बताया जा रहा है कि पाक सेना प्रमुख जनरल सैयद आसिम मुनीर समेत वहां के बड़े सेनाधिकारियों ने परिवारों को यूरोप भेज दिया है. उन्हें डर है कि पहलगाम आतंकी हमले की प्रतिक्रिया में भारत बड़ी कार्रवाई कर सकता है. अभी तक भारत सरकार ने सिंधु जल संधि स्थगित करने, पाक उच्चायोग में स्टाफ घटाने, सार्क समेत 14 श्रेणियों में पाक नागरिकों को जारी वीजा तुरंत रद्द करने और अटारी बॉर्डर बंद करने जैसे कुछ सख्त फैसले लिये हैं. पाकिस्तान ने भी भारत के लिए अपना एयरस्पेस बंद करते हुए जवाबी कदम उठाये हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की आतंकियों की ‘मिट्टी में मिलाने’ की चेतावनी तथा पीड़ितों को न्याय मिल कर रहेगा, जैसी टिप्पणियां सख्त रुख का संकेत हैं. पाकिस्तान को ऐसा सबक मिलना चाहिए कि वह फिर से ऐसी हिमाकत न कर सके, पर पाकिस्तान को नापाक मंसूबों में सफल हो जाने देने के लिए उत्तरदायी हमारे तंत्र की जिम्मेदारी भी तय होनी चाहिए.
पर्यटन कश्मीर की अर्थव्यस्था की रीढ़ है. हाल के वर्षों में वहां पर्यटकों की बढ़ती संख्या भी सुखद है, लेकिन पहलगाम की बैसरन घाटी में हमले वाले दिन हजारों पर्यटकों की सुरक्षा की कोई व्यवस्था नहीं थी. आपसी रिश्ते रसातल में पहुंच जाने के बावजूद इस संकटकाल में विपक्ष ने सरकार को समर्थन दे कर समझदारी का परिचय दिया है, पर सुरक्षा में चूक की बात घुमा-फिरा कर स्वीकार करनेवाली व्यवस्था को खुद को भी दुरुस्त करना होगा. ऐसे हमले को बिना सुनियोजित साजिश और तैयारी के अंजाम नहीं दिया जा सकता. पिछले दिनों संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में पाकिस्तान द्वारा पुन: कश्मीर राग अलापे जाने तथा पाक सेना प्रमुख जनरल आसिम मुनीर द्वारा अचानक हिंदू-मुसलमान के बीच स्पष्ट भेद बताते हुए टू नेशन थ्योरी पर कुतर्कों के साथ लंबे प्रवचन से हमारी व्यवस्था के कान खड़े हो जाने चाहिए थे. हमले की आशंका की खुफिया सूचना के बावजूद पर्यटक स्थलों पर सुरक्षा सुनिश्चित नहीं की गयी थी. घटनास्थल पर सुरक्षा नदारद होने से सेना की घटती संख्या तथा अग्निवीर योजना पर भी सवाल उठते हैं.
पाकिस्तान तो अस्तित्व में आने के बाद से ही भारत में अलगाववाद और आतंकवाद फैलाने की साजिशें रचता रहा है, पर उन्हें नाकाम करते हुए देश की सुरक्षा की जिम्मेदारी और जवाबदेही हमारे सत्ता तंत्र की है. संविधान संशोधनों के बाद जम्मू-कश्मीर की वास्तविक कमान केंद्र सरकार और उसके प्रतिनिधि उपराज्यपाल के ही हाथ है. पहलगाम हमले के बाद मीडिया के एक वर्ग में यह सवाल भी उछाला गया कि आखिर सुप्रीम कोर्ट के दबाव में विधानसभा चुनाव करवाने की जरूरत ही क्या थी? लोकतंत्र पर ही इस तरह सवाल उठाना ठीक नहीं.
दूसरा बड़ा मुद्दा धार्मिक पहचान पूछ कर मारे जाने को बनाया जा रहा है. बेशक यह मानवता के विरुद्ध है, पर आतंकवाद मानवता के विरुद्ध ही तो है. उग्रवाद के दौर में पंजाब में भी धार्मिक पहचान के आधार पर बसों से उतार कर हत्या की जाती थी. पहलगाम में हिंदू पर्यटकों की जान बचाते हुए एक कश्मीरी मुस्लिम ने अपनी जान तक गंवा दी. इसके बाद भी यदि देश के कुछ हिस्सों में कश्मीरी छात्रों को निशाना बनाने की कोशिश होती है, तो यह दुखद है. भारत और पाकिस्तान ही नहीं, दुनिया को भी लग रहा है कि कुछ बड़ा होगा. होना भी चाहिए. आतंकवाद के समूल नाश के बिना भारत शांतिपूर्वक नहीं रह सकता. प्रधानमंत्री मोदी के ऐसे सख्त बोल पिछली बार पुलवामा हमले पर सुनाई पड़े थे और फिर भारतीय लड़ाकू विमानों ने पाकिस्तान के बालाकोट में एयरस्ट्राइक कर जैश-ए-मोहम्मद के आतंकी शिविरों को तबाह कर दिया. उरी हमले के जवाब में सर्जिकल स्ट्राइक के बाद वह दूसरा अवसर था, जब भारत ने सीमा पार कर आतंकियों और उनके आकाओं को सबक सिखाया. उसी के बाद सरकार और भाजपा ने नारा बुलंद किया कि यह नया भारत है, जो दुश्मन को घर में घुस कर मारता है. वह नारा जनता के सिर चढ़ कर बोला. उत्साहित मोदी सरकार ने जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देनेवाले संविधान के अनुच्छेद 370 को समाप्त करते हुए उसे विभाजित भी कर दिया. दावा किया गया कि अनुच्छेद 370 अलगाववाद और आतंकवाद का औजार बन गया था. बाद के वर्षों में जम्मू-कश्मीर में बेहतर हालात का दावा भी किया गया. इस पृष्ठभूमि में पहलगाम हमला चौंकाता है.
हमेशा की तरह इस बार भी पाकिस्तान इस हमले में अपनी लिप्तता स्वीकार नहीं कर रहा, पर दीवार पर लिखी इबारत की तरह साफ है कि यह सीमा पार प्रायोजित आतंकी हमला ही था, पर अप्रत्याशित हरगिज नहीं था. ऐसी घटनाओं पर भावनात्मक आक्रोश स्वाभाविक है, लेकिन स्थायी समाधान तात्कालिक उबाल से संभव नहीं है. पहलगाम हमले के बाद आतंकियों के विरुद्ध कार्रवाई तथा पाक नागरिकों को वापस भेजे जाने पर जोर दिख रहा है. आतंकवाद के नासूर का स्थायी इलाज दीर्घकालीन कठोर नीतियों से ही संभव है, जिनमें अपनी सुरक्षा खुद सुनिश्चित करने का दायित्वबोध अनिवार्यता है. शैतान के अचानक संत बन जाने की उम्मीद करने के बजाय निर्णायक प्रहार ही कारगर रणनीति है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)