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मैरी क्रिसमस : मानव इतिहास की एक अनमोल और पवित्र घटना है यीशु का जन्म

अनादि शब्द देहधारी बना, क्यों? फादर इग्नासियुस टेटे ख्रीस्त-जयंती अनादि शब्द के कुंवारी मरियम के गर्भ में देहधारी बनने और मनुष्य की तरह एक मां से जन्म लेने का रहस्य प्रकट करती है़ जो शब्द अनादि काल से ईश्वर के साथ था, ईश्वर था और जिसके द्वारा सारी सृष्टि की रचना हुई, वह निर्धारित काल […]

अनादि शब्द देहधारी बना, क्यों?

फादर इग्नासियुस टेटे

ख्रीस्त-जयंती अनादि शब्द के कुंवारी मरियम के गर्भ में देहधारी बनने और मनुष्य की तरह एक मां से जन्म लेने का रहस्य प्रकट करती है़ जो शब्द अनादि काल से ईश्वर के साथ था, ईश्वर था और जिसके द्वारा सारी सृष्टि की रचना हुई, वह निर्धारित काल में इस्राएल देश के यहूदी समाज में मनुष्य बना़ जो ईश-पुत्र था, वह मानव पुत्र बना़ अपना ईश्वरीय वैभव छोड़ कर एक साधारण मनुष्य की तरह एक निर्धन परिवार की परिस्थितियों में पला़

ईश्वर के लिए सब कुछ संभव है़ मानव-उद्धार का कार्य ईश्वर अपने महिमामय रूप में संपन्न कर सकता था, तो उसके मनुष्य बनने का क्या औचित्य है? इस रहस्य को समझने के लिए ईश्वर की मुक्ति योजना को पवित्र बाइबिल के आधार पर अवलोकन करने की आवश्यकता है़

पवित्र बाइबल में इस बात का विवरण है कि ईश्वर ने अपने शब्द के सामर्थ्य से आकाश और पृथ्वी की सृष्टि की़ दोनों सृष्टि कथाओं में ईश्वर प्रयोजित मनुष्य की मर्यादा, उसके जीवन का अंतिम लक्ष्य और लक्ष्य-प्राप्ति के साधन की गूढ़ बातें वर्णित हैं. मनुष्य की मर्यादा इसमें है कि नर व नारी ईश्वर के प्रतिरूप बने हैं, दोनों बराबर हैं और एक-दूसरे के संपूरक हैं. वे मिट्टी से जुड़े हैं, पर दोनों में प्राण वायु है़ वे सभी प्राणियों में सर्वोत्तम हैं. वे सृष्टि पर ईश्वर के प्रभुत्व के सहभागी हैं.

उनके जीवन का अंतिम लक्ष्य है- ईश्वर के विश्राम में प्रवेश करना और जीवन वृक्ष को प्राप्त करना, जिसका अर्थ है परिपूर्ण जीवन या अनंत जीवन प्राप्त करना़ लक्ष्य प्राप्ति का साधन है भले-बुरे ज्ञान के वृक्ष का फल नहीं खाना़ इसका अर्थ है ईश्वर की अधीनता स्वीकार करना अर्थात अपने स्वार्थ को भले-बुरे के निर्णय का मापदंड नहीं बनाना, साथ ही साथ ईश्वर की इच्छानुसार सृष्टि की देख-रेख करना़

किंतु आदम और हव्वा ने ईर्ष्यालु सांप के बहकावे में आकर ईश्वर की सुनियोजित व्यवस्था पर संदेह किया़

