Judge cash-scandal : हाइकोर्ट के जजों ने मध्य प्रदेश के मंत्री विजय शाह के खिलाफ एफआइआर दर्ज करने का आदेश देने वाली सुनवाई के दौरान सख्त बातें कहीं. कोर्ट ने कहा कि मंत्री की गटर छाप भाषा बेहद खतरनाक होने के साथ देश के संस्थानों और ताने-बाने पर भी गंभीर चोट करती है. सरकार की तरफ से महाधिवक्ता ने जवाब देने के लिए समय मांगा, तो जजों ने कहा कि चार घंटे के भीतर एफआइआर दर्ज होनी चाहिए, पता नहीं कल वे जीवित रहें या ना रहें. अगर एफआइआर दर्ज नहीं हुई, तो डीजीपी के खिलाफ अवमानना की कार्रवाई होगी. जजों की सख्ती को देखते हुए मुख्यमंत्री मोहन यादव को एफआइआर दर्ज करने का निर्देश देना पड़ा.
इस प्रकरण से यह साफ है कि जजों के पास लोकहित में न्याय देने के लिए अपार शक्ति है. मध्य प्रदेश के मंत्री ने तो सेना को नीचा दिखाने की कोशिश की. लेकिन जस्टिस यशवंत वर्मा कैशकांड से तो न्यायपालिका की साख कमजोर होने के साथ-साथ कानून के शासन पर लोगों का भरोसा भी कमजोर हुआ है. भ्रष्टाचार और न्यायिक कदाचरण के ऐसे मामलों में संवैधानिक शक्तियों का इस्तेमाल न करने से न्यायपालिका सवालों के घेरे में आती है.
तीन जजों की जांच समिति की रिपोर्ट में जस्टिस वर्मा के खिलाफ कई सबूत मिलने की बात कही जा रही है. रिटायरमेंट से पहले प्रधान न्यायाधीश संजीव खन्ना ने जस्टिस वर्मा को पद छोड़ने की सलाह दी थी. लेकिन उनके इनकार के बाद प्रधान न्यायाधीश ने राष्ट्रपति से महाभियोग की प्रक्रिया शुरू करने की अनुशंसा की. पुराने फैसले के अनुसार जजों के खिलाफ महाभियोग शुरू करने से पहले आंतरिक जांच की प्रक्रिया पूरी करना जरूरी है. इससे पहले इलाहाबाद हाईकोर्ट के पूर्ववर्ती दो जजों को आंतरिक जांच समिति ने दोषी पाया था. लेकिन उनके खिलाफ महाभियोग की कार्रवाई नहीं हुई और वे सम्मानपूर्वक जज के पद से रिटायर हो गये.
सनद रहे कि संविधान के 75 वर्ष पूरे होने पर अभी तक किसी भी जज को महाभियोग की प्रक्रिया से हटाना संभव नहीं हुआ है. राष्ट्रपति की स्वीकृति के बाद संसद के दोनों सदनों में दो तिहाई बहुमत से महाभियोग के प्रस्ताव को मंजूरी मिलना आवश्यक है. सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज जस्टिस रामास्वामी मामले में महाभियोग का प्रस्ताव संसद में गिर गया था. सुप्रीम कोर्ट के पूर्व प्रधान न्यायाधीश जस्टिस दीपक मिश्रा के खिलाफ विपक्षी पार्टियों के अनेक सांसदों ने महाभियोग का प्रस्ताव पेश किया था. पर राज्यसभा के सभापति वेंकैया नायडू ने प्राथमिक तौर पर ही उसे निरस्त कर दिया था.
इसके विपरीत जस्टिस वर्मा बड़े वकीलों से कानूनी सलाह ले रहे हैं. पूर्व प्रधान न्यायाधीश की सलाह के अनुसार वह पद से हटने का निर्णय पहले लेते हैं, तो उनका संवैधानिक सुरक्षा कवच ध्वस्त हो सकता है. उनके खिलाफ पुलिस की एफआइआर के साथ सीबीआइ और इडी की जांच भी शुरू हो सकती है. हाइकोर्ट के दो जजों सौमित्र सेन और दिनाकरन ने महाभियोग से बर्खास्तगी की बजाय त्यागपत्र देना बेहतर समझा था. उसी तरह आपराधिक मामले से मुक्त रखने का मोलतोल करके जस्टिस वर्मा भी महाभियोग से बर्खास्तगी की बजाय त्यागपत्र का विकल्प चुन सकते हैं.
