रिखिया से लौट कर हरिवंश
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मन की शांति जीवन का अंतिम लक्ष्य नहीं : स्वामी सत्यानंद
रिखिया से लौट कर हरिवंश इतनी कठिन साधना-तप. अनेक अंतरराष्टीय स्तर की संस्थाओं की स्थापना. पर अब स्वामी सत्यानंद का नारा है, हरा रिखिया. भरा रिखिया. रिखिया पंचायत में ही उनका आश्रम है. पीछे जिन संस्थाओं को शीर्ष पर लाकर छोड़ा, उनसे मुक्त हो कर. वह अपने लोगों से कहते हैं, मनुष्य को अपने लिए […]
इतनी कठिन साधना-तप. अनेक अंतरराष्टीय स्तर की संस्थाओं की स्थापना. पर अब स्वामी सत्यानंद का नारा है, हरा रिखिया. भरा रिखिया. रिखिया पंचायत में ही उनका आश्रम है. पीछे जिन संस्थाओं को शीर्ष पर लाकर छोड़ा, उनसे मुक्त हो कर. वह अपने लोगों से कहते हैं, मनुष्य को अपने लिए नहीं, दूसरों के लिए जीना चाहिए. जीवन का मर्म याद दिलाते हैं. यह बात याद रखना, अपना पड़ोसी जब तक दुखी है, तब तक तुम्हारी साधना सफल नहीं हो सकती.
उनकी बातचीत-काया को देख कर लगा कि अब वह रिखिया में नया प्रयोग कर रहे हैं. उनका कहना है कि इस रिखिया पंचायत को ही संभाल लूं, तब कहूंगा कि दुनिया मेरा कुटुंब है.
अपने अनुभवों का निचोड़ सत्यानंदजी ने अपने एक प्रवचन में बताया है, मैं तुम्हें अपने अनुभव से यह बात बता रहा हूं. मैंने आध्यात्मिक जीवन के सभी साधनों को अपनाया है, एक भी अभ्यास किये बिना नहीं छोड़ा, किंतु मेरे हृदय द्वार तभी खुले, जब मैंने दूसरों के लिए जीना सीखा. जब तक मैं अपने लिए जीता रहा, तब तक मैं अंधा था. किंतु जब से मैंने दूसरों के लिए सोचना आरंभ किया – वह बीमार है, वह गरीब है, उसके पास घर नहीं है – मेरे आंतरिक प्रगति द्वार खुलने लगे. अब मुझे लगता है कि मैं अपने गंतव्य के, अपने प्रारब्ध के एकदम समीप आ चुका हूं… लाखों-करोड़ों लोगों के बीच रहते हए भी अपने लिए कुछ न चाहना, यह अवस्था आनी चाहिए.
रिखिया आश्रम और स्वामीजी द्वारा स्थापित शिवानंद मठ चुपचाप लोगों की मदद-विकास में लगा है. गरीबों को रिक्शा-गाय-ठेला-कंबल-कपड़े, बड़े पैमाने पर वितरित होते हैं. खैरात बोध से नहीं. क्योंकि स्वामी जी का मानना है, खैरात, गरीबी की मां है. मां का नाम खैरात, बेटी का नाम गरीबी. इस बोध से मदद-वितरण कि वे स्वावलंबी बनें.
आज मदद, व्यापार बन गया है. तिजारत की वस्तु. सरकार, बैंक, बड़े उद्योग घराने सब मदद-दान में लगे हैं. यश के लिए. नाटक अधिक, काम कम. बैंकों-नेताओं ने तो बिना लोन दिये ही अनेक गरीबों से दस्तखत करा लिये. वहीं गरीबों को स्वावलंबी बनाने, आत्मसम्मान जगाने का काम भी चल रहा है. बिना डुगडुगी बजाये.
वृद्धों के लिए रोजगार योजनाएं, बीमार लोगों की मदद, नये ढंग से खेती में मदद, छात्र-छात्राओं को पुस्तकें-कपड़े, लड़कियों को स्कूल आने-जाने के लिए साइकिलें, गाय वितरण… जैसे अनेक काम बिना प्रचार-प्रसार के आश्रम करता है. स्वामीजी ने अपने लोगों से एक बार कहा, गाय लाओ, ठेला लाओ, गैता लाओ, फावड़ा लाओ, सिलाई मशीन लाओ और लेडीज साइकिल लाओ… यह सब चीजें जरूरतमंद लोगों के लिए. योग्य लड़कियों की उच्च शिक्षा की व्यवस्था उनके रहने-खाने, शुल्क, आवागमन की व्यवस्था, चिकित्सा खर्च… सब कुछ. ट्रकों में भर-भर कर सामान देहातों में वितरण के लिए भेजे जाते हैं.
