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मट्टिी के आकर्षक दीप अब दिखते कम

मिट्टी के आकर्षक दीप अब दिखते कम(फोटो नंबर-15)कैप्शन- चाक पर मिट्टी का दीया बनाता कुम्हार औरंगाबाद (सदर)हर तरफ दीपावली की तैयारी दिख रही है. लोग दीपावली को लेकर घरों की साफ-सफाई व रंग-रोगन में लगे हैं. दीपावली साफ-सफाई के साथ दीपों का खास त्योहार माना जाता है. दीपों का त्योहार होने के कारण ही इसे […]

मिट्टी के आकर्षक दीप अब दिखते कम(फोटो नंबर-15)कैप्शन- चाक पर मिट्टी का दीया बनाता कुम्हार औरंगाबाद (सदर)हर तरफ दीपावली की तैयारी दिख रही है. लोग दीपावली को लेकर घरों की साफ-सफाई व रंग-रोगन में लगे हैं. दीपावली साफ-सफाई के साथ दीपों का खास त्योहार माना जाता है. दीपों का त्योहार होने के कारण ही इसे दीपावली कहा गया है. कार्तिक माह के अमावस्या को मनाया जाने वाला यह त्योहार अंधेरी रात को असंख्य दीपों की रोशनी से प्रकाशमय हो जाता है. दीप जलाने की परंपरा काफी पुरानी रही है. भगवान राम के चौदह वर्ष के वनवास से अयोध्या वापस लौटने पर दीप जला कर राम भक्तों ने उनका स्वागत किया था. वहीं कृष्ण भक्तिधारा के लोग ये मानते हैं कि इस दिन कृष्ण ने अत्याचारी राजा नरकासूर का वध किया था जिसके हर्ष में भी लोग दीप जला कर दीपावली मनाते हैं. व्यवसायी धन लक्ष्मी की पूजा के लिए दीपावली पर दीप प्रज्जवलित करते हैं. देखा जाये तो ये त्योहार किसी भी भक्तिधारा के लोगों द्वारा दीप जलाकर ही मनाया जाता है. पर, फिलहाल पूजन के लिए मिट्टी के दीये की पुरानी परंपरा पर नजर सी लग गयी है. घंटों चाक पर मेहनत करने के बाद कुम्हार द्वारा बनाये जाने वाला मिट्टी का दीपक का महत्व कम हो गया है. चिनी बाजार का असर इतना प्रभावकारी साबित हो रहा है कि पारंपरिक चीजों पर भी ये हावी होते जा रहा है. एक समय था जब दीपावली पर घरों में मिट्टी के दीये जलते थे और मिट्टी के दीये की खरीदारी दीपावली के कई दिनों पहले से ही किया जाने लगता था. लेकिन दीपावली पर मिट्टी के दीपक से ज्यादा अब चाइना दीपों की मांग होने लगी है. जो घंटे दो घंटे बिजली से जलते हैं और फिर समाप्त हो जाते हैं. कुम्हार के हाथों से तैयार आकर्षक दीप अब बाजारों में कम दिख रही है. नहीं होता खास मुनाफा अपने युवा अवस्था से चाक पर उंगुलियों से एक से एक हस्त निर्मित मिट्टी के बर्तनों व दीपों को बनाने वाले रफीगंज के फदरपुरा गांव के चंद्रदीप प्रजापत कहते हैं कि कई दीपावली देख चुके हैं. पर अब वो बात नहीं. मिट्टी के बर्तन व दीपक बनाने में कोई खास मुनाफा नहीं हो रहा है. पहले दीपों की कई खेप बाजार में ले जाया करते थे और दुकान लगाते ही सारे बिक जाते थे, लेकिन अब मुनाफे की बात तो दूर, बस परंपरा को निभाने के लिए दीपों को बनाते हैं और बाजारों तक ले जाते हैं. ऐसा लगता है आने वाले समय में ये परंपरा ही खत्म हो जायेगी.

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