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गुजरात प्रकरण : निशाना क्यों बनते हैं बिहारी, हर नागरिक को देश के किसी भी कोने में काम करने का है अधिकार

डॉ डीएम दिवाकर हमले की बजाय मिलकर ढूंढ़ें बेराेजगारी का हल अर्थशास्त्री एवं पूर्व निदेशक, एएन सिन्हा इंस्टीट्यूट यह बहुत ही चिंता की बात है कि हाल में गुजरात में बिहारियों के साथ अमानवीय व्यवहार होने की खबरें आ रही हैं. इसके पहले भी तमिलनाडु, महाराष्ट्र, असम आदि राज्यों से इस तरह की खबरें आती […]

डॉ डीएम दिवाकर
हमले की बजाय मिलकर ढूंढ़ें बेराेजगारी का हल
अर्थशास्त्री एवं पूर्व निदेशक, एएन सिन्हा इंस्टीट्यूट
यह बहुत ही चिंता की बात है कि हाल में गुजरात में बिहारियों के साथ अमानवीय व्यवहार होने की खबरें आ रही हैं. इसके पहले भी तमिलनाडु, महाराष्ट्र, असम आदि राज्यों से इस तरह की खबरें आती रही हैं. बिहार के श्रमिक भारत के किसी भी शहर में मिलेंगे, जो अपने परिश्रम से अपनी पहचान बनाते हैं और उन पहचानों के बल पर देश में भरोसा हासिल करते हैं कि वे किसी से अधिक मेहनती हैं और राष्ट्र के विकास में अपना भरपूर योगदान देते हैं. बड़े दुख की बात है कि कुछ अापराधिक घटनाओं को मिसाल बनाते हुए सामान्य नागरिकों पर हमले का दौर चल पड़ा है.
पहले मीटबंदी के नाम पर, गोरक्षा के नाम पर, मॉब लिंचिंग, मोरल पुलिसिंग आदि अनेक घटनाएं इस बात का पुख्ता प्रमाण हैं कि राज्यसत्ता से अलग एक असंवैधानिक सत्ता देश के विभिन्न भागों में उभर रही है और उन्हें प्रकारांतर से सत्ता का समर्थन प्राप्त है. आपातकाल में देश के सामान्य नागरिकों ने अनेक प्रताड़नाएं झेलीं, लेकिन फर्क यह था कि राज्यसत्ता से बाहर कोई असंवैधानिक सत्ता इन प्रताड़नाओं में शामिल नहीं थी. आज कहीं हमारे मंत्री मॉब लिंचर को माला पहना कर सम्मानित करते हैं, तो कहीं तथाकथित गोरक्षक आम नागरिकों की जीविका और जीवन पर हमला करते हैं.
कानून, संविधान और राज्यसत्ता कितनी दुर्बल हो गयी है कि यदा-कदा माननीय उच्चतम न्यायालय को हस्तक्षेप करना पड़ता है. लेकिन, इस फौरी घटनाक्रम को थोड़ी गहराई में भी समझने की आवश्यकता है. आज देश की हालात ऐसी है कि नोटबंदी और जीएसटी के कारण छोटे कारोबार नष्ट हो गये, कमजोर हो गये हैं. बिहार में 2011-12 से 2016-17 के बीच कृषि और संबद्ध क्षेत्रों की विकास दर बाढ़ और सुखाढ़ के बीच घट रही है.
सरकारी आंकड़ों के हिसाब से विकास दर -1.7 है. फलत: बिहार के आम नागरिक जो खेती पर निर्भर हैं, उन्हें अन्य राज्यों में रोजगार तलाशने के अलावा कोई उपाय नहीं दिखता है. देश में रोजगार की स्थिति भी निराशाजनक है. इसलिए हर प्रांत के स्थानीय नागरिकों को भी लगता है कि बाहर से आये हुए सामान्य मजदूर हमारी हकमारी कर रहे हैं.
राजनेताओं को रोजगार के अवसर कम होने के नीतिगत कारणों की समीक्षा करने की बजाय भावनात्मक बयानों के जरिये उन्हें बुनियादी मुद्दों से भटकाने की लगातार कोशिशें चलती रही हैं. फलत: एक अघोषित नागरिक युद्ध की ओर समाज को धकेलने की कोशिश हो रही है. समय रहते इस पर गंभीरता से विचार करना चाहिए कि रोजगार के अवसर बढ़ाये जाएं, जिससे कि लोगों में भरोसा हो कि हमारी सरकार, हमारी जीविका और रोजगार के लिए चिंतित है.
अत: हताशा में एक-दूसरे पर हमला करने की बजाय मिलजुल कर बेरोजगारी का समाधान ढूंढ़ा जाये. कहने की आवश्यकता नहीं है कि देश में प्रत्येक नागरिक को देश के किसी भी कोने में जाकर प्रतिष्ठापूर्वक जीविका और मेहनत करने का संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकार प्राप्त है. ऐसे में राज्यसत्ता में बैठे हुए जनप्रतिनिधियों, नौकरशाहों और सचेत नागरिकों की यह जिम्मेदारी बनती है कि प्रभावी हस्तक्षेप से बहुसंस्कृति वाले इस देश में सार्थक लोकतंत्र की स्थापना के लिए मजबूत पहल हो.
इस वर्ष हमलोग महात्मा गांधी की 150वीं जयंती मना रहे हैं. गांधी ने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि यदि सामाजिक सद्भाव हिंदुस्तान में नहीं बन पाया तो वैसे देश में वह जीना नहीं चाहेंगे. अत: हमें राष्ट्रपिता के संदेशों के साथ देश में अमन-चैन और भाईचारे के साथ सार्थक लोकतंत्र की स्थापना के लिए पहल करनी चाहिए.

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