इस संदेह के कारण उनमें लोभ- लालच और घमंड उत्पन्न हुआ, जिनके आवेश में उन्होंने भले-बुरे का निर्णय अपने ऊपर ले लिया और वर्जित फल को खाना भला कार्य समझ कर ईश्वरीय न्याय दंडरूपी मृत्यु को चुना़ ईश्वरीय न्यायदंड सात दुष्परिणामों में स्वत: प्रकट हुआ- आंतरिक, पारस्परिक और प्रकृतिगत, कष्ट व पीड़ा, जीवन- संघर्ष, प्रलोभन की प्रबलता, दु:खदायी मृत्यु, ईश्वर से संबंध विच्छेद और अप्राप्य जीवन लक्ष्य. फलस्वरूप मानव मर्यादा विकृत हई. मानव स्वभाव पतित हो चला और सात कुवृत्तियों के अमिट रंगों से दागी हो गया़

अब हमारे मानव स्वभाव में इन कुवृत्तियों का किसी न किसी मात्रा में बोलबाला बना रहता है- ईर्ष्या-द्वेष, लोभ- लालच, अहंकार, क्रोध, वासना, भोग-विलास और आलस्य. जिस अदन बारी में पाप व मृत्यु ने प्रवेश किया, वहीं प्रथम सुसमाचार की भी घोषणा हुई- सांप का वंश स्त्री के वंश की एड़ी काटेगा, किंतु एक दिन नारी का वंश सांप का सिर कुचल देगा़ यह उद्धार कार्य पतित मानव स्वभाव से ग्रसित किसी मनुष्य से संभव नहीं था़

दूसरी ओर पतित मानव स्वभाव को मर्यादित करने के लिए तथा विलुप्त जीवन लक्ष्य को फिर से वापस पानेे के लिए एक उन्नत मानव स्वभावधारी मनुष्य की ही जरूरत थी़ अत: इसी ईश्वरीय प्रतिज्ञा के तहत समय पूरा होने पर अनादि शब्द ने कुंवारी मरियम से जन्म लिया़

मानव की खोयी हुई मर्यादा को मर्यादित करने और मनुष्य की पहुंच से परे अनंत जीवन की पुन: प्राप्ति के लिए वह मानव बना़

उसने चरनी से ले क्रूस-मरण तक पाप के सात दुष्परिणामों को अपने ऊपर लेकर सांप का सिर कुचल डाला़ मानव बनकर उसने हर युग के प्रत्येक व्यक्ति से तादात्म्य स्थापित किया है, चाहे वह किसी भी राष्ट्र, जाति, धर्म, वर्ग या अवस्था का क्यों न हो़ उसके मानव बनने से यह सिद्ध हो गया है कि मनुष्य ईश्वर की दृष्टि में अति मूल्यवान प्राणी है़

मानव की नि:स्वार्थ सेवा ही ईश्वर की सच्ची सेवा-पूजा है़ ‘तुमने मेरे इन भाई-बहनों में से किसी एक के लिए, चाहे वह कितना ही छोटा क्यों न हो, जो कुछ किया, वह तुमने मेरे लिए ही किया’ (मत्ती 25:40).

– फादर इग्नासियुस टेटे, एसजे

संत स्तानिसलास कॉलेज, सेतागढ़ा हजारीबाग में प्रशिक्षण निदेशक

क्रिसमस और इसके प्रतीक

फादर फ्रांसिस मिंज

समस ईसाइयों सहित अन्य लोगों के बीच क्रिसमस मिलन समारोह, कैरोल व कई कार्यक्रम लेकर आता है़ यह ईसा मसीह के जन्म का त्योहार है़ ऐसे में ‘क्रिसमस’ नाम कैसे आया? लैटिन में क्रिसमस को ‘दिएस नतालिस दोमिनी’ (प्रभु का जन्मदिन), इटालियन में ‘नताले,’ स्पेनिश में ‘ला नविदाद,’ फ्रेंच में ‘नोएल’ कहा जाता है. झारखंडी आदिवासी क्षेत्रों में इसे जनम (जोनोम) परब या ख्रीस्त जयंती कहते है़ं

हर ईसाई पर्व में मिस्सा (प्रभु भोज) होती है़ मिस्सा को अंग्रेजी में ‘मास’ कहा जाता है. ख्रीस्त के नाम से अर्पित मिस्सा को ‘क्राइस्टमास’ कहा गया़ यही बाद में ‘क्रिसमस’ हो गया़ ईसा के जन्मोत्सव के बारे में कई तथ्य, कहानियां व किवदंतियां है़

ईसा का जन्म निर्विवाद है, परंतु उनकी जन्मतिथि के बारे में विद्वानों में मतैक्य नहीं था़ रोमन साम्राज्य में 25 दिसंबर को चुपके से क्रिसमस मनाने का प्रचलन काफी समय से था़ संयोगवश इसी दिन नतालिस सोलिस इनविक्ति अर्थात् रोमन धर्म के अपराजेय सूर्यदेव मिथरास का जन्मदिन था़ यह जूलियन कैलेंडर की मकर संक्रांति (सोल्सटिस) का दिन था़ वैसे सम्राट कॉंसटेंटाइन ने 313 ई़ से ही 25 दिसंबर को सार्वजनिक अवकाश घोषित कर दिया था़

फिर 349 ई. में संत पिता जूलियस ने 25 दिसंबर को आधिकारिक तौर पर क्रिसमस का दिन घोषित किया़ रोमन प्रथाओं से आयातित रस्में जैसे उपहारों का आदान- प्रदान, गृह सज्जा, उत्सवी खान- पान व नाच- गान आदि इसी समय से प्रचलित है़

चौथी सदी से शुरू हुआ चरनी बनाने का प्रचलन

क्रिसमस की चरनी बनाने का प्रचलन कला के रूप में चौथी सदी से शुरू हुआ़ मसीही अपनी दीवारों, पत्थरों व मिस्सा के परिधानों पर चरनी की पेंटिंग करते थे़

क्रिसमस के धर्मानुष्ठान में प्रयुक्त लैटिन भाषा को आम जनता नहीं समझती थी इसलिए असीसी के संत फ्रांसिस ने इटली के ग्रास्सियो नामक शहर में 1223 ई. में यीशु के जन्म को जीवंत चरनी का रूप दिया़ उन्होंने ईसा मसीह के जन्म को भक्तिमय ढंग से दर्शाने के लिए मनुष्य, जानवर, भेड़ और अन्य जानवरों को रख कर कर जीवंत चरनी बनायी़

जर्मनी से हुई क्रिसमस

ट्री की शुरुआत

ब्रितानी तथा केल्ट जातियों में चिरहरित वृक्ष अर्चना की परंपरा थी़ इसे उन्होंने क्रिसमसोत्सव में भी शामिल किया़ बाद में 15वीं सदी में क्रिसमस ट्री की शुरुआत जर्मनी में हुई़ इसे घर के बाहर अदन वाटिका के रूप में सजाया जाता था और पेड़ पर सेव के फल लगाये जाते थे़

बाद में इस पेड़ को आनेवाले मुक्तिदाता का प्रतीक मानकर घर के अंदर लगाया जाने लगा और उस पर यीशु की उपस्थिति के प्रतीक होस्तिया (मिस्सा में प्रयुक्त रोटी) को चिपकाया जाता था़ बाद में होस्तिया की जगह तारे, घंटी, स्वर्गदूत व फूल इत्यादि लगाये जाने गये़ ये सभी ईश्वर की उपस्थिति के प्रतीक है़ं

14वीं सदी से है

कैरोल की परंपरा

इटली में गोलाकार लोकनृत्य को कैरोल कहा जाता था़ वहीं क्रिसमस कैरोल की परंपरा 14वीं सदी में हुई़ कैरोल के साथ- साथ मसीह के जन्म की घटनाओं पर नाटक का मंचन भी होता था़

मेक्सिको व लैटिन अमेरिकी देशों में कैरोल का स्वरूप अलग है़ जोसेफ और मरियम की व्यथा को आत्मसात करने के लिए हर संध्या बच्चे व युवा जोसेफ और गर्भवती मरियम बनकर भक्ति गीत गाते हुए घर- घर जाकर लास पोसादस (आश्रय) की खोज करते है घर के अंदर बैठे लोग गाते हुए आश्रय देने में अपनी असमर्थता जाहिर करते है़ अंतिम परिवार उनके लिए दरवाजा खोलता और उन्हें आश्रय व भोजन देता है़ यह क्रम क्रिसमस के नौ दिन पूर्व से चलता है़

