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आज के साहित्य में भी प्रवेश कर गया है टीआरपी का फंडा : उत्तम पीयूष

-रजनीश आनंद- आज के दौर में साहित्य का समाज से सरोकार घटता जा रहा है. साहित्यकार खुद को बड़ा समझने लगा है. टीआरपी का फंडा साहित्य में भी प्रवेश कर गया है और यही कारण है कि आज का साहित्य बौद्धिक तो है, लेकिन आम लोगों से वह जुड़ नहीं पा रहा. उक्त बातें साहित्यकार […]

-रजनीश आनंद-

आज के दौर में साहित्य का समाज से सरोकार घटता जा रहा है. साहित्यकार खुद को बड़ा समझने लगा है. टीआरपी का फंडा साहित्य में भी प्रवेश कर गया है और यही कारण है कि आज का साहित्य बौद्धिक तो है, लेकिन आम लोगों से वह जुड़ नहीं पा रहा. उक्त बातें साहित्यकार और सामाजिक कार्यकर्ता उत्तम पीयूष ने तब कही जब प्रभात खबर डॉट कॉम से उन्होंने लंबी बातचीत की. उत्तम पीयूष ने अबतक दो सौ से अधिक कविताएं लिखीं हैं और ‘चीख सकते तो पहले पेड़ चीखते’ उनकी सबसे प्रसिद्ध कविता संग्रह हैं. प्रस्तुत है उस बातचीत के प्रमुख अंश:-

आपकी रचनाओं में मानवीय संवेदनाएं प्रमुखता से उपस्थत रहती हैं? क्या जो आप लिखते हैं उसे जीया भी है?

देखिए मानवीय संवेदनाएं मेरी रचनाओं में प्रमुखता से इसलिए नजर आती है, क्योंकि मैं बचपन से इनसे जुड़ा हूं. मैंने अंधेरे को पहचाना है, उससे मेरी दोस्ती रही है. मैंने इन चीजों को सहजता से महसूस किया है. आंखों में आंसू आये नहीं लेकिन वे कभी भी आ सकते हैं. यह एहसास संवेदना की नदी बनी और मैं स्व से संवाद करने लगा. मेरे अंदर कहीं कवि जागा, शब्द बनने लगे और मैंने लिखना शुरू कर दिया.

आप एक स्थापित साहित्यकार हैं? लेकिन आप मधुपुर जैसे छोटे शहर से हैं, तो क्या आपको इस कारणवश परेशानी हुई?

जी छोटे शहर का होने के कारण आपको संघर्ष तो करना ही पड़ता है, यहां संसाधनों की कमी होती है. मैंने 1985 से 1990 के बीच ‘आरोह’ नामक पत्रिका का प्रकाशन करवाया. उसके लिए मुझे प्रिंटिंग टेक्नोलॉजी से लेकर कागज तक के लिए संघर्ष करना पड़ा. मैं पोस्टकार्ड के जरिये लोगों से संपर्क करता था, काफी संघर्ष किया. उस पत्रिका में देश के शीर्ष के साहित्यकार लिखते थे, लेकिन सात अंक के प्रकाशन के बाद मैं पत्रिका का प्रकाशन नहीं कर पाया.

आपने लिखना कब से शुरू किया?

जैसा कि मैंने बताया आसपास होने वाली घटनाओं ने मेरे अंदर के कवि को जीवित किया और मैंने लिखना शुरू कर दिया. मैं स्कूल के समय से ही लिखता था. लेकिन जब मैं इंटर में पढ़ता था उस वक्त पहली बार मेरी कविता कॉलेज मैगजीन में प्रकाशित हुई. इसका श्रेय मेरे शिक्षक को जाता है. मैं एक किस्सा बताऊं कि दरअसल मैं क्लास में बैठकर अपनी कॉपी में कविताएं भी लिखता था. एक दिन मेरे शिक्षक ने मुझसे मेरी कॉपी मांग ली, मैं बहुत डरा हुआ था. उस वक्त गर्मियों की छुट्टी होने वाली थी मैं घर चला गया, लेकिन जब छुट्टियों से वापस लौटा तो मेरे दोस्तों ने मुझे बधाई दी, मैं समझ नहीं पाया कि कारण क्या है, तब मेरे दोस्तों ने बताया कि कॉलेज के मैगजीन में मेरी कविता आयी है. दरअसल मेरे शिक्षक ने मेरी कॉपी से कविताएं निकाल कर प्रकाशन के लिए दे दी थीं.

