कोणार्क के बाद सबसे बड़ा आदित्य धाम है देवऔरंगाबाद कार्यालयदेव कोणार्क के बाद सबसे बड़ा आदित्य धाम है. पौराणिक कथाओं के अनुसार देव का नामाकरण शुक्राचार्य की बेटी देवयानी के नाम पर माना जाता है और देव मंदिर का निर्माण कोढ़ से मुक्ति पाने वाले राजा ऐल द्वारा माना जाता है, लेकिन इस पर इतिहासकारों में मत भिन्नता है. ऐतिहासिक दृष्टि से बंगाल के बौद्ध राजा देवपाल ने 830 ई के लगभग देव बसाया था तथा देव मंदिर व कुटुंबा गढ़ से बुद्ध मूर्ति स्थापित की थी, जैसा कि राहुल सांस्कृत्यायन का मानना है. आदित्य सेन ने वर्तमान सूर्य मंदिर का 995 ई में देवभूमि में निर्माण कराया. पालवंश के बाद जब पलामू के राजा नौरंगाशाह देव इस क्षेत्र के राजा हुए तो उसके वंश ऐल ने 995 ई में यहां सरथ सूर्य की प्रतिमा स्थापित की जैसा कि डाॅ केके दत्त ने लिखा है. फिर उमगा के राजा भैरवेंद्र ने यहां विभिन्न देवों की स्थापना की और सभा मंडप का निर्माण कराया, पर विधिवत त्रिदेवों की स्थापना शंकराचार्य ने कराया. देव सूर्य मंदिर में देव स्थापना सौर विधान के अनुसार किया गया है. मुख्य मंदिर के दक्षिण की ओर सूर्य का स्नान-गृह यानी तालाब व उत्तर की ओर यज्ञशाला तथा ऊपर में त्रिदेव. शिव व मातृ का मंदिर उत्तरमुखी, ब्रहमा पश्चिममुखी व विष्णु का उत्तरमुखी होने का विधान है. भगवान सूर्य के दाहिने पार्श्व में निक्षुभा व बायें पार्श्व में राज्ञी की स्थापना. सूर्य नारायण के दक्षिण भाग में पिंगल, वाम भाग में दंडानायक, सन्नमुख श्री लक्ष्मी व महाश्वेता की स्थापना. देव गृह के बाहर अश्विनी कुमारों की स्थापना. मंदिर के दूसरे कक्ष में राज्ञ व श्रौष, तीसरे कक्ष (कतार) में कल्मास व पछी, दक्षिण में दंड व माठर तथा उत्तर में की लोक पूजित कुबेर का स्थान. कुबेर से उत्तर रेवंत व विनायक की स्थापना और दाहिनी व बायी ओर अर्घ प्रदान के दो मंडप. उदय के समय दक्षिण मंडप में और अस्त के समय बायें मंडप में सूर्य भगवान को अर्घ देने की व्यवस्था. सूर्य के सन्मुख ऊपरी तख्त पर सर्वदेवमय- त्रिदेवों की व्योम रचना व सूर्य नारायण के सन्मुख दिण्डी की प्रतिमा. प्रसाद में गृह राज ( तवरूक) व सर्वातोभद्र -ये दो प्रसाद आदित्य देव को प्रिय है. मुगलकाल में नौरंग शाहदेव को जीत कर शेरशाह के अवमिल बिजली खां व नादिर खां ने देव में 1542-44 में फौजी किला बनवाया, जिन्हें परास्त कर उमंगा के राजा भानुप्रताप ने 1598 ई में इसे राणा वंश्यिों की राजधानी बनायी. ये विधिवत स्थापित सूर्य धाम के सहायक देव-देवी मुसलिम काल में संभवत: टूट-फूट गये. जब उमंगा के राजावंशी राजा राणा भानुप्रताप ने देव के नवाब शेख बिजली खां को फतह कर अपनी राजधानी देव में बनायी गयी तो उनके वंशज प्रविल कुमार सिंह ने 1858 ई में महाराजा की उपाधि धारण करने के बाद देव किला व सूर्य मंदिर का जीर्णोद्धार किया. राजा प्रविल कुमार ने पुरोहित के निर्देशानुसार ऐतिहासिक ऐल को त्रेता युगीन सूर्यवंशी ऐल मान कर आधुनिक संगमरमर प्लेट लगवा दिया जिससे मंदिर की ऐतिहासिकता अथाह में पड़ गयी. वस्तुत: देव सूर्य मंदिर कई दौर से गुजरा है. मूल मंदिर आदित्यसेन ने बनवाया, सभा मंडप भैरवेंद्र ने, आदित्य मूर्ति ऐल ने और त्रिदेव मूर्ति शंकराचार्य ने स्थापित करायी.