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लघु वनोपज का सरताज महुआ

विकसित महुआ का एक पेड़ कई प्रकार की आवश्यकताओं की पूर्ति करता है. इसलिए इसे आधुनिक कल्पतरु की संज्ञा दी जाए, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी.

महुआ भारतवर्ष के लगभग सभी भागों में होता है और पहाड़ों पर तीन हजार फुट की ऊंचाई तक पाया जाता है. जंगलों में यह स्वच्छंद रूप से उगता है. इसके फूल, फल, बीज लकड़ी सभी उपयोगी होते हैं. आमतौर पर यह पेड़ 20-25 वर्ष में फूलने और फलने लगता है और सैकड़ों वर्षों तक मौजूद रहता है. वन वैज्ञानिकों ने कई प्रजतियां विकसित की हैं, जो अब 5-10 वर्षों में फल-फूल देने योग्य हो जाती हैं. दक्षिण भारत में इसकी लगभग 12 प्रजातियां पायी जाती हैं, जिनमें ऋषिकेश, अश्विनकेश, जटायु पुष्प प्रमुख हैं. ये 4-5 वर्ष में ही फल-फूल देने लगते हैं.

आर्थिक चिंतकों का कहना है कि दुनियाभर में मंदी दस्तक दे रही है. शक्ति का संतुलन भी बदल रहा है. यूक्रेन-रूस की जंग हो रही है. पर्यावरण असंतुलन और जलवायु परिवर्तन से रू-ब-रू हो रहे हैं. ऐसे में हमें आजीविका के साधन में भी बदलाव लाने होंगे. साथ ही खाने की आदतों में भी बदलाव लाना होगा. इन दिनों विकास योजनाओं में उन तत्वों को भी शामिल किया जा रहा है, जिसका उपयोग अब प्रचलन में नहीं के बराबर है.

सामाजिक स्तर पर भी प्रयास होने लगा है, लेकिन इसे अभियान के तौर पर लेने की जरूरत है. हमें सरकार से रोजगार की गारंटी की उम्मीद नहीं करनी चाहिए, लेकिन सरकार से आधारभूत संरचना एवं शिक्षा की उम्मीद छोड़नी भी नहीं चाहिए. रोजगार के लिए खुद के प्रयास ज्यादा सार्थक और स्थायी होते हैं.

शहरी क्षेत्रों में तो स्वरोजगार की अनेक संभावनाएं दिख जाती हैं, लेकिन ग्रामीण इलाकों में साधन सीमित हैं. मसलन कृषि, पशुपालन एवं हस्तशिल्प के अलावा और कोई बड़ा साधन ग्रामीण क्षेत्रों में देखने को नहीं मिलता. ग्रामीण भारत के लिए बागवानी रोजगार का बढ़िया साधन हो सकता है. बागवानी की चर्चा चंद फलों तक ही सीमित रह जाती हैं, जैसे- आम, अनार, लीची, केला, सेव, किनू, संतरा, नाशपाती, अमरूद आदि. गैर-फलदार पेड़ों में भी रोजगार एवं आमदनी की अपार संभावनाएं हैं.

इन वृक्षों में बांस के अलावा लाह के लिए कुसुम व बेर बेहद उपयोगी हैं. इन तमाम वृक्षों के विदोहन की दिशा में काम हो रहा है, लेकिन महुआ का जितना आर्थिक महत्व है, उस परिप्रेक्ष्य में वैज्ञानिक उपयोग की योजना सीमित दिखती है. हमारा देश अरबों रुपये का पामऑयल विदेश से आयात करता है. अगर महुआ को विकसित किया जाए, तो इस आयात को सीमित किया जा सकता है. पामऑयल की अपेक्षा महुआ का तेल ज्यादा पौष्टिक है.