आपकी पहली कविता कौन सी है?

मेरी पहली प्रकाशित कविताएं तो कॉलेज मैगजीन में ही आयीं, लेकिन पहली रचना कहेंगे तो ‘आस्था’ थी जो हिंदुस्तान में छपी थी इसके अतिरिक्त ‘बसंत’ को भी आप शुरुआती रचनाओं में शामिल कर सकती हैं.

आज जिस तरह का साहित्य लिखा जा रहा है उसपर आपकी क्या राय है?

आज साहित्य भी दबाव में लिखा जा रहा है. रचना में रचनात्मकता का अभाव है. रचना में सामाजिक सरोकार नजर नहीं आता. लोग ज्यादा ही जागरूक होकर लिख रहे हैं, यही कारण है कि उनमें बौद्धिकता तो है, लेकिन वह लोगों से जुड़ नहीं पा रहे. लोग ऐसी रचनाओं से प्रभावित नहीं हैं. आजकल लोग यह सोचकर लिखते हैं कि मैं ऐसा लिखूंगा तो तो फलां मैगजीन अखबार में छप जाऊंगा. आपके अंदर जो स्वाभाविक तौर पर मौजूद है उसका प्रकटीकरण होना चाहिए, लेकिन ऐसा हो नहीं पा रहा है. जैसे कि अगर आपके अंदर गुस्सा है, तो गुस्सा दिखना चाहिए. अगर आप प्रेम कविताएं लिख रहे हैं, तो उसमें वैसी ही भावना होनी चाहिए. लेकिन आज ऐसा नहीं हो पा रहा है. हम अपनी चेतना के साथ नग्न क्यों नहीं हो सकते? आज ऐसा नहीं हो रहा जिसके कारण समुदाय से कविताओं का रचनाओं का नाता टूट रहा है. आज साहित्यकार कॉरपोरेट साहित्यकार हो गये हैं.

आप रचना के वक्त मुख्यत: किन बातों का ध्यान रखते हैं?

मैं जब कविताएं लिखता हूं तो यह कोशिश करता हूं कि वह समाज से संवाद करती हों. कविता का दिमाग से कोई लेना-देना नहीं है. यह दिल से निकलती हैं. तो उसकी ओरिजिनलिटी बनी रहे. यह कोशिश मैं करता हूं.

अपने बारे में कुछ बतायें?

मेरा जन्म बिहार के भागलपुर में हुआ. बांका मेरा पैतृक निवास है, लेकिन कर्मभूमि मधुपुर है. मैंने अपने जीवन में यह अनुभव किया कि लोग साहित्यकारों को बेकार समझते हैं. लोगों को लिखने -पढ़ने का काम बेकार लगता है या इसे यूं कह सकते हैं कि जिस काम के पैसे ना मिलते हों, वह बेकार है. इसलिए मैंने एक्टिव साहित्यकार बनना उचित समझा. कहने का मतलब है कि मैंने लिखकर जागृति लाने की बजाय करके जागृति लाने का सोचा और अपने क्षेत्र के ‘चाकुलिया झरना’ को बजाने के लिए एक अभियान छोड़ा. इस झरना को पत्थर माफिया ने बर्बाद कर दिया था. लेकिन स्थानीय लोगों की मदद से मैंने इस मुद्दे को आम लोगों का मुद्दा बनाया और इस झरने को बचाया.

आपके प्रिय कवि कौन हैं?

किसी खास का नाम लेना सही नहीं होगा, मैंने कई लोगों को पढ़ा है, जो मेरे प्रिय हैं. शुरुआत में मैं दिनकर, दुष्यंत कुमार को पढ़ता था. नागार्जुन बाबा, कबीर, चेखव और मोपांशा भी प्रिय हैं.

आप भविष्य में कैसे कवि के रूप में याद किये जाना चाहते हैं?

मैं एक एक्टिविस्ट कवि के रूप में याद किया जाना चाहता हूं, जिसने सिर्फ लिखा ही नहीं लोगों को कुछ करने के लिए प्रेरित भी किया.

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