सूर्य ही सर्वेश्वर व प्रत्यक्ष देव है, जो सृष्टि को जीवन प्रदान करते हैं. सूर्य प्रत्यक्ष ही नहीं, धर्म निरपेक्ष भी हैं जो जाति, धर्म, संप्रदाय व देश की सीमा से परे है और जिनके ताप को हिंदू, मुसलिम, बौद्ध, इसाइ सभी समान रूप से ग्रहण कर जीवन शक्ति पाते है. यहीं कारण है कि सूर्य की पूजा भारत ही नहीं, यूनान, मिश्र, फारस, जापान आदि देशों में आदिकाल से ही किसी न किसी नाम से होती रही है और प्राचीन वंशों ने अपने को सूर्यवंशी कहा है. सूर्य ही विश्व के केंद्र व सृष्टि -प्रलय के मूल कारण है, इसलिए ये त्रिदेव रूप है. सुबह के सूर्य ब्रम्हा, दोपहर के सूर्य रूद्र व अस्ताचलगामी सूर्य विष्णु रूप माने गये हैं. सूर्य की पूजा प्रकृति पूजा के साथ आरंभ हुई, लेकिन कालांतर में पौराणिककारों ने इसे देवाधिदेव का मानवीकरण कर सौर परिवार की कल्पना की. आदि में सूर्य का प्रकटीकरण ज्वाला पिंड सा बड़े अंडे के रूप में हुआ, जिससे इन्हें मार्तंड कहा गया. जब ये अंडे से प्रकट हुए तो विश्वकर्मा ने इनका विवाह अपनी पुत्री संज्ञा से कर दिया, जिससे यम व यमी नामक दो संताने हुई जिसमें से एक मृत्यु देव व दूसरी यमुना नदी हुई. उनकी अतिशय ताप से बेचैन हो संज्ञा अपनी छाया को पति-सेवा के लिए छोड़ कुरुक्षेत्र में अश्वा रूप से तपस्या करने चली गयी. सूर्य ने छाया का भेद खुलते ही सूर्य कुरूक्षेत्र में जा सप्तमी को अश्वा रूप संज्ञा से समागम किया, जिससे यमज बंधु- अश्विनी कुमार हुए. सूर्य के परिवार सौर मंडल में वास करते हैं और सूर्य विश्व की परिक्रमा किया करते हैं. रूपक रूप में सूर्य की सप्तकिरणें ही उनके रथ के सात घोड़े हैं और वृषभानु इनके सारथी हैं. कयश्पु की पत्नी अदिति ने सर्वप्रथम सूर्य-व्रत किया और सूर्य समान तेजस्वी पुत्र का वरदान मांगा. तदनुसार सूर्य भगवान अदिति के 12 पुत्र रूप में अवतरित हुए और आदित्य कहलाये. ये 12 आदित्य हैं- इंद्र, धाता, पर्जन्य, पूषा, त्वष्टा, अर्यमा, भग, विवस्वान, अंशु, विष्णु, मित्र व वरुण. ये आदित्य विभिन्न देशों में वास करते हैं तथा ये द्वादश आदित्य 12 मास के स्वामी हैं. स्वामी कार्तिकेय ने सर्वप्रथम कार्तिक मास की षष्ठी व्रत यानी छठ आरंभ हुआ. कार्तिकेय महाराज बिना सिर कृतिकायें (गोबर चुनी) स्तनपान कराने आयी और स्कंद कुमार ने छह मुख धारण कर षष्ठी के दिन ही इनका स्तनापान किया था. पुन: षष्ठी के दिन ही स्कंद कुमार देव सनानीद बने थे. इसलिए षष्ठी तिथि कुमार का सबसे प्रिय दिन है और इसी कारण वे सौर संप्रदाय के प्रवर्तक बन गये. षष्ठी व्रत करके ही प्रियव्रत की पत्नी मालिनी अपने मृत पुत्र को जिंदा कर पायी थी. भगवती षष्ठी, जो स्कंद कुमार की शक्ति होने के कारण कौमारी कहलाती है, ने छठे दिन प्रियव्रत के कुमार रक्षा की थी. तब से छठ व्रत प्रसिद्ध हुआ. स्कंद कुमार के बाद कृष्ण पुत्र साम्ब सौर धर्म के सबसे बड़े समर्थक हुए. साम्ब को नारद शाप से सूर्योपासना कर कोढ़ से मुक्ति पायी थी. साम्ब ने द्वादश आदित्यों की स्थापना 12 स्थानों पर की जिससे द्वादश आदित्य धाम है- देवार्क, लोलार्क, बालार्क, दशनार्क, चाणार्क, पुष्यार्क, पुण्यार्क, अंगार्क, वेदार्क, देव माकेंडेयार्क, उलार्क व कोणार्क. इनमें देवार्क ( देवधाम) द्वादश आदित्यधामों में प्रमुख माना गया है.
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कोणार्क के बाद सबसे बड़ा आदत्यि धाम है देव
कोणार्क के बाद सबसे बड़ा आदित्य धाम है देवऔरंगाबाद कार्यालयदेव कोणार्क के बाद सबसे बड़ा आदित्य धाम है. पौराणिक कथाओं के अनुसार देव का नामाकरण शुक्राचार्य की बेटी देवयानी के नाम पर माना जाता है और देव मंदिर का निर्माण कोढ़ से मुक्ति पाने वाले राजा ऐल द्वारा माना जाता है, लेकिन इस पर इतिहासकारों […]
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