एशिया माइनर से

आये सांता क्लॉज

बच्चों के अत्यंत प्यारे एशिया माइनर (तुर्की) के लाल- सफेद वस्त्रधारी बिशप निकोलस से सांता क्लॉज की परंपरा शुरू हुई़ ऐसी मान्यता है कि वे 24 दिसंबर की रात सोते बच्चों के लिए चुपचाप कुछ उपहार छोड़ जाते है़

डच लोग निकोलस को ‘सिन्टरक्लास’ कहते है़ यही ‘सांता क्लॉज’ हो गया़ आज आध्यात्मिक तथा सार्थक क्रिसमस की आवश्यकता है, जिसमें हर शिशु में यीशु दिखे़ यीशु का शिशु बनना हर मानव में ईशमयता की गरिमा देखने का संदेश है़

फादर फ्रांसिस मिंज, यीशुसंघी

(लेखक कांके के ईश शास्त्र अध्ययन केंद्र, तरुणोदय में ईसाई धर्मविज्ञान के प्राध्यापक हैं)

चर्च की दीवारों पर लोग इतिहास महसूस करते हैं

जसिंता केरकेट्टा

धर्म हमारे जीवन में समाया है, फिर भी हमारे आचरण में पूरी तरह नहीं उतर पाया है़ हमें पूरी तरह इंसान बनने में मदद नहीं कर रहा है़ पर क्यों? यह सवाल आज कई युवा मन में उठ रहा है़

ईसा मसीह ने दिखाया कि इस धरती पर उन्होंने कैसे पूरी तरह इंसान बन कर जिया़ लोगों की सेवा करते, गरीब, बेसहारों के पक्ष में लड़ते हुए अंत में अपने प्राण भी गंवा दिये़ पर आज पूरी दुनिया में देखने पर यह महसूस होता है कि जैसा उन्होंने जिया, उनके नाम पर खड़ा धर्म भी वह कर पाने में असमर्थ हुआ है़

इसके उलट यह आज वर्चस्व की लड़ाई का बड़ा हथियार बन रहा है़ ईसा ने जीवन भर इसी वर्चस्व की संस्कृति के खिलाफ संघर्ष किया था़ मजबूर, बेसहारों के पक्ष में खड़े रहे, लेकिन इसके बाद उनके नाम पर दुनिया में जितना रक्त बहा उसकी चर्चा नयी पीढ़ियों से नहीं की जाती़ यह धर्म उनके नाम पर विकासशील देशों की ओर बढ़ा, जहां भूख, गरीबी व अशिक्षा थी, पर साधन संपन्न देशों में धर्म के मायने बदल रहे थे़ वहां इसकी जरूरत खत्म हो रही है़

यूरोप में आर्थिक संपन्नता के कारण लोग अब अपनी आंतरिक खुशियां गिरजाघरों में नहीं ढूंढ़ते़ दुनिया भर में ईश्वर की आराधना के लिए बने गिरजाघरों को देखने पर एक नयी कहानी नजर आती है़ ईसा जिनके पक्षधर रहे, वे आज भी अपने जीवन से संघर्ष कर रहे हैं.

