आशुतोष कुमार पांडेय @ पटना
पटना : वर्तमान समय में दीपों के पर्व दीपावली पर मिट्टी के दिये का दर्द कुछ ऐसा है जिसे जानकर आप चौंक जायेंगे. लकड़ी की बनी चाक पर मिट्टी के गौंदे को अपने हाथों से दिये का आकार देते मुजफ्फरपुर के पप्पू पंडित अपने काम में ऐसे लीन दिखे, मानोंवहदीपक नहीं अपने भाग्य की तस्वीर बना रहे हों. हर साल की भांति इस साल भी पप्पू पंडित की उंगलियां मिट्टी पर नाच रही हैं, साथ ही दिख रहा है उनके चेहरे पर चाइनामें बने झालरों का खौफ. दिये बनाते पप्पू मन ही मन यह सोच रहे हैं, मिट्टी की महंगाई और चाइनाके दिये का बढ़ता बाजार कहीं अगले साल से उनके चाक की रफ्तार को थाम न दे. जी हां, यह दर्द उन सभी कुम्हारों का है, जो मिट्टी को अपनी मां मानकर दीवाली पर दिये के साथ मिट्टी के बरतन का निर्माण करते हैं. अब इनके चेहरे पर एक अनजाना सा खौफ है. ऐसा लगता है मिट्टी इनसे स्वयं कहती है, क्यों इतनी मेहनत करते हो, लोगों की छतों पर रात भर चाइनामें बने झालर लटके रहेंगे. हमें तो बस परंपरा के नाम पर सिर्फ भगवान के मंदिरों में रख छोड़ा जायेगा.
दीपावली घर को रोशन करने का पर्व है. सबके घरों में दिये के प्रकाश से उल्लास और उमंग के साथ लक्ष्मी का प्रवेश होता है. दिया और लक्ष्मी-गणेश की मूर्ति बनाकर दूसरों के घरों में खुशियों की सौगात देने वाले अपने घरों के बंद हो रहे चूल्हों से परेशान हैं. मुजफ्फरपुर के रहने वाले वैद्यनाथ पंडित का दर्द ऐसा है, जिसे सुनने के बाद बाजार भी जार-जार रो पड़े. उनकी बुजुर्ग काया मानों चीत्कार करती है, जिन्होंने अपने जीवन के सत्तर बसंत को दिये बनाने में लगा दिये. अपनी सांसों की डोर से मिट्टी काटकर उसे मूर्ति के अलावा दिये का रूप देने वाले वैद्यनाथ अब टूट कर बिखर रहे हैं. अब उनके बनाये दिये दीपावली के दिन तक बस ग्राहकों का रास्ता ताकते हैं. कभी उनकी मूर्तियां लोगों के घरों की शान बनती थी. अब चाइनाके मूर्तियों के बाजार ने उनके हाथों के हुनर को नजर लगा दी है. वह कहते हैं. अब वह दिन नहीं रहे, जब महीने भर पहले सेआर्डर आने लगते थे. अब तो स्थिति यह है कि पेट चलाना मुश्किल है.
कहते हैं कि लक्ष्मी संपन्नता की देवी होती है, लेकिन जो उन्हीं के निर्माणकर्ता हैं, वह चिंतित नजर आते हैं. लक्ष्मी की मूर्ति बनाने वाले जयनारायण कहते हैं कि मिट्टी के बर्तन की जगह पीतल औरएल्यूमीनियम ने ले ली. परंपरागत मिट्टी के दिये की जगह अब प्लास्टिक के दिये बाजार में हैं. मिट्टी का चूल्हा अब सपना हो गया, लोग गैस चूल्हे पर पूजा का प्रसाद बना लेते हैं. जयनारायण का दर्द यह है कि इस परंपरागत कुटीर उद्योग पर किसी का ध्यान नहीं है. आने वाले एक दो सालों में कई और परिवार भी इस धंधे से किनारा कर लेंगे. क्योंकि मिट्टी भी अब मां नहीं रही, वह बाजार में बिकती है. पहले मिट्टी मुफ्त में मिलती थी, अब उसकी कीमत चुकानी पड़ती है. मिट्टी की कीमत भी बाजार से वापस नहीं आती, क्योंकि दीपावली के सत्तर फीसदी बाजार पर चाइनानिर्मित सामानों का कब्जा हो गया है.महीनोंमेहनत और घंटों मशक्कत के बात लागत मूल्य भी वापस आना पूरी तरह सपना है.
आधुनिकता के दौर में अब अधिकतर घरों में कुछ ऐसी ही स्थिति है कि स्टील के बर्तनों से लेकर मिट्टी के दिये-मोमबत्ती तक. झालरों से लेकर मिठाई और कपड़े समेत तमाम ऐसी पुरानी वस्तुएं जो हमारी परंपराओं में शामिल रही हैं, बदलते परिवेश ने इन परंपरागत रिवाजों पर आधुनिकता की चादर डाल दी है. अब दीवाली पर चाइना मेड झालर आदि से घरों में रोशनी हो रही है. वक्त ने त्योहारों के मनाने की स्टाइल को भी बदल दिया है, जिस तरह सभ्यता-संस्कृति का लोप हो रहा है. पहले मिट्टी के दिये प्रदूषण नहीं करते थे और इन्हें शुद्ध माना जाता था. एक दौर था जब दीपावली आने की सबसे अधिक खुशी कुम्हारों की चाक पर दिखायी देती थी. कई महीने पहले से चाक की गति बढ़ जाती थी.इसकुटीर कला सेजुड़े लोग मानते थे कि दीपावली उन्हें इतना दे जायेगी कि वह पूरी साल परिवार का पालन कर सकेंगे. होता भी यह था. समय बदला तो इन चाकों की रौनक गायब होती गयी. आधुनिकता की दौड़ नेइस धंधे पर ग्रहण लगा दिया है.
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