दिल्ली हाईकोर्ट से इलाहाबाद स्थानांतरण के बाद जस्टिस वर्मा को न्यायिक कार्यों से विरत रखा गया है. जस्टिस वर्मा के पुराने फैसलों पर उंगली उठने के साथ लंबित मामलों पर नये सिरे से सुनवाई होने से संशय और अराजकता बढ़ रही है. सरकारी अधिकारी को निलंबन के बाद आधा वेतन मिलता है. जजों के कार्यों के आधार पर उनके ऑडिट की बात चल रही है. लेकिन न्यायिक कार्यों से विरत रहने के बावजूद जस्टिस वर्मा को पूरे वेतन, भत्ते और अन्य शासकीय सुविधाएं मिलना संवैधानिक नैतिकता के लिहाज से कैसे ठीक माना जा सकता है? जस्टिस वर्मा के मामले में संवैधानिक सुरक्षा और आपराधिक मुकदमे के पहलुओं को गड्डमड्ड करने से भ्रम बढ़ रहा है.
राष्ट्रपति और राज्यपाल को संविधान में संरक्षण हासिल है. लेकिन पुराने आइपीसी और नये बीएनएस कानून के अनुसार जजों के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामलों में आपराधिक मामला शुरू करने पर कोई रोक नहीं है. पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुसार प्रधान न्यायाधीश की अनुशंसा के बाद ही राष्ट्रपति जजों के खिलाफ आपराधिक मुकदमे के लिए स्वीकृति दे सकते हैं. हाइकोर्ट के दो जज किसी को फांसी देने या फांसी से बचाने का फैसला कर सकते हैं. तो फिर तीन जजों की रिपोर्ट के बाद जस्टिस वर्मा के खिलाफ आपराधिक मुकदमा दर्ज कराने के लिए सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस को मंजूरी क्यों नहीं देनी चाहिए? जस्टिस वर्मा के खिलाफ आपराधिक मामला दर्ज करने के लिए दायर पीआइएल पर नये चीफ जस्टिस बीआर गवई ने तत्काल सुनवाई से इनकार किया है. पूर्व चीफ जस्टिस संजीव खन्ना के आदेश के अनुसार नकदी जलने वाले वीडियो की क्लिपिंग और पत्र व्यवहार को सार्वजनिक किया गया था. इसलिए नये प्रधान न्यायाधीश जस्टिस गवई जांच समिति की रिपोर्ट को सार्वजनिक करने का प्रशासनिक निर्णय लेकर पारदर्शिता से न्यायिक व्यवस्था की गरिमा को बहाल करने का प्रयास कर सकते हैं.
पहलगाम में आतंकी हमले की रिटायर जज से जांच की मांग को ठुकराते हुए सुप्रीम कोर्ट के जज सूर्यकांत ने कहा था कि जजों के पास ऐसी जांच के लिए विशेषज्ञता नहीं होती. महाभियोग की संवैधानिक प्रक्रिया के साथ इन चार कारणों से कैश कांड मामले के सभी पहलुओं की आपराधिक जांच बहुत जरूरी है. पहला, जांच समिति के अनुसार आग लगने के बाद बोरियों में बंद नोटों को घटनास्थल से गायब किया गया है. नोटों को गायब करना मनी लॉन्ड्रिंग का गंभीर आरोप है. दूसरा, जस्टिस वर्मा के परिवारजन और स्टाफ को संविधान में कोई सुरक्षा नहीं मिली है. सबूतों को नष्ट करने या गायब करने वाले लोगों के खिलाफ तुरंत मामला दर्ज होना चाहिए. तीसरा, न्यायिक मुकदमों की सुनवाई से यदि भ्रष्टाचार की रकम अर्जित की गयी थी, तो उन निजी कंपनियों और पक्षकारों का पर्दाफाश होना जरूरी है. चौथा, बड़े पैमाने पर करोड़ों की नकदी को घटनास्थल से हटाकर कहां भेजा गया, उसे भी तत्काल बरामद करने की जरूरत है. आंतरिक जांच समिति का गठन न्यायिक कदाचरण के लिए किया गया था. लेकिन कैशकांड से जुड़े भ्रष्टाचार और अपराध के अनेक पहलुओं की पुलिस, सीबीआइ या लोकपाल से स्वतंत्र और निष्पक्ष जांच होनी चाहिए. तभी पूरी सच्चाई सामने आ सकेगी. (ये लेखक के निजी विचार हैं.)