लेकिन संपन्न यूरोप के कई देशों में ऐसे लोगों की संख्या लगातार बढ़ रही है, जो किसी भी धर्म को नहीं मानते़ गैलप सर्वे 2016 के अनुसार जर्मनी में 59 प्रतिशत, स्विडन में 76 प्रतिशत, स्पेन, ऑस्ट्रिया, फ्रांस की लगभग आधी आबादी अनीश्वरवादी है़

वहां धर्म की उपस्थिति का प्रतीक गिरजाघर शक्ति व दौलत के प्रदर्शन के उदाहरण बन रहे हैं. धीरे-धीरे दर्शनीय स्थलों में तब्दील हो रहे हैं. कुछ जर्मन सामाजिक कार्यकर्ता कहते हैं कि यूरोप में गिरजाघर वास्तव में पूजा स्थल कम शक्ति प्रदर्शन का केंद्र अधिक हैं. यहां प्रार्थना करनेवालों की संख्या लगातार घट रही है़

जर्मनी के कोलोन शहर में स्थित विशाल कैथोलिक चर्च 1880 से 1890 तक दुनिया का सबसे ऊंचा चर्च बना रहा़

चर्च के दोनों शिखर की लंबाई आज भी दुनिया के दूसरे सबसे ऊंचे चर्च शिखर का दर्जा पाते हैं. यह उत्तरी यूरोप का सबसे बड़ा चर्च है़ इसने मध्ययुग व आधुनिक युग दोनों देखा है़

इसका निर्माण 15 अगस्त 1247 को ऐसे समय में प्रारंभ हुआ, जब क्रूसेड (धर्मयुद्ध) जारी था़ 1473 में कोलोन का यह चर्च बिना सुसज्जित किये छोड़ा दिया गया़ बाद में 1840 में कार्य फिर शुरू हुआ, जो 1880 में पूरा हुआ़ इसके निर्माण कार्य में 40,000 मजदूर लगे थे़ यह गोथिक आर्किटेक्चर का बेजोड़ नमूना माना जाता है़

1996 में युनेस्को ने इसे वर्ल्ड हेरिटेज का दर्जा दिया़ दुनिया भर से हर दिन 20,000 लोग इसे देखने पहुंचते हैं. पूरा जर्मनी विशाल चर्चों से पटा है़ पुराने समय में जब घड़ी नहीं थी, तब चर्च के घंटे लोगों को समय बताने के लिए भी बजते थे़

आज हर हाथ में घड़ी है, पर अब भी कई गिरजाघरों के घंटे अपने निर्धारित समय में बजते हैं. यूरोप के गिरजाघर आज बेहतरीन आर्किटेक्चर का उदाहरण बने दर्शनीय स्थल की तरह खड़े हैं और लोग वहां प्रार्थना करने नहीं उन्हें देखने, कला को सराहने, दीवारों पर छिपे इतिहास को महसूस करने आते हैं.

जसिंता केरकेट्टा

कवयित्री और स्वतंत्र पत्रकार

मानव इतिहास की एक अनमोल और पवित्र घटना है यीशु का जन्म

फादर सीआर प्रभु

दिसंबर के मध्य से जनवरी के मध्य क्रिसमस का मौसम है. इस दौरान दुनिया भर में धार्मिक व सामाजिक समारोह होते हैं. बेकरी वाले अपनी सर्वश्रेष्ठ पाक कौशल का प्रदर्शन करते हैं.

सांता क्लॉज उत्पादनों का विज्ञापन करते नजर आते हैं. लोग यीशु, उनके माता-पिता, चरवाहे, उनकी भेड़ें व मुक्तिदाता को तलाशते तीन ज्योतिषियों की प्रतिमा के साथ सुंदर चरनी बनाते हैं. धार्मिक कार्यक्रमों में भाग लेने के साथ एक-दूसरे से मिलते-जुलते और रिश्तों का दायरा बढ़ाते हैं. कई लोग गरीबों और वंचितों के साथ अपनी खुशियां साझा करते हैं.

यह संभव है कि कई लोगों को मालूम नहीं कि क्रिसमस क्या है या क्रिसमस का केंद्रीय अर्थ क्या है. क्रिसमस के दिन हम यीशु मसीह का जन्मोत्सव मनाते हैं. बाइबल का पहला भाग पुराना नियम मनुष्यों के बीच की एक सुंदर प्रेम कहानी है. यह इस सृष्टि के हर इंसान की कहानी है.

