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पूर्वोत्तर भारत को बदलाव का इंतजार

म्यांमार में सत्ता पर सेना के काबिज होने से इस नीति को झटका लगा है और इससे पूर्वोत्तर के लिए जो खिड़की खुली थी, वह अभी बंद ही रहेगी.

मनमोहन सरकार के दौर में बनी ‘लुक ईस्ट’ (पूर्व की ओर देखो) नीति को मोदी सरकार ने ‘एक्ट ईस्ट’ (पूर्व में सक्रिय हों) की नीति की परिवर्तित संज्ञा के साथ जारी रखने का निर्णय किया था. इस नीति के तहत आसियान देशों के बाजार से सड़क मार्ग से संपर्क के जरिये पूर्वोत्तर भारत, खासकर असम, के आर्थिक विकास का उद्देश्य था. ऐसी अपेक्षा थी कि दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों से जुड़ाव से पूर्वोत्तर की निराशाजनक आर्थिक परिदृश्य में दूरगामी बदलाव होंगे. इससे न केवल इस क्षेत्र के उत्पादों के लिए उन देशों का बाजार खुलता, बल्कि ब्रह्मपुत्र घाटी भारत और दक्षिण-पूर्व के देशों के उत्पादों के आवागमन के लिए गलियारा बन जाता.

आतिथ्य उद्योग समेत अन्य तरह के इंफ्रास्ट्रक्चर विकसित होने से इस क्षेत्र की अर्थव्यवस्था को बढ़त मिलती. उम्मीद थी कि अब तक पूर्वोत्तर से अलग रहा भारतीय कॉर्पोरेट सेक्टर इस क्षेत्र में आसियान बाजार से नजदीकी होने की वजह से उद्योग स्थापित करेगा क्योंकि इससे यातायात खर्च में बचत होती. उद्योग लगाने से इस क्षेत्र की व्यापक बेरोजगारी की समस्या को दूर किया जा सकता था. सबसे अहम बात यह थी कि पूर्व की ओर बढ़ने से सुदूर होने का भाव खत्म होता, जिससे विलगाव पैदा होता है.

चीन, दक्षिण-पूर्व एशिया और भारत के बीच रणनीतिक स्थिति के कारण अतीत में पूर्वोत्तर की भू-राजनीतिक केंद्रीयता रही थी. प्राचीन काल से ही ब्रह्मपुत्र घाटी और चीन एवं दक्षिण पूर्व एशिया के लोगों के बीच व्यापारिक और सांस्कृतिक आदान-प्रदान होता रहा था. समुचित रूप से निर्धारित रास्तों की सुविधा के साथ ब्रह्मपुत्र नदी गलियारे ने भारत के मुख्यभूमि के व्यापारियों को व्यावसायिक उद्देश्यों के लिए उनके उपयोग का अवसर दिया. ब्रह्मपुत्र के पूर्वी कोने में म्यांमार, चीन और दक्षिण पूर्व एशिया के अन्य क्षेत्रों में जाने के अनेक रास्ते थे, जिनका उपयोग व्यापारी, तीर्थयात्री और धर्म प्रचारक खूब करते थे.

उदाहरण के लिए, ब्रह्मपुत्र-गंगा लिंक का एक भूमि विस्तार चीन जानेवाला ‘सिल्क रूट’ था. ब्रह्मपुत्र के एकदम पूर्व में स्थित सादिया से यह रास्ता निकलकर पतकाई पहाड़ों से होते हुए इरावती नदी के तट पहुंचता था, जहां से नदी से होकर व्यापारी अवा और चीन (युनान) जाते थे. बीसवीं सदी के शुरू में ऐसे ही एक पुराने सिल्क रूट रास्ते पर अंग्रेजों ने असम से म्यांमार तक स्टीलवेल रोड बनाया था.

दुर्भाग्य से, ब्रह्मपुत्र घाटी में करीब छह सदी तक राज करनेवाले अहोम वंश ने 19वीं सदी के शुरुआती दौर में म्यांमार के हमलों से परेशान होकर साम्राज्यवादी ब्रिटेन को हस्तक्षेप के लिए आमंत्रित कर अपनी संप्रभुता का त्याग कर दिया. लेकिन कुटिल अंग्रेजों ने म्यांमार के हमलावरों को हराने व भगाने के बाद असम को अपने अधीन कर लिया क्योंकि उन्होंने इस क्षेत्र को चीन के विकल्प के रूप में एक चाय साम्राज्य बनाने के आधार के रूप में पहचाना. इससे इस क्षेत्र से आगे पूर्व जाने के रास्ते बाधित हो गये, बहुत पुराने संबंध टूट गये और पूर्वोत्तर दक्षिण पूर्व एशिया से कट गया.

म्यांमार के आक्रमण और फिर अंग्रेजों द्वारा पूर्वोत्तर को अपने शासन में मिलाने की घटनाओं से इस क्षेत्र की राजनीतिक, आर्थिक और मनोवैज्ञानिक स्थिति बदल गयी. औपनिवेशिक सत्ता ने इस क्षेत्र की संप्रभुता को समाप्त कर दिया तथा इसे प्रशासनिक और न्यायिक स्तर पर मुख्य भारत से एकाकार कर दिया और इसे ब्रिटेन के भारतीय साम्राज्य के सबसे पूर्वी छोर की चौकी बना दिया. कुछ समय तक पूर्वोत्तर में यह एक समझ रही कि पश्चिम को छोड़ हर ओर से बंद होने के कारण जो मनोवैज्ञानिक और घुटन का अहसास रहा है, वह विद्रोह समेत अनेक समस्याओं का कारण है.

इस तर्क के समर्थक मानते थे कि दक्षिण पूर्व एशिया के लिए व्यावहारिक सड़क मार्ग खुलने से इस क्षेत्र को अपनी ऐतिहासिक केंद्रीयता हासिल करने में बड़ी मदद मिल सकती है. मनमोहन सिंह की सरकार अंतत: इससे सहमत हुई और ‘लुक ईस्ट’ की नीति घोषित कर दी गयी. इस नीति का उद्देश्य पुराने संपर्कों को फिर से बहाल करना था.

भारत की स्वतंत्रता के कई दशक बाद तक म्यांमार ऐसे किसी संपर्क की राह में एक अभेद दीवार की तरह था. साल 1962 में आयी सैनिक तानाशाही ने भारत के साथ अच्छे संबंधों को ठंडे बस्ते में डाल दिया क्योंकि भारत ने लोकतांत्रिक आदर्शों की हिमायत की कोशिश की थी. साल 1988 में सू ची की गिरफ्तारी ने स्थिति को और बिगाड़ दिया. इस बात से आगाह होने के बावजूद कि इस हालत में चीन को अपनी मौजूदगी बढ़ाने का मौका मिल रहा है, म्यांमार से संबंध सुधारने के प्रयास न के बराबर हुए.

ऐसे में उस रास्ते से विदेशियों के गुजरने की मंजूरी तो छोड़ ही दें, सैन्य शासन द्वारा भारत से थाईलैंड और चीन के लिए रास्ता बनाने की अनुमति की भी कोई संभावना नहीं थी. नब्बे के दशक में ही म्यांमार से रिश्ते सुधारने की कवायद शुरू हुई, जब भारत ने पश्चिम के साथ न जाकर अपने पड़ोसी देश पर पाबंदी लगाने से इनकार कर दिया. सू ची को दरकिनार कर दोनों देशों ने बेहतर रिश्तों के साथ 21वीं सदी में कदम रखा.

अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंधों और आंतरिक जन विरोधों के कारण सैन्य शासन को 2007 में नागरिक शासन की बहाली की ओर बढ़ना पड़ा. सू ची की पार्टी ने चुनाव में बड़ी जीत हासिल की और ऐसा माहौल बना कि भारत, म्यांमार, चीन और आसियान देशों के बीच रास्ता बन सकता है और भारत ‘लुक ईस्ट’ नीति की घोषणा कर सकता है.

साल 2012 में भारत-आसियान शिखर बैठक में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भारत, म्यांमार और थाईलैंड के बीच समझौते की घोषणा की, जिसमें त्रिपक्षीय राजमार्ग परियोजना को 2016 तक पूरा करने का उल्लेख था. दुर्भाग्य से, इसे लागू करने में भारत पीछे हटता रहा और एक दशक बाद भी यह नीति साकार नहीं हो सकी है. कुछ समय पहले संबंधित संसदीय समिति ने इस नीति की प्रगति पर असंतोष जताया था.

और अब, म्यांमार में हुए नाटकीय बदलाव से इस नीति को झटका लगा है. बीते फरवरी में 1962 के तख्तापलट को दोहराते हुए सेना सत्ता पर काबिज हो गयी. वर्तमान में वहां भयावह हिंसा का माहौल है. इस शासन या म्यांमार के भविष्य के बारे में अभी कुछ कह पाना मुश्किल है. इसका मतलब यह है कि बहुत सालों के लिए ‘लुक ईस्ट’ या ‘एक्ट ईस्ट’ नीति को ठंडे बस्ते में रखना होगा और इससे पूर्वोत्तर के लिए जो खिड़की खुली थी, वह अभी बंद ही रहेगी.

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