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आत्मसाक्षात्कार

दूसरे की निंदा करना एकदम स्वाभाविक है. यह मानव मन के विकास-क्रम में प्रकृति का नियम है. तुम शुरू में कैसे कह सकते हो कि हम नालायक हैं, जब तुम्हें यही नहीं मालूम कि नालायक कहते किसको हैं. खाली तुमने एक मत बना लिया कि हम नालायक हैं, किसी काम के नहीं हैं, बेकार हैं, […]

दूसरे की निंदा करना एकदम स्वाभाविक है. यह मानव मन के विकास-क्रम में प्रकृति का नियम है. तुम शुरू में कैसे कह सकते हो कि हम नालायक हैं, जब तुम्हें यही नहीं मालूम कि नालायक कहते किसको हैं. खाली तुमने एक मत बना लिया कि हम नालायक हैं, किसी काम के नहीं हैं, बेकार हैं, बिना यह जाने कि इसका मतलब क्या है. उससे व्यक्तित्व को चोट पहुंचती है.
और इसी तरह आदमी अपनी तारीफ भी करता है, मैं बहुत सुंदर हूं, मैं बहुत अच्छा गाती हूं, मैं बहुत अच्छी हूं. लेकिन क्या तुम्हें मालूम है कि सुंदरता क्या है? सुरीला स्वर क्या है? अच्छाई क्या है? पहले तुम जानो कि सुंदरता क्या है, संगीत क्या है, अच्छाई क्या है, तब वह तुम्हें अपने भीतर मालूम पड़ेगा. नहीं तो, मैं बहुत अच्छी हूं, यह अहंकार हो जायेगा. इसलिए जीवन को बनाने के लिए प्रकृति ने जो नियम तैयार किये हैं,
उनको समझना चाहिए. कोई तुम्हारी आलोचना करता है, बुराई करता है, करने दो. चुप रहो. प्रतिकार मत करो. और जब तुम दूसरे की निंदा करते हो, तब उस समय अपने भीतर खोजो कि कहीं मेरे में तो यह दोष नहीं है. स्वयं को जानना दुनिया में सबसे मुश्किल चीज है. दुनिया में आदमी सब चीजें जान सकता है, लेकिन अपने को नहीं जान सकता. अपने को जानना ही आत्मसाक्षात्कार है. यह सामान्य उपलब्धि नहीं है, बहुत ऊंची उपलब्धि है.
स्वामी सत्यानंद सरस्वती

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