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सामाजिक बनने का अर्थ

समाज हित के लिए एकाकी प्रयास भी किये जा सकते हैं. प्राचीन काल में ऋषि महर्षि अपना सारा जीवन ही घने जंगलों में बिता देते थे और समाज का स्तर किस प्रकार ऊंचा उठे, इसके लिए विचार करते और योजनाएं बनाया करते थे. समाज को ऊंचा उठाने के लिए अपना जीवन ही होम देने के […]

समाज हित के लिए एकाकी प्रयास भी किये जा सकते हैं. प्राचीन काल में ऋषि महर्षि अपना सारा जीवन ही घने जंगलों में बिता देते थे और समाज का स्तर किस प्रकार ऊंचा उठे, इसके लिए विचार करते और योजनाएं बनाया करते थे. समाज को ऊंचा उठाने के लिए अपना जीवन ही होम देने के आदर्श स्तुत्य हैं, किंतु ककहरा से आरंभ करनेवाले साधक के लिए अचानक उस स्थिति की कल्पना करना अव्यावहारिक ही होगा. इसका अर्थ समाज के लिए अपना सर्वस्व समर्पित करनेवालों का गौरव घटाना नहीं है. कहा इतना भर जा सकता है कि हमें आरंभ सामाजिक बनने से करना चाहिए. जिसमें समाज के हितों का ध्यान रखने से लेकर समाज में रहने और समाज के अन्य सदस्यों से तालमेल बिठाने के विभिन्न साधना पक्ष है. स्वयं कार्यकुशल और सक्षम होने के बावजूद भी कितने ही व्यक्ति औरों से तालमेल न बिठा पाने के कारण अपनी प्रतिभा का लाभ समाज को नहीं दे पाते. समाज में रह कर अन्य लोगों से तालमेल बिठाने और अपनी क्षमता योग्यता का लाभ समाज को देने की स्थिति भी सामाजिकता से ही प्राप्त हो सकती है.
बहुधा यह भी होता है कि कई व्यक्ति अकेले तो कोई जिम्मेवारी आसानी से निभा लेते हैं, मगर उसके साथ कुछ व्यक्तियों को और जोड़ दिया जाये और कोई बड़ा काम सौंप दिया, तो वे जिम्मेवारी से कतराने लगते हैं. बहुधा ही नहीं, प्राय: ऐसा ही होता है. कुछ व्यक्तियों को यदि किसी कार्य की जिम्मेवारी सौंप दी जाये, तो हर व्यक्ति यह सोच कर अपने दायित्व से उपराम होने की सोचने लगता है कि दूसरे लोग इसे पूरा कर लेंगे. सामूहिक उत्तरदायित्वों के प्रति अवहेलना या उपेक्षा का भाव मनुष्य की सबसे बड़ी कमजोरी है.
इसका दुष्प्रभाव व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन दोनों पर पड़ता है. समाज के हितों का ध्यान रखना, समाज में रहते हुए अन्य लोगों से तालमेल बिठाना और सामूहिक उत्तरदायित्वों को अनुभव कर उन्हें पूरा करने के लिए तत्पर रहना अपने व्यक्तित्व को सामाजिक बनाने की दिशा में अग्रसर करना ही है. जीवन उत्कर्ष के सभी इच्छुकों और प्रयासों को सामाजिक गुणों के विकास की आवश्यकता और महत्ता ध्यान में रखनी चाहिए और उन गुणों को अर्पित करते चलना चाहिए.
– पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य

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