32.1 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Trending Tags:

Advertisement

नियम विरुद्ध कैद का हो समाधान

सख्त कानूनी व्यवस्था और जेल में रखने के लिए कड़े नियम, बड़े अपराधियों से निपटने के लिए बनाये जाते हैं, लेकिन हकीकत में उनका इस्तेमाल कमजोर लोगों के खिलाफ ही होता है.

विराग गुप्ता, लेखक और वकील

ट्विटर- @viraggupta

अपराधियों को कठोर दंड मिले, लेकिन बेगुनाह जेल में नहीं रहें. यह निर्विवाद तौर पर भारत की संवैधानिक व्यवस्था है. संविधान के अनुच्छेद-21 में दिये गये जीवन के अधिकार की व्याख्या करते हुए सुप्रीम कोर्ट के जज कृष्ण अय्यर ने 45 साल पहले एक अहम आदेश दिया था- सात साल से कम सजा के मामलों में जमानत (बेल) नियम और गिरफ्तारी (जेल) अपवाद होना चाहिए. अनुच्छेद-22 के तहत किसी व्यक्ति को अदालत के आदेश के बगैर 48 घंटे से ज्यादा पुलिस हिरासत में नहीं रखा जा सकता. सीआरपीसी कानून की धारा 167(2) के अनुसार जांच एजेंसी या पुलिस यदि दो या तीन महीने के भीतर आरोप पत्र दाखिल नहीं कर पाती है, तो आरोपी को डिफॉल्ट बेल मिलने का हक है. इसके बावजूद जेलों में क्षमता से कई गुना ज्यादा कैदी भरे पड़े हैं.

कैदियों को तीन श्रेणी में बांटा जा सकता है. पहला, ऐसे मुजरिम, जिनकी सजा फाइनल हो गयी है. दूसरा, ऐसे अभियुक्त, जिनके मुकदमे का ट्रायल चल रहा है या अपील लंबित है. तीसरा, जिनकी एफआईआर के बाद गिरफ्तारी हो गयी, लेकिन जांच पूरी नहीं होने से आरोपपत्र दाखिल नहीं हुआ. विधि आयोग, केंद्र सरकार, राज्य सरकारों और मानवाधिकार संगठनों ने जेलों की दुर्दशा को सुधारने के लिए कई रिपोर्ट दी, लेकिन सिस्टम नहीं सुधरा. इस मर्ज के लिए पुलिस और अदालतें दोनों जिम्मेदार हैं.

गिरफ्तारी के बारे में दो तरह की कानूनी व्यवस्था है. पहला, संज्ञेय और गैरजमानती किस्म के गंभीर अपराध जैसे हत्या, लूट, बलात्कार और ड्रग्स आदि के मामलों में मजिस्ट्रेट के वारंट के बगैर ही आरोपी को गिरफ्तार किया जा सकता है. दूसरे असंज्ञेय और जमानती किस्म के हल्के आपराधिक मामले. इनमें मजिस्ट्रेट के आदेश के बगैर गिरफ्तारी नहीं होनी चाहिए. यदि गिरफ्तारी जरूरी हो भी, तो थाने या अदालत से ही तुरंत जमानत मिलने और रिहाई के लिए कानूनी प्रावधान हैं.

सुप्रीम कोर्ट के अनुसार, तीन साल से कम सजा के मामलों में बेवजह गिरफ्तारी नहीं होनी चाहिए. वर्ष 1994 में जोगिंदर कुमार के फैसले में, सुप्रीम कोर्ट के जज वेंकटचलैया ने बेवजह की गिरफ्तारियों को रोकने के लिए जरूरी आदेश पारित किये थे. इनके अनुसार, शातिर अपराधी, जो नये अपराध करने के साथ गवाह और सबूत मिटा सकते हैं, उन मामलों में ही जमानत देने से इनकार होना चाहिए. गृह मंत्रालय की संसदीय समिति की लोकसभा में पेश 230वीं रिपोर्ट के अनुसार, गलत एफआइआर या कानून के दुरुपयोग के मामलों में दोषी पुलिस अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए.

सिविल मामलों में निचली अदालत, जिला अदालत और हाइकोर्ट का क्षेत्राधिकार निर्धारित होता है. लेकिन, क्रिमिनल मामलों में जिला अदालतों को आजीवन कारावास से लेकर फांसी देने तक का असीमित अधिकार है. जज आरोपियों को जमानत देने में अपने संवैधानिक उत्तरदायित्व के निर्वहन से बचने की कोशिश करते हैं. इसकी वजह यह भी है िक अगर कोई निहित स्वार्थ या भ्रष्टाचार ना हो तो फिर आरोपियों को जमानत देकर जज बेवजह के विवादों में नहीं फंसना चाहते. सुप्रीम कोर्ट ने 2020 में साफ किया है कि जेल भेजने के मामलों में मजिस्ट्रेट और जजों को विस्तृत और कानून सम्मत आदेश पारित करना चाहिए.

सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश एनवी रमन्ना की अध्यक्षता वाली तीन जजों की पीठ ने जमानत देने के लिए नये दिशा-निर्देश जारी किये हैं. सीआरपीसी की धारा 439 के तहत गंभीर और संगीन अपराधों में अपराधियों को नियमित जमानतें देना ठीक नहीं है. लखीमपुर में किसानों को कार से कुचल कर मारने के मामले में केंद्रीय मंत्री के पुत्र की जमानत को रद्द करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि लोगों को लंबे समय तक जेल में नहीं रखा जा सकता.

आरोपियों को जमानत मिले या नहीं मिले, इसके बारे में हर तरह के आदेश उपलब्ध हैं. सरकारों ने इनका संकलन नहीं कराया. उन जटिल और विरोधाभासी नियमों को पुलिस, वकील और जज जमानत देने या नहीं देने के लिए मनमाफिक तरीके से इस्तेमाल करते हैं. जेलों में बंद अधिकांश लोग गरीब, अशिक्षित, आदिवासी और वंचित वर्ग से हैं. इन लोगों के मामले में पुलिस एफआईआर में दर्ज आरोपों को ही अपराध मान लिया जाता है. उन्हें वकील नहीं मिलते. कई बार जमानत हो भी जाये तो गरीबों के पास जमानत की प्रक्रिया पूरा करने के लिए जमानतदार और बांड आदि की व्यवस्था नहीं हो पाती. सख्त कानूनी व्यवस्था और जेल के नियम, बड़े अपराधियों के लिए बनाये जाते हैं, लेकिन, उनका इस्तेमाल कमजोर लोगों के खिलाफ ही होता है. इसकी एक मिसाल कोरोना काल में देखने को मिली.

लॉकडाउन के उल्लंघन और मास्क नहीं पहनने के लिए धारा 188 के तहत एफआइआर दर्ज करना सरासर गलत है. दो हाइकोर्ट ने इस बारे में फैसला भी दिया. इसके बावजूद लाखों लोगों के खिलाफ पुलिस ने एफआइआर दर्ज की. ऐसे सभी मुकदमों को वापस लेने के लिए राज्यों के चीफ सेक्रेटरी और डीजीपी को कानूनी नोटिस भेजा गया. उसके बाद उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र में मुकदमों के वापसी की शुरुआत हो गयी. गलत गिरफ्तारी का रिवाज खत्म हो. पुलिस एफआइआर से परेशान लोगों को अदालत से जल्द जमानत मिले. तभी अमृत काल में सही अर्थों में गण और तंत्र दोनों का सशक्तीकरण होगा.

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें