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जीएसटी में सुधार का लाभ आम लोगों को

GST : प्रधानमंत्री मोदी ने स्वतंत्रता दिवस के अपने अभिभाषण में जीएसटी में प्रस्तावित सुधार को देशवासियों के लिए दीपावली का उपहार बताया. उन्होंने वादा किया कि जीएसटी में अगली पीढ़ी का सुधार आम लोगों, खासकर मध्यवर्ग और एमएसएमइ पर से टैक्स का बोझ हटाने पर केंद्रित है.

GST: आठ साल पहले बड़े धूमधाम से जीएसटी की घोषणा हुई थी. तब इसे एक महत्वपूर्ण टैक्स सुधार के रूप में आंका गया था. इससे मालों की आवाजाही में दो राज्यों के बीच के विवाद पर तो विराम लगा ही, रिसाव भी खत्म हुआ. जीएसटी कानून संसद में पारित हुआ, तो इसे व्यापक लाभ के लिए आर्थिक हितों के बलिदान के रूप में देखा गया, जिसमें केंद्र सरकार ने उत्पाद और सेवा कर का अधिकार छोड़ दिया, तो प्रांतीय सरकारों ने बिक्री कर, वैट और चुंगी जैसे दूसरे करों से अपने हाथ खींच लिये. राज्य सरकारों से वादा किया गया कि केंद्र सरकार उनके घाटे की भरपाई करेगी. वर्ष 2017 के मूल जीएसटी कानून में क्षतिपूर्ति का जो प्रावधान था, उसकी अवधि 2022 में खत्म हो गयी. ऐसे में, अब राज्य सरकारों को आशंका है कि उनकी टैक्स हिस्सेदारी में भारी कमी आयेगी. जीएसटी लागू होने से पहले राज्य सरकारें अपनी वित्तीय जरूरतों की भरपाई वैट, प्रवेश कर और चुंगी से कर लेती थीं. नयी व्यवस्था में उनकी यह आजादी खत्म हो गयी, जो उनकी चिंता का बड़ा कारण है. आठ साल बाद भी जीएसटी में बदलाव और सुधार जारी हैं, बावजूद इसके कि जीएसटी काउंसिल में राज्यों के प्रतिनिधि अच्छा काम कर रहे हैं.

इस परिप्रेक्ष्य में यह स्वागतयोग्य है कि प्रधानमंत्री मोदी ने स्वतंत्रता दिवस के अपने अभिभाषण में जीएसटी में प्रस्तावित सुधार को देशवासियों के लिए दीपावली का उपहार बताया. उन्होंने वादा किया कि जीएसटी में अगली पीढ़ी का सुधार आम लोगों, खासकर मध्यवर्ग और एमएसएमइ पर से टैक्स का बोझ हटाने पर केंद्रित है. सरकार का प्रस्ताव तीन मुख्य चीजों पर टिका हुआ है : ढांचागत सुधार, टैक्स दरों को सुव्यवस्थित करना और जीवन जीने में आसानी. इसमें संदेह नहीं कि जीएसटी में डिजाइन और इसे लागू करने की दृष्टि से कमियां हैं. डिजाइन के स्तर पर खामी यह है कि अप्रत्यक्ष कर के रूप में जीएसटी शुरू से ही एक प्रतिगामी कर व्यवस्था है. ऐसा इसलिए, क्योंकि टैक्स की देयता व्यक्ति की आय पर नहीं, खरीदी गयी वस्तु के मूल्य पर निर्भर करती है. इस कारण जीएसटी का बोझ अमीरों की तुलना में गरीबों को ज्यादा महसूस होता है. इसकी तुलना में आयकर और संपत्ति कर जैसे प्रत्यक्ष कर ज्यादा युक्तिसंगत हैं, क्योंकि उनमें टैक्स आय के अनुरूप चुकाया जाता है.

जीएसटी की खामियां कम करने के लिए जीएसटी के कर ढांचे में दो स्लैब होंगे. शून्य से पांच फीसदी तक के स्लैब में वे वस्तुएं हैं, जिनका उपभोग ज्यादातर गरीब करते हैं. इसके अलावा एक ऊंचे टैक्स स्लैब में वे वस्तुएं होंगी, जिनका उपभोग अमीर करते हैं. लेकिन यह टैक्स व्यवस्था दोषपूर्ण है, क्योंकि इसमें सरकार की ओर से यह निर्देशित किया जा रहा है कि गरीबों को कौन-सी चीजें खरीदनी चाहिए. जिन गरीब परिवारों में उच्च महत्वाकांक्षाएं हैं, उनका क्या करेंगे? कौन-सी वस्तु जरूरी है और कौन-सी वस्तु गैरजरूरी है, यह राज्य कैसे तय कर सकती है? दुनियाभर में भोजन और दवाओं पर टैक्स छूट है. एक विवेकपूर्ण और प्रभावी कर व्यवस्था वह है, जिसमें सभी वस्तुओं और सेवाओं पर टैक्स की दर समान हो. यूरोपीय संघ के देशों, सिंगापुर, ऑस्ट्रेलिया और दूसरे कई देशों में यही व्यवस्था है. हालांकि इनमें थोड़ा-बहुत बदलाव होता है, लेकिन अमूमन भोजन और दवाओं के लिए बहुत कम कर तथा तंबाकू, शराब और विलासिता वाली वस्तुओं पर उच्च कर की व्यवस्था बनी हुई है.

