई 2010 में पूरी हो गयी. 2011 में फैसला आया. यानी चौदह साल बाद. पर फैसला लागू नहीं हुआ और […]
अजय कुमार
ajay.kumar@prabhatkhabar.in
पटना : यह एक मुकदमे की राम कहानी है. यह मुकदमा 1997 में दायर हुआ था और उसके दो साल बाद सुनवाई के लिए एडमिट हुआ. जिरह और दलीलों के बाद इसकी सुनवाई 2010 में पूरी हो गयी. 2011 में फैसला आया. यानी चौदह साल बाद. पर फैसला लागू नहीं हुआ और मामला पहले अपील फिर रिव्यू में चला गया.
अदालत ने 23 अप्रैल 2014 को पहले दिये अपने फैसले को वापस कर लिया. अब इस मुकदमे की दोबारा सुनवायी होगी. इस महीने की आठ तारीख को यह लिस्ट पर था. मगर सुनवाई नहीं हुई. दोबारा 10 मार्च को लिस्ट आया. लेकिन कुछ नहीं हो सका. इस तरह यह मुकदमा 19 साल पहले जिस हालत में था, अब वहीं पहुंच गया है. मतलब तारीख पर तारीख, तारीख पर तारीख का अंतहीन
सिलसिला. यह कहानी है राजभवन के उन दस कर्मचारियों की जो 19 नवंबर 1991 से शुरू हुए अराजपत्रित कर्मचारी महासंघ की अपील पर लाखों कर्मचारियों के साथ हड़ताल पर थे.
राजभवन के 73 कर्मचारी भी हड़ताल पर थे. 75 दिनों बाद जब हड़ताल टूटी तो सरकार के साथ हुए करार के मुताबिक हड़ताल अवधि को उपार्जित अवकाश के साथ एडजस्ट करते हुए उन्हें सैलरी भी दी जानी थी. पहले चरण में राजभवन के 42 कर्मचारियों को ज्वाइन करा लिया गया. कुछ ऐसे भी कर्मचारी थे जिन्हें राजभवन ने ज्वाइन कराने से मना कर दिया. तब सरकार ने ऐसे कर्मचारियों को दूसरे विभागों में रिअप्वाइंट कर लिया. जबकि इन दस कर्मियों को 8 मार्च 1996 को नौकरी से बरखास्त कर दिया गया.
मुकदमे की शुरुआत
जब चतुर्थ श्रेणी के दस कर्मचारी नौकरी से बरखास्त कर दिये गये, तोउन्होंने 1997 में हाइकोर्ट में मुकदमा दायर कर दिया. 28 अप्रैल 1999 को वह सुनवायी के लिए एडमिट हो गया. 13 सालों बाद मुकदमे की सुनवायी पूरी हो गयी.
पर फैसला सुरक्षित रख लिया गया. साल भर बाद 11 जुलाई 2011 को अदालत ने उन दस कर्मचारियों के हक में फैसला दिया. फैसले में अदालत ने कहा कि जो कर्मचारी रिटायर हो गये हैं, उन्हें तमाम सहूलियतें दी जायें. जिनकी उम्र नहीं खत्म हुई है, उन्हें नौकरी पर रखा जाये. लेकिन अदालत का फैसला जब लागू नहीं हुआ तो कर्मचारियों ने चार मार्च 2013 को अवमानना का मामला दर्ज कर दिया. उधर, राजभवन भी 2011 में दिये अदालत के आदेश के खिलाफ अपील में चला गया. अपील में कहा गया कि अदालत ने फैसला देते वक्त इस मामले से जुड़े कई तथ्यों की अनदेखी कर दी है.
मुकदमा लड़ने को पैसे नहीं
कर्मचारियों की घर-गृहस्थी जैसे-तैसे चल रही है. इस न्यायिक प्रक्रिया में कर्मचारियों की जिंदगी ही उलझ गयी है. उनके पास घर चलाने को पैसे नहीं हैं. वे मुकदमा कैसे लड़ेंगे? नौकरी की आस में बुजुर्ग हो चुके रामचंद्र राम कहते हैं: कई कर्मचारियों को माफीनामे के आधार पर नौकरी दे दी गयी.
पर हमें तो इसका मौका भी नहीं मिला. मोहम्मद हशीब और शिवनारायण पासवान शारीरिक तौर पर लाचार हो चुके हैं. कमलेश्वर प्रसाद वर्मा नौकरी जाने के बाद से ही ट्यूशन करने लगे. किसी तरह अपने बच्चे को पढ़ाया. उनका बेटा दिल्ली में एक बैंक में पीओ है. रामचंद्र राम, राजेंद्र महतो, संतलाल मंडल, वकील पंडित पटना में माली का काम करते हैं जबकि चंदर मंडल भागलपुर चले गये.
8 व 10 मार्च को लिस्ट पर आया, नहीं हुई सुनवाई
ज्वाइन करने के इंतजार में चल बसे दो कर्मचारी
नौकरी ज्वाइन करने के इंतजार में दस में से दो कर्मचारी गुजर चुके हैं. इनमें श्याम मंडल 10 जनवरी 2013 को और चुन्नू सोरेन उसी साल 18 अगस्त को दुनिया से विदा हो गये. अब जो आठ कर्मचारी बचे हैं, वे हैं- कमलेश्वर प्रसाद वर्मा, मोहम्मद हशीब, रामचंद्र राम, राजेंद्र महतो, संतलाल मंडल, शिवनारायण पासवान, वकील पंडित और चंदर मंडल.
फैसला हुआ वापस
राजभवन की एलपीए पर हुई सुनवायी के बाद अदालत ने 29 अगस्त, 2013 को मामले को रिव्यू में ले जाने को कहा. उसी साल राजभवन ने रिव्यू पिटिशन फाइल कर दिया. 23 अप्रैल 2014 को कोर्ट ने अपने पहले के फैसले को वापस कर लिया. अब इस मुकदमे की नये सिरे से सुनवाई होगी.
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