डॉ मुश्ताक अहमद
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सामाजिक और आर्थिक संतुलन का त्योहार है ईद-उल-फितर
डॉ मुश्ताक अहमद प्रधानाचार्य, सीएम कॉलेज दरभंगा (बिहार) संपर्क : 09431414586 रमजान मुसलमानों के लिए एक पाक व मुबारक महीना है, लेकिन यह सिर्फ मजहबी दृष्टिकोण से ही अहमियत नहीं रखता, बल्कि सामाजिक, आर्थिक संतुलन और स्वास्थ्य की दृष्टि से भी इस माह-ए-मुबारक का अलग महत्व है. मजहबी दृष्टिकोण से रमजान के इसी माह में […]
प्रधानाचार्य, सीएम कॉलेज
दरभंगा (बिहार)
संपर्क : 09431414586
रमजान मुसलमानों के लिए एक पाक व मुबारक महीना है, लेकिन यह सिर्फ मजहबी दृष्टिकोण से ही अहमियत नहीं रखता, बल्कि सामाजिक, आर्थिक संतुलन और स्वास्थ्य की दृष्टि से भी इस माह-ए-मुबारक का अलग महत्व है. मजहबी दृष्टिकोण से रमजान के इसी माह में इस्लाम धर्म का पाक कुर्आन शरीफ़ नाजिल हुआ.
साथ ही रोज़े जैसी पाक इबादत और नमाज-ए-तरावीह भी रमजान के महीने में ही पूरे किये जाते हैं. इस पूरे महीने को तीन भागों में बांटा गया है- पहला दस दिनों का असरा रहमत का कहलाता है यानी शुरू के दस दिनों में बंदों पर अल्लाह की रहमतों की बारिश होती है. जबकि दूसरा दस दिनों का असरा मग़फेरत (माफी) का होता है.
इस असरे में नेक बंदा अपने गुनाहों की जो भी माफी मांगता है, उसे अल्लाह कबूल फरमाता है. और आखिरी असरा निजात (छुटकारा) यानी जहन्नम से छुटकारे का होता है. इस तरह पूरा रमजान का महीना मुसलमानों के लिए अल्लाह की रहमतों से मालामाल होने का महीना है और जब रमजान की तमाम इबादतों को पूरा करने में कोई बंदा कामयाब हो जाता है तो उसी कामयाबी की खुशी में ईद मनाई जाती है.
ईद का शाब्दिक अर्थ ही खुशी है. ईद मनाने से पहले इस्लाम ने मुसलमानों पर जितने मजहबी शर्तें रखी हैं, यदि उन पर संजीदगी से गौर कीजिए तो पता चलेगा कि यह महीना मुसलमानों के लिए सामाजिक सरोकार से जुड़ने का पैगाम भी देता है. रमजान में रोजे के इफ्तार का दृश्य ही सामाजिक समरसता का प्रमाण होता है कि एक ही दस्तरखान पर राजा और रंक सभी एक साथ मिल कर इफ्तार करते हैं. बगैर किसी भेदभाव के एक ही सफ में नमाज अदा करते हैं, जैसा कि अल्लामा इकबाल ने फरमाया है :-
एक ही सफ में खड़े हो गये महमूद व अयाज़
न कोई बंदा रहा और न कोई बंदा नवाज
ईद की नमाज से पहले हर एक साहिबे निसाब (आर्थिक दृष्टि से संपन्न) मुसलमानों पर फर्ज है कि वह फितरा की राशि अवश्य ही उन लोगों के बीच बांट दें, जो मुहताज व आर्थिक दृष्टि से कमजोर हैं. फितरा के संबंध में जो हिदायत दी गयी हैं, उसके पीछे पैगाम छुपा है कि समाज में जो धनवान व्यक्ति हैं, वह न चाहते हुए भी मजहबी फरमान की वजह से फितरा की राशि गरीबों में तकसीम करेंगे, ताकि उस राशि से गरीब और मुहताज तबका भी ईद की खुशियां हासिल कर सकें.
सब अल्लाह के बंदे हैं
महानुभावो! आप सब जानते हैं कि इस्लाम का जन्म ही इंसानियत की रक्षा के लिए हुआ, क्योंकि कुरान की पहली आयत की शुरुआत ही कहती है- ‘‘अलहमदुलिल्लाहे रब्बिल आलमीन’’ अर्थात् तारीफ उसकी, जो सारे जहान का रब है. जाहिर है इस्लाम ने यह नहीं कहा कि अल्लाह सिर्फ मुसलमानों का रब है.
जब पूरी दुनिया का रब है, तो दुनिया में जितने भी मनुष्य हैं, सब अल्लाह के बंदे हैं, फिर इस्लाम के संबंध में इतनी गलतफहमियां क्यों हैं? इसमें सिर्फ उनका कुसूर नहीं है, जिन्होंने इस्लाम को नहीं समझा, बल्कि कुसूर तो उनका है, जिन्होंने इस्लाम को समझा है, लेकिन अपने आचरण से औरों को इस्लाम से अवगत नहीं कराया.
यह बात सिर्फ इस्लाम धर्म पर ही लाजिम नहीं, बल्कि अन्य धर्मों के लोगों ने भी अपने-अपने धर्मों की तकाजों से अलग हटकर चलने की कोशिश की है. इस्लाम धर्म के पैगम्बर मोहम्मद (स0) ने जब यह कहा था कि ‘‘उस वक्त तक तुम पर खाना हराम है जब तक तुम्हारा पड़ोसी भूखा है’’. सनद रहे कि मोहम्मद (स0) ने शब्द ‘पड़ोसी’ कहा है, मुसलमान नहीं.
लेकिन आज का मुसलमान क्या इस हदीस पर पूरा उतर रहा है? यदि पूरा उतर रहा होता, तो शायद वह अपने पड़ोसी की नजर में गैर न समझा जाता और न अन्य धर्मों के मानने वालों के जेहन में अपने प्रति कई तरह के सवालों का प्रतीक बनता! जरूरत इस बात की है कि मजहब ने जो सबक सिखाये हैं, उसे जीवन जीने का उसूल समझा जाये और यदि हर धर्म का व्यक्ति अपने-अपने धर्म के तकाजों को पूरा करने लगे, तो फिर मानवता के लिए खतरा क्योंकर हो सकता है? फिर भारत का सनातन धर्म तो पूरी दुनिया को एक परिवार मानता है. उसमें जाति, धर्म या पंथ में विभेद कहां है.
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