प्रयास किये जाएं, तो 10 वर्षों में खाद्य तेल के मामले में देश आत्मनिर्भर हो सकता है. इससे हमारी ग्रामीण अर्थव्यवस्था को बल मिलेगा. एक विकसित महुआ का पेड़ वर्ष भर में कम से कम 30 हजार रुपये तक की आमदनी दे सकता है. महुआ के पके फल से खाद्य तेल निकाला जाता है. वहीं उसकी खल्ली मिट्टी की उर्वरता बढ़ाने में कारगर साबित होती है. इसे दूध देने वाले पालतू जानवरों को भी खिलाया जाता है. महुआ के फूल से खाद्य एवं पेय पदार्थों को बनाया जाता है.

झारखंड जैसे गरीब राज्यों में महुआ, जामुन, कटहल आदि खाने हेतु उपयोग में लाया जाता है, लेकिन विडंबना है कि ऐसे वृक्षों की संख्या घटती जा रही है. वैज्ञानिक शोधों से ज्ञात होता है कि महुआ के ताजे फूल में नमी लगभग 80 प्रतिशत तक की होती है. सूखने पर यह 11 से लेकर 19 प्रतिशत तक रह जाती है. उसी प्रकार पीएच की मात्रा 4.6 प्रतिशत, स्टार्च की मात्रा 0.94, राख 1.5, चीनी 47.35, प्रोटीन की मात्रा ताजे फूल में छह से सात और शुष्क में लगभग छह प्रतिशत होती है.

फैट की मात्रा ताजे फूल में 1.6 और शुष्क में 0.09 प्रतिशत, फाइबर की मात्रा 10.8 प्रतिशत, ताजे फूल में कैल्शियम की मात्रा 45 और शुष्क में आठ प्रतिशत, फॉस्फोरस ताजे में 22 और शुष्क में दो प्रतिशत, विटामिन सी ताजे में 40 और शुष्क में सात प्रतिशत तक होती है. महुआ में कार्बोहाइड्रेट की मात्रा ताजे फूल में 22 ,जबकि सूखे फूल में 68 प्रतिशत तक की रहती है. महुआ कई बीमारियों के इलाज में अचूक असर करता है. यह पेप्टिक अल्सर, दांत के रोग, ब्रोंकाइटिस, मिर्गी, त्वचा रोग, बुखार, मधुमेह, कृमि जनित रोग, लीवर, हृदय रोग आदि में बहुत फायदा करता है. महुआ अर्क का उपयोग दर्द निवारण में होता है.

इसके सेवन से अनिद्रा की बीमारी में लाभ होता है. पुराने जमाने के वैद्य शरीर को चेतनाशून्य बनाने के लिए इसका उपयोग किया करते थे. यदि मुर्गी के अंडे के पीले पदार्थ को हटा कर श्वेत भाग में इसके अर्क को मिला कर नियमित सेवन किया जाए, तो टीवी की बीमारी में चमत्कारी प्रभाव देखने को मिलता है. फसलों में लगे फंगस को दूर करने में भी इसके अर्क का उपयोग किया जाता है. आयुर्वेदिक दवाओं में तो इसके अर्क का उपयोग होता ही है, होम्योपैथिक और एलोपैथ की दवाओं में भी महुए के फूल के अर्क का उपयोग किया जाता है.

इसका तेल खाने के काम, लगाने और जलाने के काम में आता है. यह शरीर में ब्लड सूगर की मात्रा को कम कर देता है. महुए से पुड़ी, अचार, लड्डू, ठेकुआ, खीर, चटनी, सिरका, किसमिस और चिकी आदि बनाया जाता है. यदि महुआ का उपयोग बढ़ेगा, तो स्वाभाविक रूप से गांव की अर्थव्यवस्था पर इसका बेहद अनुकूल असर पड़ेगा. एक विकसित महुआ का पेड़ कई प्रकार की आवश्यकताओं की पूर्ति करता है. इसलिए इसे आधुनिक कल्पतरु की संज्ञा दी जाए, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी.

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