ये सब काम बिना प्रचार-प्रसार के. चुपचाप. इस मकसद से कि पड़ोसी का जीवन बदले. दुख-पीड़ा से उन्हें मुक्ति मिले.
विकास के नाम पर आज क्या स्थिति है? एक मामूली काम शुरू करने के पहले राजनेता-अफसर नाम-खुदा पत्थर लगा देते हैं. आत्मप्रचार पहले. बरसों-बरसों पत्थर गड़े रह जाते हैं, काम शुरू नहीं होते. अखबारों में गरीबों की मदद या उनके कल्याण की योजनाएं शुरू होने की खबरें पहले छप जाती हैं, बाद में काम भी नहीं होते. आत्मप्रचार-श्रेय लेने की इस होड़ में पूरा तंत्र फंस गया है. वहीं ऐसे लोग हैं, जो अपने भक्तों की मदद से करोड़ों-करोड़ों की मदद लगातार कर रहे हैं. बिना मीडिया को सूचना दिये. बगैर ढोल बजाये. कोई आत्मप्रचार नहीं. यह भारतीय परंपरा है. भारत के अनेक संतों-सूफियों-मौलवियों-फादरों में यह जीवित है.
रिखिया आश्रम के अनेक यशस्वी संत इस काम में लगे हैं. स्वामी सत्यानंद के इस काम को समझा, संतों के बारे में उनकी अवधारणा पढ़ कर… साधु-महात्माओं को प्रकट में नहीं रहना चाहिए. इन्हें सीधा-सादा रहना चाहिए, दिखाने में नहीं. बुनियाद को तुम कभी देख ही नहीं पाते. इस मकान की बुनियाद को कभी देख पाते हो क्या? इसका छाया देखो, दीवार देखो, बुनियाद को कोई नहीं देखता है. हमारे यहां कहा गया है और हम मानते भी हैं कि साधु-महात्मा हमारे समाज की बुनियाद हैं.
कितनी साफ समझ है. वर्षा से समाजशास्त्रियों, समाज विज्ञानियों को पढ़ता रहा हूं. भारतीय समाज के असंतोष-विषमता और मन:स्थिति समझने के लिए आइएफएस पवन वर्मा ने मध्य वर्ग की मौजूदा मानसिकता पर बेबाक ढंग से एक पुस्तक लिखी है. भारत का मध्य वर्ग, आत्मरत-आत्मकेंद्रित हो गया है. वह भूल गया है कि गरीबी में रहनेवाले 26 करोड़ों की बेचैनी-पीड़ा से जो विस्फोट होगा, उससे रेगिस्तान में स्थित मध्यवर्ग का नखलिस्तान साफ हो जायेगा. अपहरण, हत्याएं, लूट, सामाजिक तनाव अस्त-व्यस्त कानून-व्यवस्था की जड़ में यही रहस्य है.
इस गंभीर गुत्थी को सत्यानंद जी ने इतने बेबाक और साफ ढंग से कहा है कि आपको आश्चर्य होगा : मन की शांति जीवन का अंतिम लक्ष्य नहीं है. मन की शांति मेरे मन की शांति है, यह व्यक्तिगत वस्तु है. जब तक दुनिया शांत नहीं होगी, तब तक समाज में शांति नहीं होगी, जब तक गांव शांत नहीं होंगे, जब तक शहर शांत नहीं होंगे, तब तक पृथ्वी शांत नहीं होगी. इसलिए हमारे ॠषियों-मुनियों ने शांति को सब जगह देखा – द्यौ: शांति: अंतरिक्ष शांति:…
जो संस्थाएं-लोग चुपचाप ऐसे कामों में लगे हैं, गरीबों के लिए सोचते-करते हैं, वे ही अब उम्मीद की किरण हैं. साम्यवाद गया, समाजवाद ढह चुका. पूंजीवाद-बाजारवाद बिखराव के रास्ते हैं. सिस्टम फेल हो गया है. एनजीओवाद विकल्प नहीं बन रहा. आत्मकेंद्रित यंत्रों से कल्याण नहीं होते, यह प्रमाणित हो गया है. भारतीय संदर्भ में तो मौजूद तंत्र (नौकरशाही-सरकार) कब का अप्रासंगिक हो चुका है. बार-बार वर्ल्ड बैंक व अन्य संस्थाएं हिदायत दे रही हैं कि भ्रष्टाचार रोको. विकास के लिए ऊपर से चला एक रुपया, गांव तक पहुंचते-पहुंचते 10-5 पैसे जाता हैं. तब नया विकल्प क्या है?
सरकारों को चाहिए कि वे गरीबों के विकास-कल्याण के पैसे संतों-सूफियों-फादरों को दें. उनकी संस्थाओं को दें. झारखंड में ही रामकृष्ण मिशन, योगदामठ, रिखिया आश्रम, देवसंघ, क्रिश्चियन मिशन, देवबंद जैसी मुस्लिम संस्थाओं को दें. इसका सीधा लाभ होगा कि दिल्ली से चला 100 पैसा गांवों तक पहुंचेगा. यह संतों, मौलवियों, फादरों के जरिये उनकी निष्ठा और इंटीग्रिटी के कारण होगा.
बाजार, विकास और भारत की मौजूदा स्थिति पर सत्यानंदजी के विचार सुन कर हम दंग रह जाते हैं. इन्हें ग्लोबल दुनिया, प्रबंधन, बाजार के नये ट्रेंड्स की लेटेस्ट (ताजातरीन) जानकारी है. वह कहते हैं, बच्चों को शुरू से अंग्रेजी पढ़ाओ. आज बाजार में इसकी कीमत है. चीन से इनफारमेशन टेक्नालॉजी में हम इसलिए आगे हैं, क्योंकि अंग्रेजी जानते हैं. अब चीन के लोगों को अंग्रेजी सीखने-पढ़ने की धुन है. खेती के बारे में पास बैठे गांव के एक किसान से स्वामी जी बतियाते हैं. पश्चिम में आयुर्वेद के किन पौधों, जड़ी-बूटियों की मांग है, उसकी खेती करो. लागत खर्च कितना, आमद कितनी, यह बताते हैं. स्कूल कैसे हों, उनके पाठ्यक्रम कैसे हों, यह समझाते हैं. रिखिया के एक उद्यमी युवा का हवाला देकर. उसने जुगाड़ से स्कूल खोला. वहां 500 बच्चे हैं. स्वामीजी कहते हैं कि सिलेबस नीडबेस्ड (जरूरत के अनुसार) हों. जीवन की आवश्यकताओं के अनुसार. झारखंड के बच्चे, पेड़, पौधे, जंगल, खेती वगैरह का हुनर-कौशल पाने लगें, आप देखिए कितना बदलाव आयेगा? क्षेत्रीय आधार पर सिलेबस बनें. इतिहास में हजार वर्ष पहले कौन-किसका बाप था, यह पढ़ने से रोजगार मिलेगा? दुनिया के किस मुल्क में कैसी शिक्षा है? कैसे उनकी शिक्षा ने उन देशों को आगे बढ़ने में मदद की है, स्वामीजी बताते हैं.
स्वामीजी का ज्ञान-स्मृति देख कर हम हैरत में हैं. अद्वैत, संस्कृत, उपनिषद, शंकर, भाष्य, रामानुज, वेदांत, आत्मा, परमात्मा, तत्व मीमांसा तो उनके विषय हैं. शास्त्रीय शिक्षा है. इन विषयों पर उच्चकोटि के प्रवचन करते हैं. पर बाजार, कृषि, मेडिकल साइंस, मनोविज्ञान आर्थिक विकास, शिक्षा, प्रबंधन, टेक्नालाजी, सामाजिक-आर्थिक समस्याओं और झारखंड-देश-दुनिया की लेटेस्ट जानकारी. शिक्षा पर बोलते हए उन्होंने कहा कि विदेशों में बहुराष्ट्रीय कंपनियां – मोटरोला वगैरह जैसे स्कूल चलाती हैं, झारखंड में टाटा, उषा मार्टिन वगैरह को यह करना चाहिए. सरकार के भरोसे शिक्षा संभव नहीं है. पश्चिमी हमसे (भारत) इसी कारण आगे है, क्योंकि वहां बचपन में ही छात्रों को आगे बढ़ने-पढ़ने-अनुकूल कैरियर के क्लू (रास्ते) मिल जाते हैं.
(क्रमश:)
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