ईश्वर मनुष्यों को खोजते हैं और इंसान ईश्वर को खोजता है. यही हर धर्म का सार है-ईश्वर की खोज, अमरत्व की तलाश, दुनिया के सभी प्रकार के उत्पीड़न, दुखों व बुराइयों से मुक्ति की खोज मसीही विश्वास के अनुसार इस शाश्वत खोज के कारण परमेश्वर व मनुष्यों का मिलन यीशु में हुआ है. हम उन्हें बचाने वाला और उद्धारकर्ता कहते हैं. क्रिसमस ईश्वर के अवतार लेने का उत्सव है; ईश्वर बेथलेहम की एक गोशाला में बच्चे के रूप में जन्म लेते हैं. यह मानव इतिहास की एक अनमोल व पवित्र घटना है.

इस दुनिया को ईश्वर ने बनाया और वह इस दुनिया में, पूरी सृष्टि में मौजूद हैं, इसलिए यह पूरी दुनिया, पूरी सृष्टि पवित्र है. हम मनुष्यों का इस सृष्टि की हर वस्तु के साथ एक प्राकृतिक व पवित्र बंधन है.

इसलिए पर्यावरण, पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि व ध्वनि की हर तरह के प्रदूषण, गिरावट और विनाश से सुरक्षा व संरक्षण की जिम्मेवारी हमारी है. पूरी मानव जाति का अस्तित्व सृष्टि के साथ हमारे संबंधों के प्रति हमारे दृष्टिकोण पर निर्भर है. हमें यह बड़ी जिम्मेवारी मिली है.

हमारा देश बहुभाषी, बहु-सांस्कृतिक और बहु-धार्मिक और एक बहुलतावादी समाज है. यह परस्पर प्रेम व सम्मान की अपेक्षा करता है; बेहतर समझ, बेहतर स्वीकृति, अधिक सहिष्णुता, अधिक विश्वास और गहन मैत्रीपूर्ण रिश्तों की मांग करता है. यीशु का पूरा शिक्षण व प्रचार विभिन्न धर्मों व संस्कृतियों के सभी लोगों के बीच न्याय, शांति, सामंजस्य, समानता और भाईचारे के बुनियादी संदेश पर आधारित है.

ईश्वर हमारे बीच बालक बनकर इसलिए आये, ताकि स्वार्थ, पूर्वाग्रहों, बंधनों, असहिष्णुता और हर तरह के शोषण से मुक्ति का संदेश दें. क्रिसमस की इस भावना को दुनिया भर में फैलनें दें, विशेषकर हमारे देश में. इससे मित्रता और सहभागिता के बंधन सशक्त होंगे और सबमें एक बड़े परिवार का हिस्सा होने की भावना आयेगी.

क्रिसमस के समय जब लोग उपहारों का आदान-प्रदान करते हैं, वे इस बात को रेखांकित करते हैं कि ईश्वर ने हमें अपने पुत्र के रूप में अपना सबसे बड़ा उपहार दिया है. सांता क्लॉज की अवधारणा है कि वह बच्चों को चकित करते हुए उपहार देते हैं, उन्हें खुश करते हैं.

क्रिसमस ऐसा समय है जब हम गरीबों, बेघर, निराश्रित, अनाथ, शरणार्थियों और अन्य कमजोर लोगों के प्रति अपना प्यार व चिंता प्रदर्शित कर सकते हैं. ईश्वर ने खुद को विनम्र किया, खुद को रिक्त कर दिया, एक गरीब, असहाय बच्चे का रूप लिया, जो एक गोशाले में जन्मे क्योंकि उन्हें मनुष्यों के बीच पैदा होने की जगह नहीं मिल सकी. वह शरणार्थी बने. क्रिसमस के पुण्यकाल में दुनिया भर में गरीबों और बेघर लोगों की देखभाल करने और उनके साथ साझा करने की भावना नजर आती है. क्रिसमस की यह भावना पूरे मानव समाज पर हमेशा बनी रहे.फादर सीआर प्रभु

कैथोलिक चैरिटीज,

जमशेदपुर के

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