Trump Tariffs : ट्रंप प्रशासन द्वारा भारतीय उत्पादों पर 50 प्रतिशत टैरिफ लगाने के बाद भारतीय निर्यातकों के विविध संगठनों ने रिजर्व बैंक से ऋण चुकाने में राहत, ऋण स्थगन, एनपीए (गैर-निष्पादित परिसंपत्तियों) के नियमों में ढील देने और बिना जुर्माना देय तिथि को आगे बढ़ाने और प्राथमिकता क्षेत्र में ऋण बढ़ाने का आग्रह किया है, ताकि भारतीय निर्यातक अमेरिकी टैरिफ से होने वाले नुकसान के बाद भी अपने कारोबार को जिंदा रख सकें और विदेशी निर्यातकों से मुकाबला करने में समर्थ बन सकें.
ग्लोबल ट्रेड रिसर्च इनिशिएटिव की रिपोर्ट के अनुसार, 50 प्रतिशत टैरिफ के बाद भारत के करीब 5.4 लाख करोड़ रुपये का निर्यात प्रभावित हुआ है, जबकि भारत अमेरिका को अभी 7.59 लाख करोड़ रुपये का निर्यात करता है. इस तरह, निर्यात में 71 फीसदी गिरावट दर्ज होने का अनुमान है. टैरिफ से कपड़े, जेम्स-ज्वेलरी, फर्नीचर, सी-फूड जैसे भारतीय उत्पाद महंगे हो गये हैं और इनकी मांग में लगभग 70 प्रतिशत की कमी आने का अनुमान है. वहीं चीन, वियतनाम और मेक्सिको जैसे कम टैरिफ वाले देश इन सामान को सस्ती कीमत पर अमेरिका में बेच रहे हैं, जिससे अमेरिकी बाजार में भारत की हिस्सेदारी कम हुई है. एक अनुमान के मुताबिक, टैरिफ से भारतीय निर्यातकों की लागत दूसरे देशों के निर्यातकों की तुलना में 35 से 40 प्रतिशत तक बढ़ सकती है.
टैरिफ से एमएसएमइ क्षेत्र को सबसे अधिक नुकसान होने का अनुमान है, क्योंकि इसकी वित्तीय क्षमता कम है और इस क्षेत्र का देश के कुल निर्यात में 45 फीसदी से अधिक का योगदान है. भारत अमेरिका से शीर्ष पांच उत्पाद जैसे, कच्चा पेट्रोलियम, पेट्रोलियम उत्पाद, सोना, इलेक्ट्रॉनिक कंपोनेंट्स और कोयला व कोक खरीदता है, जबकि पेट्रोलियम, दवा व फार्मा, मोती व महंगे पत्थर, इलेक्ट्रॉनिक इंस्ट्रूमेंट्स, इलेक्ट्रॉनिक मशीनरी व उपकरणों आदि का निर्यात करता है.
अमेरिका के साथ व्यापार करना भारत के लिए हमेशा फायदे का सौदा रहा है. उदाहरण के लिए, वित्त वर्ष 2023-24 में भारत ने अमेरिका को 6.75 लाख करोड़ रुपये का निर्यात किया था, जबकि आयात केवल 3.67 लाख करोड़ रुपये का किया था. इससे पहले के वर्षों में भी कमोबेश यही स्थिति रही थी. लेकिन अगर समग्रता में देखें, तो देश में निर्यात हमेशा आयात के मुकाबले कम रहा है, जिस कारण आजादी के बाद से ही व्यापार घाटे की स्थिति बनी हुई है. साथ ही, निर्यातकों को अंतरराष्ट्रीय कारोबार में पूंजी की कमी, विदेशों में भुगतान का जोखिम, मुद्रा विनिमय में आने वाले उतार-चढ़ाव जैसी चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है. वाणिज्यिक बैंक शुरू से ही निर्यातकों को मदद करते रहे हैं.
प्री-शिपमेंट क्रेडिट के तहत बैंक उत्पादों के निर्माण, कच्चे माल की खरीद, कामगारों को वेतन आदि के लिए ऋण मुहैया कराते हैं, जबकि पोस्ट-शिपमेंट क्रेडिट के अंतर्गत वे निर्यातकों को उनके माल का तुरंत भुगतान कर आयातकों से पैसों की वसूली का जोखिम खुद उठाते हैं. बैंक निर्यातकों के प्रतिनिधि के तौर पर लेटर ऑफ क्रेडिट (एलसी) के जरिये आयातक को भुगतान की गारंटी देते हैं और गारंटी के जरिये सौदा पूरा न होने पर निर्यातकों को होने वाले संभावित नुकसान का जोखिम कम करते हैं. बैंक निर्यातकों को विदेशी मुद्रा विनिमय की सुविधा उपलब्ध कराने, फॉरवर्ड कांट्रैक्ट के माध्यम से नुकसान का जोखिम कम करने और निर्यातकों को बीमा उपलब्ध कराने का काम करते हैं.
बैंकों के अलावा, उद्योग और सुरक्षा ब्यूरो (बीआइएस), सीमा शुल्क और सीमा सुरक्षा (सीबीपी), वाणिज्य विभाग, विदेश विभाग, और ट्रेजरी विभाग आदि सरकारी एजेंसियां भी निर्यातकों को मदद करती हैं. इसके बरक्स, बीआइएस और सीबीपी निर्यात और आयात नियमों के प्रवर्तन और अनुपालन की देखरेख करते हैं. रिजर्व बैंक के आंकड़ों के अनुसार, 29 दिसंबर, 2023 तक बैंकों द्वारा निर्यात के मद में दिये गये ऋण की आउटस्टैंडिंग 12,940 करोड़ रुपये थी, जो 26 जनवरी, 2024 तक बढ़कर 20,489 करोड़ रुपये हो गयी थी, लेकिन 27 जून, 2025 तक यह राशि घटकर 13,047 करोड़ रुपये रह गयी. निर्यातकों को कम ऋण वितरित करने का मुख्य कारण अमेरिकी टैरिफ है. इसके कारण बैंक निर्यातकों को ऋण देने में सावधानी बरत रहे हैं, क्योंकि उन्हें लोन के एनपीए (गैर निष्पादित परिसंपत्ति) में तब्दील होने का डर सता रहा है.
इसके अलावा, इसके कारण अमेरिका को किये जाने वाले निर्यात वॉल्यूम में भी गिरावट दर्ज की गयी है. भारत में निर्यात ऋण अभी कुल मांग का मात्र 28.5 प्रतिशत है, जिसे अपेक्षित नहीं कहा जा सकता है, जबकि देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में 2024 में निर्यात का 21.18 प्रतिशत का योगदान रहा था. इसके अतिरिक्त, निर्यातकों को मौजूदा भू-राजनीतिक परिस्थितियों और मुद्रा के मौजूदा विनिमय दर से भी नुकसान उठाना पड़ रहा है. निष्कर्ष के तौर पर यह कहा जा सकता है कि अमेरिकी टैरिफ से अमेरिका निर्यात करने वाले निर्यातकों, खासकर एमएसएमइ निर्यातकों को सरकार, भारतीय रिजर्व बैंक और वाणिज्यिक बैंकों की तरफ से राहत देने की जरूरत है, अन्यथा बैंकों पर एनपीए का दबाव बढ़ेगा, जो निर्यात और भारतीय अर्थव्यवस्था की सेहत के लिए मुफीद नहीं होगा.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