लागू करने के स्तर पर भी जीएसटी में खामियां हैं. अभी टैक्स के कई स्लैब हैं, शुल्क ढांचा उल्टा है और अनुपालन के स्तर पर छोटे व्यापारियों पर भारी बोझ है. टैक्स के कई स्लैब वस्तुओं और सेवाओं के वर्गीकरण में अक्सर विवादों का कारण बनते हैं. इससे करदाताओं में भ्रम पैदा होता है और मुकदमे दायर होते हैं. जबकि न्यायपालिका पर पहले से ही मुकदमों का बोझ है. जीएसटी में उल्टे शुल्क ढांचे को इस तरह समझा जा सकता है कि कई मामलों में तैयार माल की तुलना में उनके इनपुट्स या उपकरणों पर ज्यादा टैक्स है. इससे नकदी के प्रवाह में परेशानी आती है और घरेलू विनिर्माण इससे प्रभावित होता है. कृषि, पेट्रोलियम उत्पाद, बिजली, अल्कोहल और रियल एस्टेट जीएसटी के दायरे से अब भी बाहर है. जाहिर है, चुनींदा चीजों को कर व्यवस्था के दायरे से बाहर रखने से टैक्स का आधार विखंडित होता है, राजस्व घटता है और जीएसटी सुधार की भावना भी प्रभावित होती है. छोटे व्यापारियों और एमएसएमइ क्षेत्र को भारी दबाव झेलना पड़ता है, क्योंकि उन्हें अग्रिम जीएसटी चुकाना पड़ता है, जबकि उनके ग्राहक भुगतान में देरी करते हैं. रिफंड में विलंब और तकनीकी त्रुटियों से भी उनका कारोबार प्रभावित होता है. टैक्स दरों और कानून में जल्दी-जल्दी बदलाव तथा जटिल फाइलिंग सिस्टम से परेशानी और बढ़ती है.

प्रधानमंत्री ने स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर जीएसटी में सुधार की जो घोषणा की है, उसमें सबसे महत्वपूर्ण बदलाव यह है कि टैक्स के मौजूदा कई स्लैबों को घटाकर सिर्फ दो स्लैब रखे जायेंगे. इससे कारोबार में आसानी होगी, वस्तुओं के वर्गीकरण से जुड़े विवाद में कमी आयेगी और मुकदमेबाजी भी घटेगी. इससे जीएसटी की दरों में स्थिरता आयेगी. रोज की वस्तुओं तथा उच्च महत्वाकांक्षा वाले सामान पर टैक्स की दर घटेगी, उपभोग बढ़ेगा और एमएसएमइ क्षेत्र लाभान्वित होगा. टैक्स की दर घटने से विश्व बाजार में भारतीय निर्यात ज्यादा प्रतिस्पर्धी होगा और रोजगार सृजन में वृद्धि होगी. सरकार रजिस्ट्रेशन को निर्बाध और तकनीक चालित बनाने, जीएसटी रिटर्न की पहले फाइलिंग करने और रिफंड का भुगतान शीघ्रता से करने की दिशा में भी तैयारी कर रही है. हालांकि स्लैब की उच्च दर 15 फीसदी होनी चाहिए, 18 प्रतिशत ज्यादा है. बल्कि इस दर को 12 फीसदी होना चाहिए, जैसा कि कर सुधारों पर केलकर टास्क फोर्स ने सुझाया था. और अंत में संघवाद पर एक टिप्पणी.

संविधान के तहत राज्यों के पास खर्च की जिम्मेदारी (स्वास्थ्य और शिक्षा) अधिक है, जबकि आय के स्रोत कम हैं. जीएसटी ने इस असंतुलन को बनाये रखा है और राज्यों को वित्तीय जरूरतों के लिए केंद्रीय हस्तांतरण पर ज्यादा निर्भर रहना पड़ता है. जबकि स्थानीय विकास और जनकल्याण के लिए राज्यों के पास टैक्स लगाने का अधिकार होना चाहिए. माना यह जाता है कि जीएसटी ने भारत की संघीय सोच को कमतर किया है और राज्यों की वित्तीय स्वायत्तता को खत्म किया है. सुधार के तहत हमें इस पर भी सोचना चाहिए कि राज्यों को वित्तीय स्वायत्तता कैसे मिले. इसके अलावा टैक्स असमानता कम करने के लिए अप्रत्यक्ष करों से हटकर प्रत्यक्ष कर की ओर भी ध्यान देना चाहिए. (ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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